श्रीदुर्गा सप्तशती की संक्षिप्त कथा
प्रथम चरित्र
दूसरे मनु के राज्याधिकार में ‘सुरथ’ नामक चैत्रवंशोदभव राजा क्षिति मंडल का अधिपति हुआ| शत्रुओं तथा दुष्ट मंत्रियों के कारण उसका राज्य, कोषादी उसके हाथ से निकल गया|
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फिर वह मेघा नामक ऋषि के आश्रम में पहुँचा और वहाँ भी मोहवश प्रजा, पुर, धन, कोष और दासों की अर्थात् नाशवान् पदार्थों की चिंता में लगकर दुःखी हुआ| केवल आत्मज्ञ पुरुष ही पूर्ण सुखी होता है| सुरथ की वही दशा हुई जो भगवद् भक्ति विहीन पुरुषों की होती है| इसी आश्रम में ‘समाधि’ नामक वैश्य से राजा सुरथ की भेंट हुई| यधपि यह वैश्य अपने धन-लोलुप स्त्री-पुत्रों द्वारा घर से बहिष्कृत कर दिया गया था, तब भी वह उनके दुर्व्यवहार को विस्मृत कर उनके वियोग में दुःखी था| इस प्रकार ये दोनों ‘मेघा’ ऋषि के समीप पहुँचे| वहाँ दोनों मुनि को प्रणाम करके बैठ गए| राजा ने ऋषि से कहा- भगवान्! जिस विषय में हम दोनों को दोष दिखता है, उसकी ओर भी ममतावश हमारा मन जाता है| मुनिवर! यह क्या बात है कि ज्ञानी (बुद्धिमान) पुरुषों को भी मोह होता है?
महर्षि मेधा उन्हें मोह का कारण बतलाते हुए कहने लगे- ‘इसमें कुछ आश्चर्य नही करना चाहिए कि ज्ञानियों को भी मोह होता है; क्योंकि महामाया भगवती अर्थात् भगवान् विष्णु की योगनिद्रा (तमोगुणप्रधान शक्ति) ज्ञानी (बुद्धिमान्) पुरुषों के चित को भी बल पूर्वक खींचकर मोहयुक्त कर देती है, वे भी भक्तों को वर प्रदान करती है और वे ही ‘परमा’ अर्थात् ब्रहमज्ञानरुपा है|
राजा ने भगवती की ऐसी महिमा सुनकर ऋषि से तीन प्रश्न किए-
(१) वे महामाया देवी कौन है? (२) वे कैसे उत्पन्न हुई? और (३) उनके कर्म तथा प्रभाव क्या है?
मुनि ने उत्तर दिया- वे जगन्मूर्ति नित्या हैं और उन्हीं से यह सब व्याप्त है| तब भी उनकी उत्पति देवताओं की कार्य सिद्धि के अर्थ कही जाती है|
जब प्रलय के पश्चात् भगवान् विष्णु शेषशय्या पर योगनिद्रा में निमग्न हुए, तब उनके कर्ण-मल से मधु और कैटभ नामक दो असुर उत्पन्न होकर भगवान् के नाभि कमल पर स्थित ब्रहमा जी को ग्रसने चले| इस स्थिति को देखकर ब्रहमा जी भगवान् की योगनिद्रा की स्तुति परम प्रेमपूर्वक करने लगे और उसमें उन्होंने ये तीन प्रार्थनाएँ की- (१) भगवान् विष्णु को जगा दीजिए, (२) उन्हें असुरद्वय के संहारार्थ उधत कीजिए और (३) असुरों को विमोहित करके भगवान्-द्वारा उनका नाश करवाइए| श्रीभगवती ने स्तुति से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी को दर्शन दिया| भगवन् योगनिद्रा से मुक्त होकर उठे और असुरों से युद्ध करने लगे| तदुपरान्त असुरयुगल योगनिद्रा के द्वारा मोहित हुए और उन्होंने भगवान् से वरदान माँगने को कहा| अंत में उसी वरदान के अनुसार भगवान् के हाथों मारे गए|
इस कथा से तीन बातों का निष्कर्ष निकलता है-
(१) ब्रहमा को परमशक्ति का ज्ञान| (२) प्रकृति के गुणत्रय का कार्य, उसके कर्तव्य का भान और (ब्रह्मा का) अपने सृष्टिकर्तव्य में निरहंकारत्व तथा (३) मधु-कैटभ अर्थात् सुकृत-दुष्कृत्य में निर्ममत्व एवं उसके निर्मूलन का प्रयत्न|
