शैव्या और राजा हरिश्चंद्र
राजधानी लौटते समय मार्ग में राजा हरिश्चंद्र इस उधेड़-बुन में लगे हुए थे अपनी धर्मपत्नी शैव्या को अपने सर्वस्व दान बात कैसे बताएंगे| उन्हें न तो स्वयं राज्य का लाभ था, न धन का लालच| परन्तु शैव्या और पुत्र रोहिताश्व की प्रतिक्रिया के बारे में वे अवश्य चिंतित थे|
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शैव्या साधारण स्त्री नहीं थी| वह आदर्श पतिव्रता सती नारी थी| उसने अपने पति को वन स लौटकर आने पर चिंतित देखा तो पूछा, “क्या बात है स्वामी? आप इतने उदास क्यों हैं? क्या आप किसी याचक ककी इच्छानुसार दान नहीं दे सके? आप मुझसे न छिपाएं| आपकी चिन्ता देखकर मेरा मन व्याकुल हो रहा है|”
राजा हरिश्चंद्र ने कहा, “प्रिये! मैंने वन में एक तपस्वी के मांगने पर अपना सर्वस्व उसे दान कर दिया है| मेरी उदासी का कारण यही है कि मैं तुम्हें और रोहिताश्व को सेवक के रूप में कैसे रखूँगा?”
शैव्या ने कहा, “नाथ! यह तो प्रसन्नता की बात है| राज्य के प्रपंचो में पकड़कर हम भगवान का स्मरण करना भूल गए थे|अब हमें पूरा समय मिल जाएगा|”
राजा निश्चिन्त हो गए| उन्हें शैव्या से ऐसे उत्तर की ही अपेक्षा थी|