Homeशिक्षाप्रद कथाएँसिंदबाद की चौथी यात्रा

सिंदबाद की चौथी यात्रा

सिंदबाद की चौथी यात्रा

इस बार भी वैसा ही हुआ, जैसे अक्सर मेरे साथ होता था| कुछ दिन घर पर बीवी-बच्चों के साथ गुजारने के बाद मेरे मन में फिर से सफ़र की हुड़क उठने लगी और दिल के हाथों मजबूर होकर मुझे अपनी चौथी यात्रा पर निकलना पड़ा|

“सिंदबाद की चौथी यात्रा” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio

मगर इस बार हमारा जहाज़ मुश्किल से दो दिन और दो रातें सफ़र कर पाया था कि हम पर मुसीबत टूट पड़ी| हुआ यूँ कि अचानक समुंद्र में तूफ़ान आ गया और हमारा जहाज़ उस तूफ़ान में घिर गया| जहाज़ को कंट्रोल करने वाले काफ़ी सूझबूझ वाले थे इसलिए उन्होंने जहाज़ को डूबने तो नही दिया, मगर बचाने के चक्कर में हमारा जहाज़ किसी टापू की बालू पर चढ़ गया| इस उठा-पटक में जहाज़ तो टूटा ही, हमारे कुछ व्यापारी साथी, कुछ खलासी और जहाज़ के कई दूसरे कर्मचारी भी मारे गए|

जहाज़ के रुकते ही हम बाकी बचे लोग जहाज़ से उतरकर टापू के अंदर की ओर चल दिए| हमारा विचार था की हम पेड़ों की छाँव में आराम करेंगे, लेकिन आराम कैसा? मुझे तो लगा कि इस बार मुसीबतें हमसे चार कदम आगे चल रही है| टापू के भीतर दाखिल होते ही हमें बहुत से जंगलियों ने घेर लिया| हम कुल बारह जने थे| उन जंगलियों ने हमें आपस में लूट के माल की तरह बाँट लिया| मैं जंगली कबीले के मुखिया के हिस्से में आया| वे हमें बाँधकर अपने-अपने ठिकानों पर ले गए|

मेरे साथ ही मेरे चार दूसरे साथी भी मुखिया के हिस्से में आए थे| वह हमें अपने घर ले आया और कुछ चीज़ें खाने के लिए दी| हम लोग चूँकि पूरे बारह-चौदह घंटे तक तूफ़ान से लड़ते रहे थे, इसलिए भूखे थे, मगर इस प्रकार कुछ भी खा लेना मेरी फितरत नही थी जबकि मेरे साथियों ने यह भी नही देखा था की वह क्या चीज़ थी, वे उसे खा गए| मैंने नही खाई| दरअसल, ऐसे में मैं काफ़ी सावधानी बरतता हूँ|

इसका नतीजा चंद पलों बाद ही सामने आ गया जब मेरे साथी भयंकर नशे के गुलाम होकर अजीबो-गरीब हरकतें करने लगे| हालांकि मैं उन्हें होश कायम रखने के लिए बार-बार आग्रह कर रहा था, मगर वे समझने को राज़ी ही नही थे कि वे कहाँ थे और क्या हरकतें कर रहे थे| इसके बाद हमें कुछ दूसरी अच्छी चीज़ें खाने के लिए दी गई| मेरे साथी तो पहले से भी अधिक भूखों की तरह उन चीज़ों पर टूट पड़े मगर मैंने बहुत कम खाया| सिर्फ़ इतना जिससे कि जिंदा रह सकूँ| फिर ऐसा रोज़ ही होने लगा| वे न जाने हमें क्या खिलाते थे कि मेरे साथी जो कि ठूँस-ठूँसकर खाया करते थे, चंद दिनों में ही बुरी तरह फूल गए| उनके शरीर हट्टे-कट्टे और हाथी के बच्चों जैसे दिखाई देने लगे जबकि मैं पहले से भी कमज़ोर हो गया था|

