शुद्ध अनाज का असर
महर्षि कणाद परम विरक्त तथा स्वाभिमानी थे। वह फसल की कटाई के बाद खेतों से अन्न के दाने चुनते और उन्हें भगवान को भोग लगाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे।
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अन्न के कण चुन-चुन कर खाने के कारण ही उनका नाम कणाद पड़ा। वह हर समय उपासना और अध्ययन-लेखन में लगे रहते थे। एक राजा को जब उनके बारे में पता चला तो उसने रथ पर अनाज लदवाकर अपने मंत्री को उनके पास भेजा।
महर्षि कणाद ने अनाज वापस करते हुए कहा, ‘मैं अपना जीवन निर्वाह जिस रूप में कर रहा हूं, उससे मैं संतुष्ट हूं। कृपया इस अन्न को गरीबों में बंटवा दें।’ राजा ने जब यह बात सुनी तो वह बेहद प्रभावित हुआ और दूसरे दिन स्वयं उनके दर्शन करने पहुंच गया। राजा ने उन्हें प्रणाम कर कहा कि वह उनके लिए हर तरह की सुख-सुविधाएं जुटाएगा ताकि वह निश्चिंत होकर साधना कर सकें। इस पर कणाद ने कहा, ‘त्याग-तपस्या व्यक्ति की पूंजी होती है। मैं गाय की सेवा करके दूध प्राप्त करता हूं। भूमि की सेवा करके अनाज इकट्ठा करता हूं। इस शुद्ध अनाज से ही मेरे मस्तिष्क में धर्मशास्त्रों का भाष्य लिखने की प्रेरणा प्राप्त होती है। राजकोष का अन्न खाकर वह लुप्त हो जाएगी।’ राजा उन्हें दंडवत कर लौट गया।