रैवत
प्राचीन काल में अतवाक नाम के एक महर्षि थे| बहुत समय तक उनकी पत्नी के गर्भ से कोई भी पुत्र पैदा नहीं हुआ, इस कारण वे बड़े दुखी रहते थे, लेकिन फिर विधाता की इच्छा को ही अंतिम सत्य मानकर अपने भाग्य पर संतोष कर लेते थे|
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बहुत समय बाद उनकी पत्नी गर्भवती हुई और रेवती नक्षत्र के अंतिम चरण में उनके गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ| महर्षि बालक के जन्म पर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने विधिपूर्वक उसका जातकर्म संस्कार किया|
कुछ समय पश्चात ही महर्षि की सारी प्रसन्नता समाप्त हो गई| अशुभ घड़ी में पैदा होने के कारण महर्षि तो एक दीर्घकालव्यापी भयानक रोग के शिकार बन गए और उनकी पत्नी के शरीर में कोढ़ हो गया और उनका वह पुत्र भी श्रेष्ठ गुण संपन्न नहीं हुआ| जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ वैसे-वैसे ही उसकी दुष्टता बढ़ती गई| धर्म और सत्य को वह पहचानता तक नहीं था| महर्षि के कितने ही आग्रह करने पर वह शिक्षा प्राप्त करके अधिक योग्य भी नहीं हुआ|
महर्षि और उनकी पत्नी अपनी शारीरिक पीड़ा के कारण दुखी रहते और पुत्र के दुष्टतापूर्ण कृत्य उनके मानसिक क्लेश के कारण बनते| उससे व्याकुल होकर वे रोते हुए कहते, “हाय विधाता ! हमने अपने पूर्वजन्म में ऐसा कौन-सा पाप किया था कि दीर्घकाल तक तो संतान-सुख के अभाव में हमारा चित्त दुखी रहा और अब पुत्र भी तूने दिया तो उसके दुष्टतापूर्ण कृत्य हमारे चित्त को और भी अधिक पीड़ा देते हैं, फिर हमारे पवित्र शरीरों के साथ ये क्या व्याधियां लग गईं| अवश्य तेरा प्रकोप है|”
इसी तरह दुखी होकर वे नित्य ही रोते और इसके पश्चात पुत्र की ओर से कोई न कोई हृदय को और भी अधिक पीड़ा देने वाला समाचार आ जाता जिससे और भी अधिक जीवन का यह अभिशाप उन्हें दुखी कर देता|
एक दिन पुत्र ने किसी मुनि कुमार की स्त्री का अपहरण कर लिया| मुनि कुमार महर्षि के पास आया तो महर्षि इस दुखद समाचार को सुनकर कहने लगे, “हे विधाता ! कैसा दुर्भाग्य है? इससे अधिक तो वे सुखी हैं जिनके कोई संतान नहीं है| कुपुत्र से तो निपुत्र रहना ही अच्छा है| कुपुत्र सदा माता-पिता के हृदय को क्लेश पहुंचाता रहता है और अपने दुष्टतापूर्ण कृत्यों से पितरों को स्वर्ग से नीचे गिरा देता है| इस संसार में वे ही सुखी हैं जिनके पुत्र सदा श्रेष्ठ कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हैं और जिनमें शील तथा क्षमा का भाव होता है| मेरे इस पुत्र ने मुनिकुमार की पत्नी का अपहरण किया है, इस पाप के फलस्वरूप उसकी तो अधोगति होगी ही लेकिन हमें भी उसके मां-बाप होने के नाते घोर नरक की यातनाएं सहनी पड़ेंगी| हे विधाता, यह कैसा अन्याय है?”
उसी समय गर्भ मुनि उधर आ निकले| उनको देखते ही महर्षि ने दुखित स्वर में कहा, “हे महामुनि ! पूर्वकाल में उत्तमव्रत का पालन करते हुए मैंने सब वेदों का विधिपूर्वक अध्ययन किया| उन्हें समाप्त करके वैदिक विधि के अनुसार अपना विवाह किया और फिर सदा पत्नी को साथ रखकर वेदों और स्मृतियों के बताए हुए सभी कर्तव्य-कर्मों का अनुष्ठान किया| मुझे स्मरण नहीं आता कि कभी भी मैंने धर्म की मर्यादा को तोड़ा हो, सदा सत्य को ही अपने जीवन का आदर्श बनाकर रखा| हे मुनी ! पुञ नामक नरक के भय से मैंने गर्भाधान की विधि से पुत्रोत्पत्ति का उद्देश्य रखकर स्त्री के साथ समागम किया है| इस तरह सभी प्रकार के धर्म-कर्म का पालन करने पर भी मेरी पत्नी के गर्भ से ऐसा दुष्ट और क्रूर पुत्र पैदा हुआ|”
महर्षि की यह बात सुनकर गर्भ मुनि ने कहा, “हे मुनिश्रेष्ठ ! तुम्हारा यह पुत्र रेवती नक्षत्र के अंतिम चरण में पैदा हुआ था| उस अशुभ घड़ी में पैदा होने के कारण ही यह इतना दुष्ट और क्रूर प्रवृत्ति का होकर सदा तुम्हारे चित्त को कष्टकारक हुआ|”
इस पर महर्षि ऋतुवाक ने कहा, “आपका कथन सत्य है महामुनि ! यह मेरा ही दुर्भाग्य है|”