दरअसल, मेरे कमज़ोर होने का कारण यह था कि मैं हमेशा उन लोगों के विषय में सोचता कि आखिर वे हमें खिला-खिलाकर मोटा-ताजा क्यों कर रहे है, मेरा ख्याल था कि वे हमें तंदुरुस्त करके एक दिन हमारी एकएक कर के बलि चढ़ा देंगे| इसी चिंता में मैं दुबला हुआ जा रहा था| मैंने सोच लिया था कि अगर किसी दिन मौका मिला तो मैं यहाँ से भाग जाऊँगा| दरअसल, अपने साथियों की अब मुझे कोई चिंता नही थी क्योंकि मेरे बार-बार मना करने के बाद भी वे उनके द्वारा दी जा रही नशे की चीज़ें खाने से बाज नही आ रहे थे| वे उन नशीली चीज़ों को खाकर नशे में या तो धुत पड़े रहते थे या उछल कूद करते थे| मैंने सोच लिया था कि अब उनका अल्लाह ही मालिक है|

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मौका पाकर मैं वहाँ से भाग निकला| भागते-भागते मैं उस टापू के जंगल में चला गया| वहाँ फल-फूल खाकर मैं दिन में आराम करता और रात को सफ़र करता| अपने बचाव के लिए मैंने लकड़ियों के कुछ हथियार बना लिए थे और इस समय मैं पूरी तरह चौकस था| मेरे सामने यदि खतरा आता तो वो भले ही मुझ पर हमला न करता, मगर मैंने उस पर हमला कर देना था| इसी प्रकार बचते-बचाते मैं आठ दिन बाद समुद्र के किनारे पर जा पहुँचा|

समुद्र के किनारे पहुँचकर मैंने कुछ लोगों को देखा जो वहाँ लगे पेड़ों के नीचे से काली मिर्च बटोर रहे थे| वे मुझे हमारे ही जैसे कामकाजी आदमी लगे| वे हर लिहाज़ से हमारे जैसे थे, बिल्कुल सामान्य और सीधे| मैं उनके पास पहुँच गया तो वे मुझे देखकर बड़े हैरान हुए|

“ऐ भाई! तुम कौन हो?” उनमें से एक ने अरबी भाषा में मुझसे पूछा|

वहाँ उन अनजान लोगों के मुहँ से अरबी भाषा सुनकर मुझे बेहद खुशी हुई| फिर मैंने उन्हें अपने विषय में बताया कि मैं कौन हूँ और कैसे एक कबीले से जान बचाकर वहाँ तक पहुँचा हूँ|

मेरी बात सुनकर वे बड़ा हैरान हुए और उन्होंने बताया कि जिस कबीले से मैं आया हूँ, वह आदमखोरों का कबीला था और अनजान लोगों की बलि चढ़ाकर वे उसका माँस खा लिया करते थे| उन्होंने मेरी विपदा जानकर मुझे अपने जहाज़ पर चढ़ा लिया और मुझे अपने देश ले गए| वहाँ मुझे अपने बादशाह के सामने पेश किया जिसे मैंने अपनी आपबीती सुनाई| बादशाह ने मेरे प्रति हमदर्दी जताई और मुझे अपना मेहमान बना लिया| इस देश के अब तक के जो रीति-रिवाज और जो कायदे-कानून मेरे सामने आए थे, वे सभी हमारे जैसे थे, मगर कुछ बातें यहाँ बड़ी अजीब थी| यहाँ बादशाह सहित सभी व्यक्ति घोड़े की नंगी पीठ पर ही सवारी करते थे|