इस कथा से श्री ब्रहमा जी ने यह उपदेश दिया की ‘जो भगवती की आराधना करते है एवं कर्तव्य के अभिमान तथा सुकृत-दुष्कृत्य रुपी कर्म फल को त्याग कर अपने विहित कर्म में प्रवृत रहते हैं, उनका जीवन शांतिपूर्वक निर्विघ्न रूप से व्यतीत होता है|’ यही ब्रहमी स्थिति है, जिसे पाकर मनुष्य मोहग्रस्त नही होता| महर्षि मेधा सुरथ और समाधि दोनों जिज्ञासुओं के मोह के निराकरणार्थ कर्म के उच्चतम सिद्धांत का निरुपण करके उपासना तथा ज्ञानयोग के तत्व को भगवती के अन्यान्य प्रभावों द्वारा वर्णन करने लगे|
मध्यम चरित्र
इस कथा में ऋषि ने सुरथ तथा समाधि के प्रति मोह जनित सकामोपसना द्वारा अर्जित फलोपभोग निराकरण के लिए निष्कामोपासना का उपदेश किया है|
प्राचीन काल में महिष नामक एक अति बलवान् असुर ने जन्म लिया| वह अपनी शक्ति से इंद्र, सूर्य, चंद्र, यम, वरुण, अग्नि, वायु तथा अन्य सुरों को हराकर स्वयं इंद्र बन गया और उसने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया| अपने स्वर्ग सुख- भोगैश्वर्य से वंचित होकर दुखी देवगण साधारण मनुष्यों की भांति मृत्युलोक में भटकने लगे| अंत में व्याकुल होकर वे लोग ब्रहमा जी के साथ भगवान् विष्णु और शिवजी के निकट गए तथा उनके शरणागत होकर उन्होंने अपनी कष्ट-कथा कह सुनाई|
देव-वर्ग की करुण कहानी सुन लेने पर हरि-हर के मुख से महतेज प्रकट हुआ| इसके पश्चात् ब्रह्मा, इंद्र, सूर्य, चंद्र, यमादि देवताओं के शरीर से भी तेज़ निकला| वह सब एक होकर तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाली एक दिव्य देवी के रुप में परिणत हो गया| तब विधि-हरि-हर-त्रिदेवों तथा अन्य प्रमुख सुरों ने अपने-अपने अस्त्र-शास्त्रों में से दिव्य प्रकाशमयी उन तेजोमूर्ति को अमोघ अस्त्र-शस्त्र दिए| तब श्री भगवती अट्टहास करने लगी| उनके उस शब्द से समस्त लोक कम्पायमान हो गए|
तब असुरराज महिष ‘ओह!’ यह क्या है? ऐसा कहता हुआ संपूर्ण असुरों को साथ लेकर उस शब्द की ओर दौड़ा| वहाँ पहुँचकर उसने उन महाशक्ति देवी को देखा, जिनकी कांति त्रैलोक्य में फैली है और जो अपनी सहस्त्र भुजाओं से दिशाओं के चारों ओर फैलकर स्थित है| इसके बाद असुर देवी से युद्ध करने लगे| श्री भगवती और उनके वाहन सिहं ने कई कोटि असुर-सैन्य का विनाश किया| तत्पश्चात् श्री भगवती के द्वारा चिक्षुर, चामर, उदग्र, कराल, वाष्क्ल, ताम्र, अन्धक, असिलोमा, उग्रास्य, उग्रवीर्य, महाहनु, बिडाल, महासुर दुर्धर और दुर्मुख- ये चौदह असुर-सेनानी मारे गए| अंत में महिषासुर महिष, हस्ती, मनुष्यादि के रुप धारण करके श्री भगवती से युद्ध करने लगा और मारा गया|
अपने समग्र शत्रुओं के मारे जाने पर देवताओं ने आहादित होकर आधा-शक्ति की स्तुति की और वर माँगा- ‘जब-जब हम लोग विपदग्रस्त हो, तब-तब आप हमें आपदाओं से विमुक्त करे और जो मनुष्य आपके इस पवित्र चरित्र को प्रेमपूर्वक पढ़े या सुने और वे सम्पूर्ण सुख और ऐश्वर्यों से संपन्न हो|’
