सोमपुत्री जाम्बवती
इस सृष्टि से पूर्वसृष्टि की बात है| जाम्बवती श्रीसोम की पुत्री थी| श्रीसोम श्री विष्णु की सेवा में लगे रहते थे| उनकी पुत्री जाम्बवती भी पिता का अनुशरण करती थी|
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वह नित्य पुराण सुनती, प्रतिक्षण भगवान् का स्मरण करती, उनके चरणों की वन्दना करती और उनकी सेवा में लगी रहती है| धीरे-धीरे जाम्बवती के अन्तःकरण में संसार की नश्वरता घर करती चली गयी|
वह समझ गयी कि सुख-दुःख माया के खेल हैं| इनसे ऊपर उठकर वह भगवत्प्रेम में आनन्द-विभोर रहने लगी| उसकी वाणी से भगवान् के नाम और गुण का कथन होता रहता| आँखें प्रभु की प्रतीक्षा में रत रहतीं, कान उनकी मीठी बातें सुनने के लिये उत्सुक रहते, हाथ अर्चना के सम्भार में लगे रहते और पैर उनकी प्रदक्षिणा में व्यस्त रहते| हृदय में एक ही कामना रह गयी थी कि मैं भगवान् के चरणों की दासी कैसे बन जाऊँ| वह सारा कार्य भगवान् के लिये करती थी और सम्पन्न होने पर उन्हें भगवान् को ही समर्पित कर देती थी| ब्राह्मणों और संतों की पूजा में उसे रस मिलता था| एक दिन श्रीसोम ने तीर्थयात्रा का विचार किया| इस समाचार से जाम्बवती फूली न समायी| वह पहले से ही उन स्थलों को देखना चाहती थी, जहाँ भगवान् ने अपनी लीलाएँ की हैं और जहाँ वे अदृश्यरूप से आज भी विराजते हैं| भगवान् श्रीनिवास में जाम्बवती का मधुर भाव था| शेषाचल पर अब प्रियम के दर्शन हो जायँ इस आशा से उसका रोम-रोम खिल उठा| पिता का भी भगवान् में पूरा लगाव था| दोनों की उत्सुकता अनिर्वचनीय थी| यात्रा प्रारम्भ हो गयी| पिता-पुत्र के पग बिना बढ़ाये बढ़ रहे थे| धीरे-धीरे कपिल नामक तीर्थ आ गया| सद्गुरु जैगीषव्य की आज्ञा से पिता ने मुण्डन कराया, स्नान किया और तीर्थ-श्राद्ध किया| फिर विविध प्रकार के दान दिये| इसके बाद सद्गुरु ने वेंकटाद्रिका महत्व सुनाया| इससे उन यात्रियों के मन में श्राद्ध का अतिरेक हो गया| वे लोग बहुत प्रेम से इस पवित्र पर्वत पर चढ़ने लगे|
सद्गुरु जैगीषव्य, नारद, प्रह्वाद, पराशर, पुण्डरीक आदि महाभागवतों की कथा सुनते रहे| नाम के रस का अस्वादन करते हुए लोग चल रहे थे| सच पूछा जाय तो वे चल नहीं रहे थे, अपितु आनन्द-वापी में डूब-उतरा रहे थे और तरंगे स्वयं उन्हें आगे पहुँचाती जाती थीं| जाम्बवती तो मानो आनन्द-वारिधि में उतराती चली जा रही थी|
चढ़ते-चढ़ते एक मनोरम तीर्थ आया| जाम्बवती ने पूछा-‘गुरुदेव! यह कौन-सा तीर्थ है? वह कौन भाग्यशाली है, जिस पर भगवान् ने यहाँ अनुग्रह किया था|’ इस प्रश्न से जैगीषव्य बहुत प्रसन्न हुए| उन्होंने कहा-‘बेटी! इस तीर्थ का नाम नरसिंह तीर्थ है| भक्तराज प्रह्वाद प्रेमवश भगवान् श्रीनिवास के दर्शनों के लिये यहाँ पधारे थे| उनके साथ दैत्यों के कुमार भी थे| वे यहाँ भगवान् के दर्शनों के लिये उत्कण्ठित हो गये थे| उन्होंने प्रह्वाद से कहा था-‘मित्र! जब नृसिंहरूप भगवान् श्रीनिवास कण-कण में व्याप्त है, तब इस जल में क्यों नहीं दिखायी देते? कृपाकर उनके दर्शन करा दीजिये!’
भक्तराज प्रह्वाद ने अपने भगवत्प्रेमी मित्रों को बहुत आदर दिया| इसके बाद उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि ‘वे सबको दर्शन दे दें|’ भगवान् ने संतराज की प्रार्थना की| दैत्यकुमार दर्शन पाकर कृतकृत्य हो गये और भगवान् ‘इस जल में स्नान करने से ज्ञान की प्राप्ति होगी’-ऐसा वरदान देकर प्रह्वाद तथा दैत्यकुमारों के साथ सदा के लिये इस तीर्थ में बस गये| उनका यह वास आज भी वैसे ही है और आगे भी वैसा ही रहेगा| मध्यान्ह के बाद आज भी चारों ओर जय-जय के शब्द सुनायी पड़ते हैं|
इस इतिहास को सुनकर सबको रोमांच हो आया| सभी को भगवान् श्रीनिवास ने दर्शन दिया| जाम्बवती के मधुर भाव के अनुरूप भगवान् ने हजारों कामदेव के समान अपना कमनीय रूप दिखाया| देखते ही जाम्बवती का प्रत्येक अंग शिथिल हो गया, रोमांच हो आया और आँखों से प्रेम के अश्रु ढलने लगे| किसी प्रकार टूटे-फूटे शब्दों में जाम्बवती ने कहा-‘नाथ! श्रीचरणों में रख लो|’
अब तक भगवान् ने अपने सौन्दर्य-सुधा का ही पान कराया था, अब उन्होंने अपने वचन-सुधा का पान कराते हुए कहा-‘जाम्बवती! मैं तुम्हें वेंटकेश-मन्त्र बताता हूँ| तुम यहीं रहकर इसका जप करो|’ जाम्बवती को लगा कि उसके कानों में अमृत उड़ेल दिया गया हो| वह आनन्द से बेसुध होने लगी| उसे न अपना पता था, न परायेका| जन्म की साथिन लाज कहाँ चली गयी, इसका भी उसे पता न था| आनन्दावेश में वह नाचने लगी| जाम्बवती के उस नृत्य से सारा ब्रम्हाण्ड रसविभोर हो उठा| स्वर्ग से अप्सराएँ उतर आयीं और जाम्बवती के अगल-बगल में नाचने लगीं| देवताओं ने दुंदुभी बजायी और आकाश से पुष्प की वृष्टि की|
श्रीसोम महाभाग्यशाली थे| उनकी छत्रच्छाया में रहकर जाम्बवती ने भगवान् को अपना पति बना लिया| विश्व के नाथ ने विधि के साथ जाम्बवती से विवाह किया| इस तरह जाम्बवती ने मनुष्य-जाति का सिर ऊँचा किया|