मैं इस बात से काफ़ी परेशान था और फिर एक दिन मैंने बादशाह से पूछ ही लिया| तब उसने मेरे से ही उल्टा सवाल किया कि ये जीन क्या बला है| अब में उसे क्या जवाब देता, खैर, मैंने उसे बताया कि मैं एक दिन उसे दिखाऊँगा| बस उसी दिन से में बेहतरीन जीन बनवाने में जुट गया| मैंने एक मोची को पकड़ा और उससे अपनी देख-रेख में एक जीन बनवाई| फिर उस पर मलमल मढ़वाया और मलमल पर सोने के तारों से बेल-बूटों की कशीदाकारी करवाई| उसके बाद लोहार से बढ़िया सी दो रकाबें बनवाई| दर्जी से रेशम की लगामें बनवाई| जब सारी चीज़ें तैयार हो गई तो मैं उन्हें लेकर बादशाह के दरबार में पहुँचा और बादशाह को वे सभी चीज़ें दिखाई| फिर मैंने वहीं एक उम्दा नस्ल का घोड़ा मँगवाकर जब वे सब चीज़ें उस पर कसी तो उस समय घोड़े की शान देखकर बादशाह भी दंग रह गया| और उस समय तो उसकी खुशी का ठिकाना ही नही रहा, जब मैंने उसे उस पर सवार कराया|

बादशाह ने शाही मैदान में खूब घोड़ा दौड़ाया और खुशी ज़ाहिर की| वह इतना खुश हुआ कि दरबार में आकर उसने मुझे ढेर सारा बेशकीमती इनाम देने का ऐलान कर दिया| इसके बाद मैंने बादशाह के अनुरोध पर दरबारियों, अमीर-उमरावों और दूसरे खास लोगों के लिए भी जीनें तैयार करवाई| इससे मुझे खूब आमदनी हुई|

धीरे-धीरे आम लोगों के लिए भी मैंने जीनें बनवाई| वे सस्ती और साधारण थी, मगर थी आरामदेह! इस प्रकार मैंने काफ़ी धन जमा कर लिया| वहाँ के बच्चे-बच्चे की जुबां पर मेरा नाम हो गया|

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि बादशाह ने मुझे बुलावा भेजा| मैं उसके हजूर में पहुँचा तो उसने कहा, “देखो सिंदबाद! मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ और मेरी नज़र में तुम्हारी इज्जत भी बहुत है| मेरे मुल्क के वंशिदे भी तुम्हें बहुत पसंद करते है| मैं चाहता हूँ कि अब तुम हमेशा-हमेशा के लिए हमारे मुल्क में ही रहो| इसके लिए तुम्हें हमारे इसी मुल्क में शादी करके बसना होगा और अपने देश जाने का ख्याल दिल से निकालना होगा|”

उसकी बात सुनकर मैं थोड़ा घबरा गया| यह तो एक प्रकार से कैद हो जाना था| मगर में बादशाह को भी नाराज़ नही करना चाहता था| नतीजा यह हुआ कि अंत में मैंने अपनी रजामंदी दे दी| बस, फिर क्या था| फौरन से पेश्तर मेरी शादी अमीर घराने की एक लड़की से कर दी गई| मैं ऐश और बेफिक्री के साथ अपने दिन गुजारने लगा| यह न समझें की उस दौरान मुझे अपने मुल्क और बीवी-बच्चों की याद नही सताती थी| मुझे सबकी रह-रहकर याद आती थी, मगर मेरा ख्याल था कि एक दिन बादशाह से रजामंदी लेकर मैं अपने मुल्क ज़रुर पहुँचूँगा| वैसे भी मैं वहाँ से भाग निकलने के मनसूबे तो बाँधता ही रहता था, मगर वहाँ से भागना कतई भी आसान नही था| मेरी बीवी मेरी बड़ी देखभाल करती थी| वह मेरी एक-एक चीज़ का, एक-एक बात का ख्याल रखती थी| कई बार मैं सोचता था कि जब मैं यहाँ से भाग जाऊँगा तो उसका क्या होगा?

