सत्य की विजय
हिम्मतनगर में धर्मबुद्धि और कुबुद्धि नामक दो निर्धन मित्र रहते थे| दोनों ने दूसरे देश में जाकर धन कमाने की योजना बनाई और अपने साथ काफ़ी सामान लेकर विभिन्न क्षेत्रों में खूब भ्रमण किया और साथ लाए सामान को मुंहमाँगे दामों पर बेचकर ढेर सारा धन कमा लिया| दोनों मित्र अर्जित धन के साथ प्रसन्न मन से घर की ओर लौटने लगे|
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गाँव के समीप पहुँचने पर कुबुद्धि के मन में खोट पैदा हो गया| उसने सारा धन अकेले हड़पने की ठान धर्मबुद्धि से कहा, ‘मेरे विचार से सारा धन गाँव में लेकर चलना ठीक नही है| कुछ लोगों को हमसे ईर्ष्या होने लगेगी तो कुछ लोग अपनी ज़रूरत बताकर हमसे पैसा माँगने लगेगे| यह भी संभव है कि कोई चोर या ठग हमें लूटने की ही योजना बना डाले| अतः हमें कुछ धन समीप के जंगल में किसी सुरक्षित स्थान पर गाड़ देना चाहिए, ज़रूरत पड़ने पर निकाल लेंगे|’
धर्मबुद्धि बेचारा भोला और सीधा-सादा था| उसने सहमती जताते हुए कहा, ‘तुम ठीक कहते हो मित्र, धन के लिए तो अपने भी बैरी बन जाती है| इसलिए हम अपने धन को इसी जंगल में किसी सुरक्षित स्थान पर गाड़ देते है|’
उसके बाद जंगल में एक सुरक्षित स्थान पर दोनों ने गड्ढा खोदकर अर्जित धन को दबा दिया और अपने घर की ओर चल दिए| घर आकर दोनों आनंदमय जीवन व्यतीत करने लगे| एक रात अवसर पाकर कुबुद्धि गड़े धन को चुपके से निकालकर अपने घर ले आया|
कुछ दिन बाद पश्चात धर्मबुद्धि को धन की ज़रूरत पड़ी तो कुबुद्धि के साथ जंगल में जा पहुँचा|
जहाँ उन्होंने धन गाड़ा था, वहाँ पहुँचकर खोदने पर उन्हें कुछ भी नही मिला| कुबुद्धि सिर पीटने और रोने-चीखने का अभिनय करते हुए कहने लगा, ‘यह गड्ढा अभी ताजा खोदा व फिर से भरा गया लगता है| तुम्हारे मन में खोट आ गया है और धन को निकालकर मुझे सूचना देने का यह नया ढंग खोज निकाला है|’
‘मित्र मैं तो ऐसा कर ही नही सकता, जैसा मेरा नाम है वैसे ही मुझ में गुण भी है|’
‘धूर्त! ज्यादा चतुर बनने की चेष्टा मत कर| मुझसे धोखा करके धर्मात्मा बनने का अभिनय छोड़ और मेरे साथ न्यायाधीश के पास चल|’
इस प्रकार दोनों लड़ते-झगड़ते न्यायाधीश के पास जा पहुँचे| पहले धर्मबुद्धि ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया| जब कुबुद्धि कीई बारी आई तो एक योजना के थत उसने कुटिल स्वर में कहा- ‘हमारे विवाद में वृक्ष देवता स्वयं साक्षी रूप में विधमान है| कौन साधु है और कौन चोर, वह इस विषय में स्पष्ट रूप से बता देंगे| इसलिए इस संबंध में वाद-विवाद की आवश्यकता ही कहाँ है|’
न्यायाधीश ने कुबुद्धि की बात को स्वीकार कर लिया और अगले दिन प्रातःकाल वृक्ष की गवाही लेने की घोषणा कर दी|
कुबुद्धि ने घर आकर अपने पिता को सब कुछ बताते हुए कहा, ‘पिताजी अब अगर आप मेरी सहायता करे तो वह सारा धन हमारा हो सकता है| वरना सारा धन तो छिन ही जाएगा, साथ ही मुझे कारावास का कठोर दंड भी भुगतना पड़ सकता है|’
कुबुद्धि का पिता भी उसी की भांति कुटिल था| अतः वह कुबुद्धि की योजना के अनुसार प्रातःकाल होने से पहले ही उस वृक्ष की एक मोटी-सी शाख पर काफ़ी ऊँचाई पर घने पतों के बीच छिपकर बैठ गया|
प्रातःकाल न्यायाधीश ने आकर वृक्ष को संबोधित करते हुए पूछा, ‘वृक्षराज! कल तुम्हारे सामने किसी चोर ने इस जगह गड़े धन को चुराया है| इसलिए ईश्वर, सूर्य, चंद्रमा आदि को साक्षी मानकर बताएँ कि धन किसने चुराया है?’
न्यायाधीश के वचन सुनकर वृक्ष की ऊपरी शाख पर छिपकर बैठे कुबुद्धि के पिता ने कहा, ‘ईश्वर इस बात का साक्षी है कि यहाँ से सारा धन धर्मबुद्धि निकाल ले गया है|’
यह सुनकर धर्मबुद्धि आश्चर्यचकित रह गया| क्रोधावेश में अपने आपको और अपने साथ उस मिथ्यावादी वृक्ष को आग लगाने का निश्चय कर उसने वृक्ष के चारों ओर घास-फूँस इकट्ठी करके आग जलाई| जब वह उसमें कूदने लगा तो पेड़ की शाख पर छिपकर बैठा कुबुद्धि का पिता वहाँ से कूदकर नीचे उतर आया और अपने पुत्र की सारी योजना न्यायाधीश को बताकर पश्चाताप करते हुए कहने लगा, ‘मैंने अपने पुत्र की बातों में आकर झूठ बोलने का पाप किया है| धन कुबुद्धि ने ही चुराया है| आप हमे दंडित कीजिए न्यायदाता, हम पापी है|’
न्यायाधीश ने कुबुद्धि के पिता को दोषमुक्त माना, पर कुबुद्धि को मृत्युदंड दिया| उसे उसी वृक्ष पर लटकाकर फाँसी दे दी गई और सारा धन धर्मबुद्धि को वापस लौटाने का आदेश दिया|
कथा-सार
नीच व्यक्ति अपने लाभ-हानि की चिंता न करके दूसरों के विनाश की कामना करते है| लेकिन वे ऐसा करने में असफल हो जाते है| जैसे कुबुद्धि लाख प्रयत्न करने के बाद भी उस धन को पास न रख सका, जिस पर उसकी नजरें गड़ी थी और अंत में दंड का भागी बना|