सदा नहीं डरते
किसी नगर में एक सेठ रहा करता था| वह बड़ा ही उदार और परोपकारी था| उसके दरवाजे पर जो भी आता था, वह उसे खाली हाथ नहीं जाने देता था और दिल खोलकर उसकी मदद करता था|
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एक दिन उसके यहां एक आदमी आया उसके हाथ में एक पर्चा था, जिसे वह बेचना चाहता था| उसके पर्चे पर लिखा था – ‘सदा न रहे!’
इस परचे को कौन खरीदता, लेकिन सेठ ने उसे तत्काल ले लिया और अपनी पगड़ी के एक छोर में बांध लिया| नगर के कुछ लोग सेठ से ईर्ष्या करते थे| उन्होंने एक दिन राजा के पास जाकर उसकी शिकायत की जिससे राजा ने सेठ को पकड़वाकर जेल में डलवा दिया| जेल में काफी दिन निकल गए| सेठ बहुत दुखी था| क्या करे, उसकी समझ में कुछ नहीं आता था|
एक दिन अकस्मात् सेठ का हाथ पगड़ी की गांठ पर पड़ गया| उसने गांठ को खोलकर पर्चा निकाला और पर्चा पढ़ा| पढ़ते ही उसकी आंखें खुल गईं| उसने मन-ही-मन कहा-‘अरे, तो दुख किस बात का! जब सुख के दिन सदा न रहे तो दुख के दिन भी सदा न रहेंगे|’
इस विचार के आते ही वह जोर से हंस पड़ा और बहुत देर तक हंसता रहा| जब चौकीदार ने उसकी हंसी सुनी तो उसे लगा, सेठ मारे दुख के पागल हो गया है| उसने राजा को खबर दी| राजा आया और उसने सेठ से पूछा – “क्या बात है?”
सेठ ने राजा को सारी बात बता दी| उसने कहा – “राजन आदमी दुखी क्यों होता है? सुख-दुख के दिन तो सदा बदलते रहते हैं| सुख और दुख तो जीवन के दो पहलू हैं| यदि आज सुख है तो हो सकता है कि कल हमें दुख का मुंह भी देखना पड़े|”
यह सुनकर राजा को बोध हो गया| उसने सेठ को जेल से निकलवाकर उसके घर भिजवा दिया| सेठ आनंद से रहने लगा, क्योंकि उसे ज्ञात हो गया था कि सुख के साथ-साथ दुख के दिन भी सदा नहीं रहते|