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मेरे पड़ोसी की बीवी मर गई| पड़ोसी से मेरी अच्छी-खासी जान-पहचान थी| इसलिए मैं भी उसके घर मातमपुर्सी के लिए गया| वह रो-रोकर हल्कान हुआ बैठा था| मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “बहुत ज्यादा गम मत करो दोस्त! जीना-मरना तो खुदा के हाथ में है| तुम अपने आपको संभालो, अभी तुम्हारे आगे इतनी लंबी उम्र पड़ी है|”

“कहाँ भाई सिंदबाद! जीने के ख्वाब देखना तो अब तुम लोगों के नसीब में रह गया है| मैं तो अब चंद घंटों का ही मेहमान हूँ, मेरे दोस्त! अपने मुल्क के रिवाज के मुताबिक मुझे भी चंद घंटों बाद ही मेरी बीवी के साथ जिंदा दफ़न कर दिया जाएगा|”

“क्या?” मैं घबराकर उठ खड़ा हुआ, “क्या कहा तुमने?”

“हैरान मत हो भाई| ये हमारे यहाँ का रिवाज है कि यदि कोई औरत मर जाए तो उसके आदमी को और यदि कोई आदमी मर जाए तो उसकी औरत को भी उसकी लाश के साथ जिंदा ही दफ़न कर दिया जाता है|”

उसकी ये बात सुनकर मेरे दिमाग पर सन्नाटा छा गया| मैं उस आदमी को शक भरी नज़रों से देखने लगा की कही ये आदमी पागल तो नही हो गया|

मगर ऐसी कोई हरकत वह नही कर रहा था, जिससे मुझे उसके पागल हो जाने का सबूत मिले| खैर, मैंने सोचा कि इसकी बात सच है या झूठ, इसका फैसला यहाँ की सारी कार्यवाही अपनी आँखों से देखने के बाद ही होगा| मैं खामोशी से एक तरफ़ बैठ गया| कुछ ही देर में जब मय्यत उठने का समय आया तो घर की दूसरी औरतों ने उस औरत के सभी कीमती वस्त्र, गहने आदि उसकी मय्यत पर रख दिए| फिर मय्यत उठी| मरने वाली के पति ने मातमी पोशाक पहनी हुई थी और वह सबसे पीछे किसी जिंदा लाश की तरह चल रहा था|

जल्दी ही मय्यत का वह जुलूस एक पहाड़ी पर पहुँच गया| वहाँ ले जाकर अर्थी को एक तरफ़ रख दिया गया| पहाड़ पर ही एक कुआँ था जिसका मुहँ एक बड़े पत्थर से ढका हुआ था| कुछ लोग जाकर उस पत्थर को हटाने लगे| पत्थर हटाने के बाद उन्होंने वह अर्थी उठाकर उस कुँए में फेंक दी| उसके बाद उसके सभी कीमती कपड़े और गहने भी उसी कुँए में डाल दिए गए| इसके बाद उसका पति अपने मित्रों व रिश्तेदारों से गले मिलने लगा| फिर वह भी एक अर्थी पर लेट गया| लोगों ने उसके पास पानी का एक घड़ा और सात रोटियाँ रख दी, फिर उसे भी अर्थी समेत उस कुँए में फेंक दिया गया|

इसके बाद सब लोग अपने-अपने घरों को चले गए|

यह सब कुछ अपनी आँखों से देखकर मैं बुरी तरह व्यथित हो उठा| मै बादशाह के सामने इस बात का कड़ा विरोध करना चाहता था| मुझे इन लोगों की इस बेवकूफी पर बड़ा गुस्सा आ रहा था| मैं यह भी जानना चाहता था कि आखिर बादशाह का इस बारे में क्या विचार है| मैं सीधा बादशाह के पास पहुँचा और बोला, “हुजुर! आपके यहाँ एक विचित्र प्रथा को देखकर मेरा दिल बेहद दुखी है| मुर्दे के साथ जिंदा आदमी को दफ़नाना, यह तो जंगलीपन है| मैंने दुनिया के कई मुल्कों की खाक छानी है, मगर ऐसा वाहियात रिवाज मैंने कही नही देखा| आप इसे बंद क्यों नही करवाते जहाँपनाह|”

