साधु का उपदेश
किसी नगर में एक सेठ रहता था| उसके पास अपार धन था, उसका व्यापार दूर-दूर तक फैला हुआ था| एक दिन एक साधु उसके दरवाजे पर भिक्षा मांगने के लिए आया| सेठ ने उसे भिक्षा दी| भिक्षा लेकर जब साधु जाने लगा तो सेठ ने उसे रोककर कहा – “महाराज, मुझे कुछ उपदेश तो देते जाइए|”
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साधु ने उसकी ओर देखा और बोला – “हफ्ते भर बाद, आज ही के दिन मैं फिर आऊंगा| तब उपदेश दूंगा|”
अपने वादे के अनुसार अगले हफ्ते साधु आया| सेठ तो उसकी ही राह देख रहा था| उसने उसे देने के लिए तरह-तरह के पकवान तैयार करवा रखे थे| साधु ने उसके आगे अपना कमण्डल कर दिया, लेकिन सेठ जैसे ही उसमें कुछ पकवान डालने को हुआ कि उसका हाथ वहीं-का-वहीं रुक गया| बोला – “स्वामीजी इसमें तो कूड़ा है|”
“तो?” साधु ने प्रश्न भरी निगाह से उसकी ओर देखा|
सेठ ने कहा – “इसे साफ कर दीजिए|”
साधु ने उसे झाड़कर पोंछ दिया| सेठ ने उसमें खाने की चीजें डाल दीं|
भिक्षा लेकर साधु जाने लगा, तो सेठ ने कहा – “महाराज, आप तो जा रहे हैं! क्या भूल गए कि आज आपने मुझे उपदेश देने का वचन दिया था?”
साधु बोला – “अरे! क्या तुम्हें उपदेश नहीं मिला? तो सुनो मेरे कमण्डल में जब गंदगी थी तो तुमने उसमें खाने की चीजें नहीं दीं| उसे साफ करा लिया| इसी तरह तुम्हारे अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि जाने कितनी बुराइयां भरी पड़ी हैं| पहले उन्हें साफ करो, तब कुछ पा सकोगे| तब सेठ को साधु के उपदेश का मोल समझ में आया और उसने उसको अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न किया|