सत्संग का लाभ
बहुत समय पहले की बात है| एक गुरु अपने शिष्यों के साथ घूमने जा रहे थे| वे अपने शिष्यों से बहुत स्नेह करते थे और उन्हें सदैव प्रकृति के समीप रहने की शिक्षा दिया करते थे|
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रास्ते में एक शिष्य पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ा| गुरु ने उसे सहारा देकर उठाया| शिष्य ने क्रोध से उस पत्थर को ठोकर मारी, जिससे उसके पैर में फिर से दर्द हुआ| गुरुजी ने उसे समझाया, ‘तुमने ढेले को मारा, ढेले ने तो तुम्हें नहीं मारा| अगर तुम देखकर चलते तो तुम्हें चोट नहीं लगती| तुम्हें चाहिये था कि ढेला राह से हटाकर किनारे कर देते, ताकि किसी दूसरे को चोट न लगे|’ इस पर शिष्य ने गुरुजी से क्षमा माँगी और उस पत्थर को राह से हटा दिया|
आगे बढ़ने पर एक उपवन दिखाई दिया| फूलों की महक से आकर्षित होकर गुरुजी वहाँ जाकर बैठ गए| उन्होंने गुलाब के पौधे के नीचे से मिट्टी का ढेला उठाया और शिष्य को सूँघने के लिए कहा| ‘गुरुजी इससे तो गुलाब के फूल की खुशबू आ रही है|’ शिष्य ने चहकते हुए कहा| गुरुजी ने पूछा, ‘मिट्टी में तो कोई गंध नहीं होती, फिर फूलों की सुगंध कैसे आयी?’ शिष्य ने कहा, ‘गुरुजी, आपने ही तो एक बार बताया था कि मिटटी की अपनी कोई गंध नहीं होती| वह जिस वस्तु के संपर्क में आती है, वैसे ही गंध अपना लेती है| जैसे वर्षा की बूंदों का साथ पाकर वह सोंधी गंध फैलाती है, वैसे ही गुलाब की पंखुड़ियों की खुशबू इस क्यारी की मिट्टी ने अपना ली| इसी कारण यह ढेला भी महक उठा है|’
गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक कहा, ‘हाँ वत्स, इसीलिये मनुष्य को प्रकृति से सीखते रहकर सत्संग का लाभ उठाना चाहिए|’
शिक्षा- मनुष्य को गलत कार्य से बचना चाहिये तथा अच्छा कार्य करना चाहिए|