मेरी बात सुनकर बादशाह काफ़ी देर तक खामोश बैठा रहा, फिर एक ठंडी सांस लेकर बोला, “मैं इस मुआमले में कुछ नही कर सकता सिंदबाद| यह तो हमारे देश का सदियों पुराना रिवाज है| बल्कि अब तो यह हमारे धर्म की एक प्रथा बन गई है| छोटे-बड़े सभी पर यह नियम लागू होता है| आज अगर मेरी बेगम मर जाए तो मुझे भी उसके साथ इसी तरह मौत के कुँए में दफ़न कर देंगे|”

अब इसके बाद मैं क्या कहता| अपना-सा मुहँ लेकर मैं अपने घर लौट आया| इस वारदात के बाद मेरा दिल काफ़ी रंज में हो गया था| मैं यह सोचता रहा कि अगर मेरी बीवी पहले मर गई तो क्या होगा? ये लोग तो मुझे भी उसके साथ दफ़न कर देंगे| डर और चिंता की वजह से मैं पूरी रात नही सो सका|

बस! उस दिन के बाद मैं कभी चैन से न रह सका| क्योंकि शहर में एक अजीब किस्म की बीमारी फैल गई थी जिसके कारण शहर में धड़ाधड़ मौतें होने लगी| जो भी औरत या मर्द उस बिमारी की चपेट में आ जाता, वह एकाध दिन में ही अल्लाह को प्यारा हो जाता| अल्लाह मेरे बारे में न जाने क्या सोचे बैठा था कि एक दिन मेरी बीवी उस बिमारी की चपेट में आ गई| उसकी बीमारी की बात सुनते ही मेरी रुह फ़ना हो गई|

फिर ऐसा हुआ कि लाख दवा-दारु के बाद भी दूसरे दिन ही उसने जिस्म छोड़ दिया और मेरा खुदा जानता है कि मैं हलक फाड़-फाड़कर रोने लगा| लोग समझ रहे थे कि मैं बीबी के गम में रो रहा हूँ, मगर हकीकत ये थी कि मुझे अपने जिंदा दफ़न किए जाने पर रोना आ रहा था| लेकिन मेरे रोने का किसी पर क्या असर होना था| फिर सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा मेरे पड़ोसी के साथ हुआ था|

पहले मेरी बीबी की अर्थी कुँए में फेंकी गई| फिर वे लोग मेरी तरफ़ पलटे| उनका ख्याल था की मौत के कुँए में जाने से पहले शायद मैं किसी से गले मिलना चाहूँ, मगर मेरी फ़िलहाल ऐसी कोई मंशा नही थी बल्कि मेरा जिस्म तो क्रोध से थरथरा रहा था| फिर इससे पहले की वे मुझे जबरन काठी-कफ़न पर लिटाते, मैं  स्वयं ही पैर पटकते हुए उस तरफ़ गया और उस पर लेट गया|

फिर कुछ ही पलों में सात रोटियों और मटके सहित उन्होंने मुझे भी उसमें धकेल दिया| नीचे गिरते ही सबसे पहले मैंने अपने आप को आज़ाद किया और लाशों से नीचे उतरा| फिर मैंने उस गुफ़ा का मुआयना किया| वह लंबी-चौड़ी गुफ़ा थी| उसमें ढेरों लाशें पड़ी थी| कुछ लाशें सड़ भी गई थी और वहाँ भयानक किस्म की दिमाग फाड़ देने वाली बदबू फैली हुई थी| मैंने कुँए के द्वार की ओर देखा, उसकी दीवारें चिकनी और सपाट थी| यानी कोई आदमी चाहकर भी ऊपर नही चढ़ सकता था| मैं अपनी रोटियाँ और पानी का घड़ा लेकर वहाँ से एक तरफ़ हट गया| वहाँ पर हल्की रोशनी थी, मगर फिलहाल यह पता नही चल रहा था की वह रोशनी कहाँ से आ रही थी| ऊपर वाले मुझे नीचे फेंकने के बाद कुँए के मुँह पर भारी पत्थर रखकर जा चुके थे|