श्री भगवती देवताओं को वरदान देकर अंतर्धान हो गई| इस चरित्र में मेघा ऋषि ने इंद्रादि देवगण के राज्याधिकार का अपहरण, आत्मशक्ति-द्वारा उनके दुःखो का निराकरण तथा पुनः स्वराज्य-प्राप्ति का वर्णन करके सुरथ राजा के शोक-मोह के निवारण के लिए उन्हीं आत्मशक्ति की भक्ति का उपदेश किया है|
देवताओं की प्रार्थना पर भगवती ने उन्हें वर दिया कि जब-जब विपद्ग्रस्त होकर वे उनका स्मरण करेंगे, तब-तब वे उनका संकट दूर करेगी|
उत्तर चरित्र
मध्यम चरित्र में मोह का कारण कर्मफलासक्त देवों द्वारा दिखाया जाकर उत्तर चरित्र में परानिष्ठा-ज्ञान के बाधक आत्ममोहन-अहंकारादि के निराकरण का वर्णन किया गया है|
पूर्वकाल में शुंभ और निशुम्भ दो महापराक्रमी असुर हुए| उन्होंने इंद्र के त्रैलोक्य का राज्य और यज्ञों का भाग छीन लिया| वे दोनों ही सूर्य, चंद्र, कुबेर, यम, वरुण, पवन और अग्नि के अधिकारों के अधिपति बन बैठे तथा उन्होंने सुर समाज को स्वर्ग से निकाल दिया| तब शोकग्रस्त होकर देवता मृत्युलोक में आए| बारंबार दुःसह दुःख से दयनीय दशाग्रस्त देवताओं को दानवों के नितांत दमन का कार्य अनिवार्य प्रतीत हुआ और वे हिमालय पर जाकर दयार्द्रह्रदया श्री दुर्गा देवी की वंदना करने लगे| श्री भगवती पार्वती अपने वचनानुसार हिमालय-पर्वत पर गंगा जी के किनारे प्रकट हुई और उन्होंने सुरों से पूछा- ‘तुम किसकी स्तुति कर रहे हो?’ उनके इतना कहते ही उनके शरीर से शिवा निकलकर कहने लगी- ये शुंभ-निशुंभ से परास्त और दुखी होकर मेरी स्तुति कर रहे है|’
पार्वती के शरीर से अंबिका उत्पन्न हुई, एतदर्थ ये कौशिकी नाम से प्रसिद्ध है और भगवती पार्वती के शरीर से शिवा के निकल जाने पर उनका वर्ण कृष्ण हो गया, अतैव ये कालिका के नाम से विख्यात होकर हिमालय पर रहने लगी| तत्पश्चात् परम सुंदरी अंबिका को शुंभ-निशुंभ के भृत्य चण्ड-मुण्ड ने देखा और उन दोनों ने शुंभ से जाकर उनके अतुल सौंदर्य की प्रशंसा की| उसने अपने भृत्यों की बात सुनकर सुग्रीव नामक असुर को अंबिका को ले आने के लिए भेजा|
सुग्रीव ने भगवती के पास पहुँचकर शुंभ-निशुंभ के बलैश्वर्य की बड़ी प्रशंसा की और उनसे विवाह करने की बात कही| भगवती ने उत्तर दिया- ‘जो मुझे संग्राम में पराभूत करके मेरे बल-दर्प को नष्ट करेगा, उसी को मैं पति रुप में स्वीकार करुँगी- यह मेरी अटल प्रतिज्ञा है|’
सुग्रीव ने शुंभ-निशुंभ के निकट जाकर भगवती अंबिका की प्रतिज्ञा विस्तारपूर्वक कह सुनाई| असुरेंद्र ने कुपित होकर धूम्रलोचन नामक असुर को भेजा| भगवती ने धूम्रलोचन को हुँकारमात्र से ही भस्म कर दिया और उन्होंने तथा उनके वाहन सिंह ने असुर-सेना का विनाश किया| तदुपरान्त असुरराज शुंभ ने चण्ड-मुण्ड दोनों को बहुत बड़ी सेना के साथ भगवती कौशिकी को पकड़ लाने अथवा मार डालने के लिए भेजा| वे सब हिमालय पर जाकर भगवती को पकड़ने का प्रयत्न करने लगे| तब अंबिका ने शत्रुओं पर अत्यंत कोप किया और उनके ललाट से एक भयानक काली देवी प्रकट हुई| उन्होंने असुर-सेना का विनाश किया और चण्ड-मुण्ड का सिर काटकर वे अंबिका के पास ले गई, इसी कारण उनका नाम चामुंडा पडा|
