Homeशिक्षाप्रद कथाएँसद्गुणी शिष्य

सद्गुणी शिष्य

प्रयाग में एक ऋषि का आश्रम था| उनके एक अतिसुन्दर कन्या थी| कन्या को विवाह योग्य जानकर उन्होंने अपने ही शिष्यों में से सद्गुणी शिष्य के साथ उसका विवाह करने का निर्णय किया|

दूसरे दिन ऋषि ने अपने शिष्यों को बुलाया और बोले, ‘अपनी कन्या के विवाह में देने के लिए मेरे पास स्वर्णाभूषण नही है| मेरे बच्चों, क्या तुम स्वर्णाभूषण चुराकर ला सकते हो? पर एक बात का ध्यान रखना- चोरी गुप्त रूप से ही होनी चाहिए, किसी को भी इसकी भनक नही पड़नी चाहिए|’

उस दिन से शिष्यों ने अपने तथा मित्रों के घर से स्वर्णनिर्मित आभूषण चुराने शुरू कर दिए और चुपचाप गुरूजी को लाकर देने लगे|

कुछ दिनों में ढेर सारे स्वर्णाभूषण एकत्रित हो गए| एक दिन ऋषि ने देखा कि उनका एक शिष्य बहुत उदास है| वह उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘बेटा, केवल तुम ही मेरे लिए कुछ भी नही ला पाए, क्या बात है?’

‘आपकी शर्त ही ऐसी है गुरुदेव कि आप गुप्त रूप से लाई गई चीज़ ही स्वीकार करेंगे और पाप ऐसा क्रम है जिसे गुप्त नही रखा जा सकता| क्योंकि दूसरों से भले ही मैं चोरी छिपा लूँ, पर अपने आप से तो नही छिपा सकता|’ शिष्य ने उदास स्वर में कहा|

ऋषि खुश हो गए और अपने उस शिष्य से बोले, ‘मुझे अपनी कन्या के लिए तुम्हारे जैसे योग्य वर कि ही तलाश थी| वत्स, मुझे धन की कोई ज़रूरत नही है| मैं तो केवल सदाचार की परीक्षा ले रहा था| मेरी कन्या के योग्य वर केवल तुम ही हो|’

ऋषि ने अन्य सभी शिष्यों को बुलाया और कहा, ‘तुम लोग नैतिक परीक्षा में सफल नही हुए| अतः चोरी की हुई सभी चीजें तुम्हें उसके मालिकों को वापस करनी होंगी|’

फिर उन्होंने रत्नाभूषणों से सज्जित अपनी कन्या का विवाह उस सद्गुणी शिष्य के साथ कर दिया|

शिक्षा: व्यक्ति कितना भी चतुर हो, चाहे सारी दुनिया को धोखा दे ले परंतु खुद को धोखा नही दे सकता| कोई भी बुरा काम करने पर अंतर्मन धिक्कारता अवश्य है, लेकिन व्यक्ति है कि उसकी आवाज़ अनसुनी कर देता है| जो भी अंतर्मन की सुनता है, वह गलत काम कर ही नही सकता|

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