राजसूय यज्ञ
इंद्रप्रस्थ में अब राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई थी| बड़ी संख्या में राजा और राजकुमारों का आगमन हुआ| नगरी में सब ओर उत्साह की लहर थी| धार्मिक अनुष्ठानों और मंत्रोच्चारण के साथ युधिष्ठिर को सम्राट घोषित किया गया|
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सर्वश्रेष्ठ अतिथि का पूजन और सम्मान करने से पहले युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा, “पितामह, मै सर्वप्रथम किस नरेश का सत्कार करूँ? किसे मुख्य अतिथि मानूँ?”
भीष्म ने निस्संकोच उत्तर दिया, “द्वारिका-नरेश कृष्ण|”
युधिष्ठिर ने कृष्ण को मुख्य आसन पर बैठने का आग्रह किया| चेदि प्रदेश का राजा शिशुपाल इस बात पर क्रोधित होकर बोला, “तुम सर्वप्रथम इस गवाले का आदर-सत्कार क्यों करना चाहते हो?” यह कहते हुए उसने कृष्ण को द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारा| परन्तु कृष्ण ने उसके अपशब्द अनसुने कर दिये क्योंकि उन्होंने कुछ वर्ष पहले शिशुपाल की माता को उसके सौ अपशब्द क्षमा करने का वचन दिया था|
युधिष्ठिर की राज्य सभा में पूर्ण निस्तब्धता छाई हुई थी| शिशुपाल द्वारा बोले जा रहे अशिष्ट शब्दों को सुनकर भीष्म, द्रोण, भीम, अर्जुन आदि बहुत उत्तेजित हो रहे थे| एक बार चेतावनी देने के बाद कृष्ण भी चुपचाप सुनते रहे| परन्तु किसी को इस बात का आभास नहीं हुआ कि श्रीकृष्ण शिशुपाल द्वारा बोले जा रहे अपशब्दों को गिने जा रहे थे|
अचानक कृष्ण खड़े होकर बोले, “शिशुपाल, मैं तुम्हें एक सौ बार क्षमा कर चुका हूँ| इससे पूर्व मैंने तुम्हे चेतावनी भी दी थी, पर अब बहुत देर हो चुकी है|” और अकस्मात कृष्ण ने चमकता हुआ सुदर्शन चक्र वेग के साथ छोड़ा जो कि शिशुपाल का शिरच्छेद करता हुआ कृष्ण के पास लौट आया| शिशुपाल लहूलुहान होकर धरती पर गिर गया| सब भयभीत और चकित होकर देखते रह गए| युधिष्ठिर यह देखकर दुखी थे कि राजसूय यज्ञ के पुनीत अवसर पर रक्तचाप हुआ, परन्तु वे विवश थे| महोत्सव की समाप्ति के पश्चात सभी राजा और राजकुमार अपने राज्यों को लौट गए|