चण्ड-मुण्ड के वध का समाचार सुनकर उस असुर ने एक बड़ी सेना, जिसमें सात सेनानायकों का विभाग था, भगवती से युद्ध करने के लिए भेजी| उस समय ब्रहमा, विष्णु, शिव, इंद्र, महावराह, नरसिंह और स्वामी कार्तिकेय- इन सात प्रमुख देवों की शक्तियाँ असुर-सेना से युद्ध करने के लिए आई| फिर अंबिका ने शरीर से अत्यंत भयंकर शक्ति निकली और भगवती ने शुंभ-निशुंभ के पास शिवजी को दूत रुप में भेजकर उनसे कहलाया- ‘यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो देवताओं को उनके छीने हुए लोक एवं यज्ञाधिकार लौटा दो और पाताल में जाकर रहो|’
बल से उन्मत शुंभ-निशुंभ ने देवी की बात नही मानी और वे युद्धस्थल में सेनारहित उपस्थित हुए| भगवती ने देव शक्तियों की सहायता से असुर सैन्य का संहार करना प्रारंभ किया, तब असुर-युग्ल का रक्तबीज नामक एक सेनाध्यक्ष भगवती और देव शक्तियों से युद्ध करने लगा| उसके शरीर से शोणित के जितने बिंदु पृथ्वी पर गिरते थे, उतने ही रक्तबीज उत्पन्न हो जाते थे| अंत में देवी ने चामुंडा को आज्ञा दी कि वह अपने मुख का विस्तार करके रक्तबीज के शरीर के रक्त को अपने मुख में ले और उससे उत्पन्न असुरों का भक्षण करे| चामुंडा ने ऐसा ही किया और भगवती ने उस असुर का सिर काट डाला| तत्पश्चात् निशुंभ भगवती से युद्ध करने लगा और मारा गया| तब शुम्भ ने क्रोधित होकर अंबिका से कहा- ‘तू दूसरों के बल का सहारा लेकर अभिमान करती है?’
श्री भगवती ने उत्तर दिया- ‘संसार में मैं एक ही हूँ, ये समस्त विभूतियाँ मेरी रुपांतर मात्रा है| ये मुझसे ही प्रकट हुई है और मुझमें ही विलुप्त हो जाएँगी|” इसके बाद सातों शक्तियाँ, जो देवी के शरीर से निकली थी, उन्हीं में प्रविष्ट हो गई और शुम्भ भी देवी के युद्ध-कौशल में मारा गया| देवगणों ने हर्षित होकर अंबिका की स्तुति की| अंत में देवी प्रसन्न होकर बोली- ‘संसार का उपकार करने वाला वर माँगो|’
देवताओं ने कहा- ‘जब-जब हमारे शत्रु उत्पन्न हो, तब-तब उनका नाश हो|’ भगवती आघा शक्ति ने ‘एवमस्तु’ कहा और भविष्य में सात बार भक्त-रक्षणार्थ अवतार लेने की कथा, दुर्गा चरित्र के पाठ का महात्मय-वर्णन करके वे अंतर्ध्यान हो गई|
यह चरित्र ज्ञानकांड का है और उसमें तीन विषय है-
(१) देवताओं के सात्विक ज्ञान से स्तुति करना, (२) ज्ञान के विरोधी अहंकारादि का नाश और (३) भगवती का अद्वैत भाव|
१. देवताओं को भगवती की उपासना का ज्ञान था| इसी हेतु उन्हें अब श्री ब्रहमा, विष्णु, महेश- इन तत्वज्ञ ईश्वर कोटि के देवताओं के निकट जाने की आवश्यकता न थी और वे जगजननी भगवती की स्तुति करने के लिए प्रवृत हुए| सात्विक ज्ञान का लक्षण श्रीमद्भगवद्गीता में इस प्रकार कहा है-
‘जिस ज्ञान द्वारा मनुष्य समस्त पृथक्-पृथक्’ भूतों में एक ही अभिन्न अविनाशी परमात्मा के दर्शन करता है, वह सात्विक ज्ञान है| अतैव देवगण ‘या देवी सर्वभूतेषु’ इत्यादि स्तुति से सब भूतों में उन्हीं आधार शक्ति का एक अव्यय अविनाशी भाव जानकार तेईस मातृगणों द्वारा उनकी वंदना करने लगे|
२. परमार्थ पथ तत्पर प्रपन्न पुरन्दरादि देवों ने शुंभ-निशुंभादि विपक्षियों के क्षय की आकांशा प्रकट करते हुए पुनीत प्रार्थनाएँ करके भगवती पार्वती का प्रत्यक्ष दर्शन किया और श्री भगवती ने शुंभ, निशुंभ, रक्तबीज, धूम्रलोचन, चण्ड, मुण्ड तथा सुग्रीव- इन प्रमुख सात असुरों को पराजित करके देवताओं की रक्षा की|
