सम्मान वीरता का
पहले विश्व-महायुद्ध के दिनों की बात है| लंबी लड़ाई से इंग्लैंड की जनता क्लांत हो चुकी थी| थकी हुई जानता वर्षों से जूझते देश के सिपाहियों ने नए उत्साह की प्रेरणा देने के लिए इंग्लैंड के तत्कालीन बादशाह पंचम जार्ज ने प्रमुख मोर्चों पर सैनिक टुकडियों तथा फौजी छावनियों में एकत्र देश के सिपाहियों के समक्ष जाने का कार्यक्रम बनाया|
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तीनों सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति एवं सम्राट के स्थान पर पहुँचकर सैनिकों के दुःख-दर्द का हाल पूछने से उनमें एक नए उत्साह का संचार हो रहा था|
ऐसे ही समय उन्होंने देश के सर्वाधिक प्रसिद्ध मोर्चे के सेनापति से जानना चाहा- “संपूर्ण युद्ध में सर्वाधिक वीरता का प्रदर्शन किस सैनिक ने किया है, जिसने कभी भी शत्रु के सम्मुख कायरता या संकोच नहीं किया है, डटकर शत्रु से लोहा लिया है और हमेशा विजय श्री का वरण किया है? मैं उस वीर योद्धा से मिलना चाहता हूँ|”
सेनापति क्षण भर के लिए ठिठका| उसे उत्तर देने में संकोच हुआ| उसके संकोच को देखकर जॉर्ज पंचम ने पूछा- “वह वीर योद्धा कहाँ है?- मैं उससे तुरंत मिलना चाहता हूँ|”
सेनापति सम्राट को समीपस्त चिकित्सालय में ले गया| चिकित्सालय के कक्ष में केवल वीर सैनिक और योद्धा ही थे| सम्राट के पहुँचते ही घायल सैनिक उन्हें सैल्यूट करने लगे| सेनापति एक शैय्या के पास जाकर ठिठक गए| वहाँ शैय्या पर सफेद चादर से ढकी एक क्षत-विक्षत काया बेसुध पड़ी थी| दर्जनों सर्वोच्च विजयोपहारों एवं तमगों का विजेता यह योद्धा एक बड़े माँस-पिंड के समान दिखाई देता था| उसका मुहँ भी अनेक चोटों से चिन्हित था| यह कहना कठिन था कि वह मानव-देह थी या सांस लेता माँस का पिंड मात्र|
तीनों सेनाओं के प्रधान सेनापति ब्रिटिश सम्राट ने उस वीर योद्धा की काया को पूर्ण सम्मान के साथ सैल्यूट किया, और अचानक उस योद्धा के माथे को आगे बढ़ कर चूम लिया|
प्रत्येक व्यक्ति को वीरों का सम्मान करना चाहिए|