राजा हरिश्चंद्र का संसार से वैराग्य
कहते हैं कि ‘विपत्ति ही संपति की जननी है| परीक्षा के पलों में ही मनुष्य के महत्व का पता चलता है| जिसके जीवन में कठिनाईयां नहीं आतीं, उसकी आत्म-शक्ति और धैर्य की परीक्षा नहीं हो सकती|’
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श्मशान घाट पर हरिश्चंद्र बड़ा सावधानी से रात-दिन काम करने लगे| वंहा सभी प्रकार के लोग अपने परिजनों को जलाने लाते| हरिश्चंद्र सभी से ‘श्मशान-कर’लेते| वे लोगों को रोज ही रोते-पीटते, मरते-जलते देखते| यह सब देखकर उन्हें संसार से वैराग्य हो गया|
श्मशान पर रहकर वे जीवन का अंत देखते और सोचते कि सभी को एक दिन यंहा आना पड़ेगा| यह सब देख-देखकर हरिश्चंद्र के मन में शांति कला संचार होने लगा| वे भगवान का स्मरण करते हुए दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करने लगे|