ऊपर के रास्ते से तो बाहर जाना मुमकिन न था, इसलिए मैंने अपने आपको भाग्य के सहारे छोड़ दिया| फिर, मैं कई दिनों तक उस जगह पड़ा रहा| दरअसल, मैंने इन दिनों में एक नई बात यह जानी कि इंसान बीमारी, माहौल आदि से नही मरता, वह मरता है दहशत से, निराशा से, अपने बुरे अंजाम के ख्यालों से| जिसमें जीने की चाह होती है, वे तो मेरी तरह जिंदा रहते है| इन तीन-चार दिनों में और जो भी लोग कुँए में फेंके गए थे, वे भले चंगे थे, मगर जीवन की निराशा और वहाँ के दहशतजदा माहौल ने उन्हें चंद घंटों में ही लील लिया था|

मगर उस माहौल में भी मैं मरा नही था| इसका कारण यह नही था कि मैं कोई बड़ा तीसमार खां था, बल्कि कारण यह था कि मुझमें जीने की चाह थी| मैंने आस का दामन नही छोड़ा| अपना मुल्क, अपने बीबी-बच्चे मुझे पुकारते महसूस होते थे| मैं रोज उठकर उस गुफ़ा में घूमता था और उस जगह को तलाश करने की कोशिश करता था जहाँ से रोशनी आती थी| फिर एक दिन मैंने वो जगह भी तलाश ली| वह दो चट्टानों के बीच पैदा हुई एक पतली सी दरार थी| मैं एक दिन इसी दरार के पास खड़ा था की अचानक ही चौंक पड़ा| मेरे कानों में समुंद्र की लहरों के टकराने का शोर पड़ा था| इस शोर को आम आदमी नही पहचान सकता था, मगर चूँकि मैं कई समुंद्री यात्राएँ कर चुका था, इसलिए इसे पहचान गया था| यह शोर रोशनी की दरार के दाहिनी तरफ़ दिखाई देती एक अँधी गुफ़ा से सुनाई दे रहा था|

वह गुफ़ा इतनी स्याह थी कि उस तरफ़ जाने की मेरी हिम्मत नही हो रही थी| मगर उस आवाज़ ने मुझमें एक नया जोश भर दिया था| मैं दीवारें टटोलता आगे बढ़ने लगा| ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ता जा रहा था त्यों-त्यों पानी की आवाज़ तेज होती जा रही थी| और गुफ़ा के आखिर तक पहुँचते-पहुँचते मेरे मुहँ से खुशी ओर हैरत भरी चीख निकलकर रह गई| हुआ यूँ कि एक मील लंबी इस गुफ़ा का आखिरी हिस्सा रोशन था| इसके मुहाने पर एक बड़ा दरवाजा था जिसे एक बड़े पत्थर से बाहर की तरफ़ से बंद किया हुआ था|

मैं तेजी से उसके करीब पहुँचा और उसकी दराजों से बाहर देखने की कोशिश करने लगा| दरार में से बाहर नीलेपन के अलावा और कुछ भी दिखाई नही दे रहा था| लेकिन पानी की आवाज़ बता रही थी कि बाहर खुली जगह है जो समुद्र या किसी नदी का किनारा है|

मैं जोश में आकर पत्थर पर जोर लगाने लगा| पत्थर बड़ा भारी था और पहली कोशिश में तो वह टस-से-मस भी नही हुआ, मगर आखिरकार उस पत्थर को हटाना तो मैंने था ही| मैं बार-बार कोशिश करता रहा और कहते है न कि इंसान की कोशिश कभी बेकार नही जाती| उस पत्थर को अपनी जगह छोड़नी ही पड़ी|

