श्रम का सम्मान
एक बार की बात है| बंगाल के सुप्रसिद्ध विद्वान पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर गर्मी की छुट्टियों में अपने गाँव आए| वह रेल की तीसरी श्रेणी के डिब्बे में बैठे थे| गाँव के स्टेशन पर पहुँचकर वह रेल से उतरे| उनके ही डिब्बे से कॉलेज का एक छात्र भी उतरा| स्टेशन के बाहर पहुँचकर वह कॉलेज का विद्यार्थी अपन सूटकेस जमीन पर रखकर चिल्लाने लगा-
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“कुली! कुली!”
छोटे से स्टेशन पर कुली कहाँ मिलता| विद्यार्थी की समस्या देखकर विद्यासागर जी सामने आए| छात्र का सूटकेस उठाकर उन्होंने कहा- “चलिए|” गाँव में पहुँचकर विद्यासागर जी ने छात्र को उसके घर पहुँचा दिया| छात्र उन्हें मजदूरी के पैसे देने लगा, तब विद्यासागर जी ने रूपये लेने से इनकार कर दिया| नवयुवक बहुत खुश हुआ| उसने समझा कि आज बड़ा मूर्ख कुली मिल गया|
शाम के समय गाँव में पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सम्मान में एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन हुआ| आसपास के गाँवों के हज़ारो आदमी उनकी सभा में आए| वह छात्र भी उस सभा में आया| उसने देखा कि उसने जिस आदमी को एक सामान्य कुली समझा था, वही बंगाल के सर्वाधिक विद्वान विद्यासागर जी हैं| उन्हें फूल-मालाओं से लाद दिया गया| विद्यासागर जी ने उपयुक्त भाषण दिया| छात्र सब देख-सुनकर बेचैन हो गया| वह सभा के बाद ईश्वरचन्द्र जी के समीप गया| अपना सिर उनके चरणों में रख दिया| और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी| ईश्वरचन्द्र जी ने कहा-
“मेहनत या श्रम से व्यक्ति नीचा नहीं होता| जो व्यक्ति अपना काम स्वयं करने की हिम्मत करता है, वही दूसरों का बोझा उठा सकता है, वही संसार-संग्राम में बाधाओं पर विजय प्राप्त कर सकता है| सदा स्वावलंबी बनो| जहाँ तक हो सके, अपना काम स्वयं करना सीखो| हर मनुष्य पर यह बात लागू होती है, दूसरों का मोहताज कभी नहीं बनना चाहिए|”