राजा और अंधा

एक रोज सुबह-सुबह राजा वीरभद्र आखेट के लिए निकला| महल लौटने को हुआ तो बहुत ही थका, भूखा और प्यासा हो चूका था| तभी, सड़क के किनारे उसने तरबूजों का खेत देखा| एक प्यासे को इससे बढ़कर और क्या चाहिए?

“राजा और अंधा” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio

उसने अपने सेवकों को कुछ बढ़िया तरबूज लाने का आदेश दिया| जब वे उस तरफ बढ़ ही रहे थे कि राजा को किसी की हँसी सुनाई दी| सबने उस तरह घूमकर देखा तो एक अधेड़, नेत्रहीन आदमी खड़ा था| राजा ने पूछा, “क्यों जी, तुम हँसते क्यों हो?”

” आपने बढ़िया तरबूज लाने का आदेश दिया है,” अंधा व्यक्ति बोला, “पर यहां तो तरबूज नहीं हैं, इसलिए मुझे हँसी आ गई|”

“तुम तो अंधे हो,| तुम्हें कैसे पता कि खेत में तरबूज है या नहीं?”

“महाराज, हर बात जानने के लिए आँखों की जरुरत नहीं होती| तरबूजों का मौसम बीत चूका है| सारे अच्छे-अच्छे फल तो तोड़े ही जा चुके हैं, जो रह गए हैं, वो बेकार और सड़े-गले ही होंगे|”

सेवकों ने लौटकर राजा को वही बताया, जो उसे अंधे आदमी ने कहा था|

राजा वीरभद्र उस अंधे व्यक्ति की दूरंदेशी से बहुत प्रभावित हुआ| उसने तय किया कि वह उसे अपने साथ राजधानी ले जाएगा|

हो सकता है, वह अंधा आदमी राज-काज की कुछ समस्याएं, सुलझाने में उसकी मदद कर सके|

उस अंधे आदमी का नाम था-संजय| रहने के लिए राजधानी के बाहर एक कुटिया दे दी गई और खाने के लिए रोज दो मटके चावल भी दिये जाने लगे| इस प्रकार संजय ने अपना जीवनयापन शुरू कर दिया|

एक दिन एक जौहरी बहुत सारे मूल्यवान रत्न और मोती लेकर महल आया| दरबारियों ने यथाबुद्धि राजा को बेहतरीन रत्न और मोती  खरीदने की सलाह दी| जौहरी को पता चल गया कि उनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जो असली और नकली हीरों में फर्क कर सके|

उसने एक हाथ में असली हीरा और दूसरे में उसी का नक़ल उठाकर कहा, “असली हीरा एक लाख रुपये का है; और दूसरा महज कांच का टुकड़ा| आप सब में जो स्वयं को सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझता हो, वह असली हीरा चुन ले| लेकिन एक शर्त है- यदि उसने नकली हीरे को असली समझकर चुन लिया तो उसे असली की कीमत देनी पड़ेगी|”

उसकी बात सुनकर, सभा में एकदम सन्नाटा छा गया| अब कोई भी सलाह देने आगे नहीं आया|

ऐसा देखकर, राजा ने संजय को बुला भेजा| “देखते है कि वह असली और नकली में फर्क बता सकता है या नहीं|”

मन्त्री और दरबारी एक-दूसरे की तरफ देखने लगे| उनके होठों पर मंद-मंद मुस्कान थी| संजय? वह अंधा? वह क्या असली और नकली में भेद बताएगा?

संजय वहां हाजिर हुआ तो उसे सारी बात बतायी गई| उसने जौहरी से दोनों पत्थर उसकी दोनों हथेलियों पर रखने के लिए कहा| जौहरी ने ऐसा ही किया| कुछ देर संजय ने अपने हाथ धूप में रखें| उसके पश्चात, उनमें से एक पत्थर राजा को देते हुए बोला, “यही असली हीरा है|”

जौहरी हैरान था कि एक नेत्रहीन व्यक्ति ने सही हीरा अलग कर दिया| राजा ने जौहरी को हीरे का दाम दिया और फिर संजय से पूछा, “तुमने असली हीरा कैसे ढूढ़ निकाला?”

“महाराज, यदि आप हीरे और शीशे को धूप में रखेंगे तो शीशा तो गर्म हो जाएगा, पर हीरा नहीं,” संजय ने जवाब दिया|

संजय के उत्तर से संतुष्ट होकर राजा ने उसे तीन वक्त का खाना और कुछ-एक दूसरी सुविधाएं मुहय्या करा दीं|

एक सुबह दरबार में दो भाइयों के बीच जायदाद के झगड़े का मुकदमा आया|

उन दोनों के स्वर्गीय पिता उनके नाम भारी संपति छोड़ गए थे जिसमें हजारों एकड़ की जमीन थी-कुछ उपजाऊ, कुछ बंजर और पथरीली| लेकिन जो झीलें जंगल और नदियां बीच में पड़ते थे, उनकी वजह से जमीन-जायदाद का ठीक-ठाक बंटवारा मुश्किल हो रहा था| कोई समाधान न निकलता देख, मामला सुलझाने के लिए दोनों भाई राजा के दरबार चले आए थे|

जमीन-जायदाद के मामले देखने वाले मन्त्री और उसके अधिकारीयों के सामने सारा किस्सा सुनाया गया|

उनकी समझ में भी बंटवारे का कोई तरीका नहीं आया| राजा ने फिर से संजय को बुलाया|

मन्त्री हैरान थे कि जो मामला आँखों वाले जानकार लोगों के पल्ले नहीं पड़ा, उसे एक अंधा आदमी कैसे हल करेगा!

संजय पूरी बात सुनकर मुस्कराते हुए बोला, “दोनों में से एक भाई पूरी संपति का बंटवारा करे और दूसरा अपनी पसंद का हिस्सा चुन ले| और ये दोनों काम कौन-कौन करेगा, इसका फैसला मान लिया| उनकी गंभीर समस्या चुटकियों में हल हो गई थी|

बस, इसी तरह संजय राजा को सलाह-मशविरा देते हुए, समस्याएं और दुष्कर झगड़े सुलझाने में उसकी मदद करते हुए, उस छोटी-सी कुटिया में अपने दिन गुजार रहा था|

एक दोपहर, राजा बहुत अकेला महसूस कर रहा तह| उसने संजय को बुला लिया| “संजय, तुम इतने विवेकी, बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति हो| तुम्हारी तीक्ष्ण बुद्धि कठिन से कठिन समस्या का हल ढूढ़ लेती है| क्या यह अजीब नहीं की तुम अब तक समझ नहीं पाए कि हल यह राज्य मुझे विरासत में नहीं मिला है, इसे मैंने हथियाया है?” राजा ने पूछा|

“यह तो मुझे शुरू से ही पता है|,” संजय शांत स्वर में बोला|

“कैसे?” राजा के स्वर में जिज्ञासा थी|

“जो व्यक्ति राजपरिवार में पैदा हुआ हो, वह एक ऐसे आदमी को जटिल से जटिल समस्याएं हल करने में उसकी सहायता करता आया हो-उसे मात्र तीन वक्त की रोटी देकर, राज्य के बाहर किसी झोपड़ी में तो नहीं ही रहेगा,” संजय बोला|

राजा का सिर शर्म से झुक गया|