साधु और जमींदार
कंचनपुर के निकट घने जंगल में एक धूर्त साधु वेशधारी रहता था| कंचनपुर का जागीदार रामप्रताप उसकी खूब सेवा किया करता था| साधु वेशधारी पर उसका अटूट विश्वास था|
जमींदार के पास काफ़ी धन था| वह रात-दिन इसी चिंता में रहता कि कहीं चोर या डाकू उसका धन लूटकर न ले जाएँ|
एक दिन उसके मन में विचार आया कि यदि वह अपना सारा धन साधु के आश्रम में छिपा दे तो कैसा रहे? चोर-डाकुओं को स्वप्न में भी गुमान न होगा|
अगले ही दिन वह अपना सारा धन लेकर साधु की कुटिया में जा पहुँचा और साधु महाराज से बोला, ‘महात्मन! यदि आपका आदेश हो तो मैं अपना सारा धन आपके आश्रम में छिपा दूँ|’
ढेर सारे धन को देखकर ढ़ोंगी साधु के मन में लालच जाग उठा| उसने सोचा इतने धन से तो मेरा सारा जीवन सुख से कट जाएगा| वह जमींदार से बोला, ‘हम साधुओं को धन से कोई मतलब नही है| ये हमारे लिए मिट्टी समान है, क्योंकि हम संसार में विरक्त है| आप इस आश्रम में जहाँ चाहे अपना धन छिपा सकते है|’
‘मुझे आप से यही आशा थी|’ इतना कहकर जमींदार ने एक पेड़ के नीचे अपना सारा धन गाड़ दिया और साधु से विदा लेकर वापस अपने घर आया गया|
कुछ ही दिनों के बाद ढ़ोंगी साधु ने सारा धन निकाल लिया और मन-ही-मन सोचने लगा, ‘कल जाकर जमींदार से विदा ले आऊँगा और यहाँ से कूच कर जाऊँगा|’
अगले दिन वह जमींदार के घर जा पहुँचा और कहने लगा, ‘हमने यहाँ से प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया है|’
यह सुनकर जमींदार हतप्रभ रह गया, ‘क्या हुआ, महाराज, सेवा में कोई कमी रह गई क्या?’
‘नही, मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ| किंतु सन्यासी को एक जगह ज्यादा दिन नही रुकना चाहिए, धर्म तो यही कहता है| इसलिए मुझे यहाँ से जाना ही पड़ेगा|’ साधु वेशधारी ने बातें बनाते हुए कहा|
‘यदि ऐसा है तो मैं आपको कैसे रोक सकता हूँ|’
फिर वह कुछ दूर तक साधु के साथ चला और उसे भक्तिपूर्ण विदाई दी|
जमींदार के जाने के बाद साधु वेशधारी के दिमाग में विचार कौंधा की धन के न मिलने पर जमींदार को उस पर शक हो जाएगा| वह उससे फिर कभी मिला तो क्या होगा? कुछ सोचकर उसने एक तिनका उठाया और अपने बालों में छिपा लिया| फिर वापस अपने जमींदार के घर की ओर लौट पड़ा|
जमींदार उस समय किसी व्यापारी से बातें कर रहा था|
‘आपका स्वागत है महाराज| वापस कैसे आना हुआ?’ जमींदार ने विनम्रता से पूछा|
‘तुम्हारे घर के बाहर बनी झोपड़ी से गिरकर एक तिनका मेरे बालों में गिर गया था| वही वापस करने आया हूँ| साधु वेशधारी धूर्ततापूर्ण स्वर में बोला|
लेकिन वहाँ आया व्यापारी बड़ा घाघ था| उसने मन-ही-मन सोचा- ‘तिनका वापस करने का तो बहाना है| ज़रूर इसने कोई गड़बड़ की होगी|’
उधर जमींदार साधु वेशधारी के व्यवहार से भावविभोर था| कितने बड़े व महान महात्मा है…एक तिनका भी वापस करने आए है| फिर वह साधु वेशधारी से बोला, ‘महाराज, तिनका फेंककर आप सकुशल यात्रा करें|’
साधु वहाँ से चला गया| साधु के जाते ही व्यापारी ने जमींदार से पूछा, ‘साधु के पास तुमने कोई अमानत तो नही रखी थी?’
‘नही…हाँ, उनकी कुटिया में मैंने अपना सारा धन उनकी हिफ़ाजत में रख छोड़ा था|’ जमींदार ने कहा|
‘तब तो तुम्हें जाकर देखना चाहिए कि तुम्हारा धन सुरक्षित है भी या नही?’ व्यापारी ने अपनी राय ज़ाहिर की|
जमींदार गया और थोड़ी देर बाद वापस लौटकर व्यापारी से बोला, ‘धन तो वहाँ नही है, शायद तुम्हारा शक ठीक ही था कि…|’
‘चलो, जल्दी चलो| अभी वह साधु ज्यादा दूर नही गया होगा| तेज़ दौड़कर उसे अभी पकड़ लेंगे|’ व्यापारी ने कहा|
अभी साधु अधिक दूर नही जा पाया था| उन दोनों ने उसे धर-दबोचा|
जमींदार बोला, ‘ढ़ोंगी बचकर कहाँ भाग रहा था तू?’
‘अरे, रे? मैं तो सन्यासी हूँ…|’
उसकी बात पूरी होने से पहले ही जमींदार कह उठा, ‘यदि तूने तुरंत नही बताया कि धन कहाँ छिपाया है तो मैं तुझे संसार से ही सन्यास दिलवा दूँगा|’
‘अभी बताता हूँ|’ साधु वेशधारी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी| उसे अपनी मौत सामने खड़ी दिखाई दे रहे थी|
साधु वेशधारी ने एक पेड़ के नीचे गाड़ा धन निकालकर जमींदार को लौटा दिया|
शिक्षा: भेड़ की खाल में छिपे भेड़ियों से सावधान रहना चाहिए, न जाने कब धोखा हो जाए| किसी की वेशभूषा से उसके गुण-अवगुण का निर्धारण न करके पहले वास्तविकता का पता लगाना चाहिए…तभी कोई कदम बढ़ाना चाहिए|