संगीत से भगवत्प्राप्ति
त्रेतायुग में कौशिक नाम के एक ब्राहमण थे| भगवान् में उनका अत्यधिक अनुराग था| खाते-पीते, सोते-जागते प्रतिक्षण उनका मन भगवान् में लगा रहता था| उनकी साधना का मार्ग था संगीत| वे भगवान् के गुणों और चरित्रों को निरंतर गाया करते थे| ये सभी गान प्रेमार्द्र-ह्रदय से उपजे होते थे|
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वे भिक्षा माँगकर जीवन-निर्वाह कर लेते थे और शेष समय में भगवान् में ही लगाते थे| उनके बहुत-से शिष्य हो गए थे, जिनमें सात शिष्य प्रमुख थे| प्रेमी शिष्यों का योग मिलने से कौशिक का गान और ह्र्दयाकर्षक हो गया था| भक्त पधाक्ष ने उनके और उनके शिष्यों के भोजन का भार अपने ऊपर ले लिया था|
कौशिक के शिष्यों में एक दंपत्ति भी थे| उनमें पति का नाम था मालव और पत्नी का मालवी| मालव भगवान् को दीपकों की माला से सजाता रहता था और उसकी पत्नी मालवी मंदिर को झाड़-पोंछकर सदा चमकाएँ रहती थी| दोनों पति-पत्नी कौशिक के गान को सुनते और आनंद में निरंतर विभोर रहते थे|
कौशिक के दिव्य गान की चर्चा चारों ओर हो रही थी| कुश स्थली से आकर पचास ब्राह्मण इनकी संगीत-साधना में सम्मिलित हो गए थे| राजा कालिंग ने भी यह चर्चा सुनी तो वह भी कौशिक के पास पहुँचा| वह अहंकारी था| उसने कौशिक से कहा- ‘तुम बहुत अच्छा गाते हो| आज मेरी कीर्तिका का गान करो, जिससे ये कुश स्थली के वासी उसे मनोयोग से सुने|’ कौशिक ने विनम्रता से कहा- ‘महाराज मेरी जीभ और वाणी केवल भगवान् के ही गुणों को गाती है, अन्य प्राकृतिक वस्तुओं को नही| अतः आप मुझे क्षमा करे|’ इसी बात को उनके गायक शिष्यों ने भी दोहराया| श्रोताओं ने भी नम्रता से कहा कि ‘हमारा भी यही नियम है| हम अपने कानों से केवल भगवान् के गुणों और यश को सुने| अतः आप हमें भी क्षमा करे|’ यह सुनते ही राजा क्रोध से जल उठा| उसने लोहे की कील से उनकी जीभ और कानों को छेदना चाहा| राजा की यह चेष्टा जान कर सबने अपनी-अपनी जीभों और कानों में स्वयं कीलें धँसा ली| राजा का क्रोध और बढ़ गया| उसने कौशिक और उनके साथियों को अपमानित कर अपने राज्य से बाहर करवा दिया| उनकी सारी सम्पति छिनवा ली| संत कौशिक अपने दल-बल के साथ उत्तराखंड की ओर चले गए|
बहुत दिनों के बाद जब कौशिक आदि की मृत्यु हुई, तब ब्रह्मा ने बड़े आदर के साथ लोकपालों के द्वारा उन्हें और उनके साथियों को अपने लोक में बुला लिया| वे आधे मुहूर्त में ब्रह्मा के सम्मुख पहुँच गए| ब्रह्मा ने उनका अत्यधिक सम्मान किया| इस लोक के निवासियों ने इतना अधिक सम्मान पाते किसी और को नही देखा था| इसलिए वहाँ हलचल मच गई|
इसी बीच विष्णु के दूत वहाँ आ पहुँचे| उन्होंने सम्मान के साथ कौशिक और इनके साथियों को विष्णुलोक पहुँचाया| कौशिक के सम्मान में ब्रह्मा और वहाँ के निवासी भी उनके साथ गए| इस तरह विष्णुलोक में बहुत बड़ी भीड़ एकत्र हो गई| भगवान् विष्णु ने कौशिश और उनके साथियों को स्नेह सिक्त नेत्रों से देखा| उस समय जय घोष से सारा वातावरण गूँज उठा| भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी को आदेश दिया कि वे कौशिक और उनके शिष्यों को मेरे समीप में ही स्थान दे| फिर भगवान् ने कौशिक की ओर उन्मुख होकर प्रेमार्द्र-वचनों से कहा- ‘वत्स! तुम अपने शिष्यों के साथ मेरे समीप ही रहो| मैंने तुम्हें अपने गणों का आधिपत्य भी प्रदान किया है|’ इसके बाद भगवान् ने मालव और मालवी को कृतार्थ करते हुए कहा- ‘तुम दोनों मेरे लोक में आनंद से रहो और सुंदर गान सुनकर आह्राद प्राप्त करते रहो|’ इसके बाद भगवान् पधाक्ष से बोले- ‘वत्स! तुम कुबेर हो जाओ| धनों का स्वामी बनकर सुख से इस लोक में विहार करो|’ तत्पश्चात् भगवान् ने प्रेमसिक्त सम्मान देते हुए सबको अपने समीप स्थान दिया| सभी को अपने हस्तकमलों से प्रेम पूर्वक स्पर्श भी किया|
इतना सम्मान देने के बाद भी भगवान् को संतोष नही हो रहा था| उन्होंने उनके स्वागत में संगीत का विशाल आयोजन किया| विश्व के गायक तुम्बुरू गंधर्व बुलाए गए| भगवान् दिव्या सिंहासन पर विराजमान थे| संगीत गाती हुई माता लक्ष्मी भी आ विराजी| साथ ही वीणा के गुण के तत्व को जानने वाली करोड़ों अप्सराएँ वाधविशारदों के साथ वहाँ आ पहुँची| पहले से ही वह स्थल ब्रह्म लोक वासियों से पूरी तरह भरा था| इस रसिक संगीत-मंडली को वहाँ घुस पाना कठिन हो रहा था| भगवती लक्ष्मी जी की आज्ञा से उनसे देवता और मुनियों को दूर ही बैठाया| देवर्षि नारद भगवान् के बिल्कुल समीप में ही रहने वाले हैं पर संगीत न जानने के कारण उन्हें भी दूर हटा दिया गया था| संगीतज्ञ तुम्बुरु को लक्ष्मी और भगवान् विष्णु के समीप में बैठाया गया| गायकराज की मर्जी अँगुलियाँ वीणा के तारों पर थिरकने लगी| उनके सधे कण्ठ की फूटती स्वर-लहरियाँ कण-कण को आह्लादित करने लगी| रसकी धाराएँ बह निकली| इस तरह कौशिक और उनके साथियों का बहुत ही भावपूर्ण स्वागत किया गया|