मैं तेजी से बाहर आया| बाहर समुद्र का किनारा था| पहले तो मैं कितनी ही देर तक एक जगह पर खड़ा गहरी-गहरी साँसें लेता रहा| मुहँ से, नाक से, जैसे भी संभव हुआ, मैंने ढेर सारी ताजी हवा अपने फेफड़ों में भरी और अपने अंदर समाई बदबूदार गंदी हवा को बाहर निकाला| करीब आधे घंटे बाद मैं अपनी हालत दुरुस्त कर पाया| फिर मैंने समुंद्र के किनारे जाकर देखा, दूर-दूर तक पानी ही पानी दिखाई दे रहा था|

अचानक मुझे एक बात सूझी| मैं वापस गुफ़ा की तरफ़ चल दिया| मैंने वहाँ से कीमती गहनों और दूसरे कीमती सामान की गठरियाँ बना-बनाकर बाहर पहुँचाई| यह सब वही चीज़ें थी जो मुर्दों के साथ उस कुँए में फेंक दी जाती थी| छोटी-छोटी गठरियों की मैंने एक बड़ी गठरी बना ली| वह इतनी भारी हो गई कि उसे अपनी पीठ पर लादकर बड़ी मुश्किल से मैं समुंद्र के किनारे पर ला पाया| मेरे ख्याल से वह लाखों दिनार का असबाब था| अब समुंद्र के किनारे खड़ा होकर मैं उधर से गुजरने वाले किसी जहाज़ का इंतजार करने लगा| मुझे ज्यादा दिन इंतजार नही करना पड़ा| तीसरे दिन ही मुझे एक जहाज़ आता दिखाई दिया| मैं दौड़कर एक पहाड़ी पर चढ़ गया और अपनी पगड़ी उतारकर उसे हवा में लहराने लगा| तकदीर मेरे साथ थी, इसलिए जहाजियों की नज़र मुझ पर पड़ गई| मैंने देखा कि जहाज़ मेरी तरफ़ आने लगा था| फिर एक नाव मुझे लेने को आई|

नाविक लोग मुझसे पूछने लगे, “इस निर्जन स्थान पर तुम कैसे आ गए|”

तब मैंने उन्हें पूरा वृतांत सुनाने की बजाय कह दिया कि दो दिन पहले हमारा जहाज़ डूब गया था| मेरे सभी साथी भी डूब गए| सिर्फ़ मैं कुछ तख्तों के सहारे अपनी जान और कुछ सामान बचाने में कामयाब हो गया| वे लोग मुझे गठरियों समेत जहाज़ पर ले गए| जहाज़ पर कप्तान से भी मैंने यही बात कही और उसकी कृपा के बदले उसे कुछ रत्न देने लगा| किंतु उसने लेने से इंकार कर दिया|

हम वहाँ से चलकर के द्वीपों में गए| हम सरान से दस दिन की रात पर स्थित नील द्वीप पहुँचे| वहाँ से हम कली द्वीप पहुँचे, जहाँ सीसे की खानें है और हिंदुस्तान की कई वस्तुएँ, जैसे ईख, कपूर आदि भी होता है| कली द्वीप बहुत बड़ा है और वहाँ व्यापार खूब होता है| हम लोग अपनी चीज़ें खरीदते-बेचते कुछ समय के बाद बसरा पहुँचे, जहाँ से मैं बगदाद आ गया| इस बार हालांकि मैंने ज्यादा व्यापार नही किया था, फिर भी मुझे लाखों की दौलत हासिल हुई थी| मैंने कई मस्जिदें आदि बनवाई और आनंदपूर्वक रहने लगा|

बस दोस्तो! यही थी मेरी चौथी यात्रा की कहानी|

कहानी सुनाकर सिंदबाद ने हिंदबाद को फिर चार सौ दिनारें और दी और दूसरे रोज भी आने को कहा| दूसरे दिन फिर सभी इकट्ठा हुए और सिंदबाद अपनी पाँचवी यात्रा की कहानी सुनाने लगा-

साधु का