३. श्री जगदम्बिका ने शुंभ के प्रति कहा है- ‘मैं इस संसार में एक ही हूँ और मुझसे अतिरिक्त दूसरा कौन है? मैं अपनी विभूति द्वारा बहुत-से रुपों से यहाँ स्थित थी, अब उन सबको अपने में लय करके पुनः अकेली ही स्थित हूँ|’
उपसंहार
भगवती चंडिका अपनी स्तुति का माहात्म्य और उसका फल तथा पूजा-विधि कहकर अंतर्ध्यान हो गई और मेधा ऋषि ने उन्हीं महाशक्ति को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष फलप्रदा कहकर यह उपदेश दिया- ‘महाराज! आप उन्हीं परमेश्वरी की शरण में जाइए| वे अपनी आराधना से प्रसन्न होकर मनुष्यों को भोग, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करती है|’
राजा और वैश्य श्री भगवती के चरित्र तथा महर्षि मेधा के उपदेश को सुनकर उन महादेवी भगवती को प्रसन्न करने के लिए नदी-तट पर तपश्चर्या एवं उपासना करने लगे| जगद्धात्री चंडिका ने प्रसन्न होकर उन दोनों को दर्शन दिया और कहा- ‘मैं तुम दोनों से प्रसन्न हूँ, तुम जो कुछ माँगोगे वही मैं तुम्हें दूँगी|’ आघा देवी की बात सुन राजा ने यह विचार किया- ‘मेरे लिए अपना क्षात्रकर्म करना ही उचित है| अपने आश्रितजनों को कष्ट में छोड़कर अकेले वन में चले जाना क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है| यदि मैं ब्रह्माजी के समान अपने कर्तव्य के अहंकार को भुलाकर उन्हीं महामाया की आराधना करता तो वे महाशक्ति, जैसे मधु-कैटभ से ब्रह्मा की रक्षा की थी, वैसे हमारी भी करती| राजधर्म का आदर्श कर्मयोग के उत्तम सिद्धांत पर स्थित है, अतैव मुझे चाहिए कि जिस प्रकार इन्द्रादि देवताओं ने अधिकार से निकला हुआ स्वराज्य भगवती की कृपा से प्राप्त किया था, उसी प्रकार अपने गए हुए राज्य को पुनः प्राप्त करुँ और न्यायनीति से अपनी समस्त प्रजा को सुखी बनाऊँ|’ इस विचार के पश्चात् राजा ने आगामी जन्म में अखंड राज्य और इस जन्म में निजबल से शत्रु-शक्ति का नाश करके अपना गया हुआ राज्य प्राप्त करने का वर माँगा|
महादेवी भगवती ने उसे कुछ ही दिनों में शत्रुओं पर विजयी होकर स्वराज प्राप्त करने तथा दूसरे जन्म में भूमंडल पर सूर्य-सुत सावर्णि नामक मनु होने का वर प्रदान किया| जब भगवती ने वैश्य से वर माँगने को कहा तो उसने विचार किया कि यह संसार दुःखमय है| देवताओं का कई बार अधिकारच्युत होना और सुरथ राजा का राज्य भ्रष्ट होना प्रमाणित करता है कि सांसारिक भोगैश्वर्य अनित्य है| जिस तुच्छ सांसारिक सुख में मेरा मोह था, वह वास्तव में दुःखरूप ही था| जब त्रैलोक्यपर्यन्त का सुख अनित्य है, तब मुझे इससे विरक्त होकर इन परमेश्वरी की अनुकंपा से ऐसा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जिससे नित्य अक्षय सुखस्वरूप में प्रविष्ट हो सकूँ| निवृति-मार्ग-पथिक ज्ञाननिष्ठ समाधि वैश्य ने अपने नाम और जाति को सार्थक करने वाले उपयुक्त विचार के अनन्तर श्री देवी से मोह विनाशक ज्ञान माँगा| उसे मनोवांछित वर की संसिद्धि के लिए ज्ञान देकर श्री दुर्गा शीघ्र अन्तर्धान हो गई|