यह कहते ही महर्षि को क्रोध आ गया और उन्होंने आंखें लाल करके आकाश की ओर देखकर कहा, “यदि इस रेवती नक्षत्र के कारण मेरा पुत्र ऐसा दुष्ट हुआ तो मैं इस रेवती नक्षत्र को ही नष्ट करता हूं| मेरे शाप से यह शीघ्र ही पृथ्वी पर गिर पड़ेगा|”
महर्षि के शाप देते ही रेवती नक्षत्र आकाश से टूटकर गिर पड़ा| सारा संसार चकित होकर यह अद्भुत दृश्य देखने लगा| वह नक्षत्र कुमुद गिरि के चारों ओर गिरा| वहां का वन प्रांत उसके कारण उद्भासित हो उठा| रेवती नक्षत्र के गिरने से कुमुद गिरि का नाम रैवतक हो गया| उस नक्षत्र की सारी क्रांति कमलमण्डित सरोवर के रूप में प्रकट हुई| उसी समय उस सरोवर से एक अत्यंत सुंदरी कन्या पैदा हुई|
वहीं पर प्रमुचमुनि का आश्रम था| मुनि ने यह देखकर कि रेवती नक्षत्र की कांति ही इस कन्या के रूप में प्रकट हुई है, उनका नाम रेवती रख दिया| उसने अपने आश्रम पर रखकर ही वे उसका पालन पोषण करने लगे| जब कन्या युवावस्था को प्राप्त हो गई तो वे उसके लिए योग्य वर की चिंता करने लगे| इसी चिंता को लेकर वे अग्निदेव के पास गए| यज्ञशाला में स्थापित अग्निदेव ने मुनि का प्रश्न सुनकर कहा, “हे मुने ! इस कन्या के पति राजा दुर्गभ होंगे| वे महापराक्रमी और धर्मात्मा और धर्मात्मा राजा हैं|”
मुनि उस समय अग्निशाला में बैठे अग्निदेव की बात सुन ही रहे थे कि राजा दुर्गम आखेट में इधर-उधर फिरते हुए उस मुनि के आश्रम पर आ गए और वहां उस सुंदरी कन्या रेवती को देखकर उन्होंने ‘प्रिय’ कहकर उसको संबोधित किया| अपनी क्वारी कन्या को किसी पुरुष को इस तरह संबोधित करते देख मुनि तुरंत बाहर निकल आए और आकर उन्होंने देखा कि इस तरह रेवती को संबोधित करने वाले स्वयं राजा दुर्गभ ही थे| वे एक साथ आश्चर्य में डूब गए और प्रसन्न होकर उन्होंने राजा का समुचित स्वागत किया|
राजा ने कहा, “हे भगवन ! आपकी कृपा से मेरे यहां सब कुशल है|”
यह सुनकर मुनि ने कहा, “हे राजन ! जिस कन्या को आपने प्रिये कहकर संबोधित किया है, यह मेरी कन्या रेवती है| अब यह पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो चुकी है| इसके श्रेष्ठ वर की चिंता करके मैंने अग्निदेव से पूछा था, ‘हे अग्निदेव ! मेरी श्रेष्ठ कन्या के योग्य वर कौन है?’ तब अग्निदेव ने आपको ही इसका योग्य वर बताया था| हे महाराज ! इसी कारण मैं अपनी इस कन्या को आपको समर्पित करता हूं| आप इसे ग्रहण कीजिए| आपने इसको प्रिये कह कर संबोधित कर ही दिया है|”
ऋषि की बात सुनकर राजा चुप हो गए और लज्जा के भाव के कारण कुछ भी उत्तर नहीं दे सके| ऋषि ने फिर अपनी बात को दोहराते हुए रेवती को ग्रहण करने की प्रार्थना की|
तब राजा ने प्रसन्न होकर कहा, “हे भगवन ! भला अग्निदेव के वाक्य को कौन टाल सकता है? फिर आपकी आज्ञा मानना भी तेरा कर्तव्य है| आप किसी प्रकार की चिंता मत कीजिए| मैं आपकी कन्या को अपनी पत्नी बनाना स्वीकार करता हूं|”
राजा ने यह कहते ही ऋषि ने अपने शिष्यों को भेजकर विवाह के लिए सभी आवश्यक सामग्री मंगवा ली और विधिपूर्वक अपनी कन्या का विवाह राजा दुर्गभ के साथ करने के लिए वे पूरी तरह उद्यत हो गए|
उसी समय रेवती ने ऋषि से कहा, “हे पूज्यवर ! यदि आप मुझे प्यार करते हैं और अपने पति के साथ मुझे सुखी देखना चाहते हैं तो कृपा करके मेरा विवाह रेवती नक्षत्र में ही करिए|”
रेवती की यह बात सुनकर ऋषि चौंककर बोले, “बेटी ! क्या तुम नहीं जानतीं कि महर्षि ऋतवाक ने क्रुद्ध होकर ही रेवती नक्षत्र को आकाश से गिरा दिया है| अब तुम्हारा विवाह रेवती नक्षत्र में कैसे हो सकता है?”
इस पर रेवती ने कहा, “हे पूज्य पिता ! यदि ऋतवाक मुनि ने अपनी तपस्या के बल पर रेवती नक्षत्र को नष्ट करने तक का दुर्गम कार्य पूरा कर दिया तो आप अपने तपोबल से फिर रेवती नक्षत्र को आकाश में स्थापित करिए जिससे मेरी इच्छा पूर्ण हो सके|”
कन्या का आग्रह मानकर ऋषि ने फिर रेवती नक्षत्र को चंद्रमा के मार्ग में स्थापित कर दिया| इसके बाद उसी नक्षत्र में वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए कन्या का विधिपूर्वक विवाह किया और विवाह का सारा कार्य संपन्न हो जाने के पश्चात वे राजा से बोले, “हे राजन ! बोलिए, अब दहेज के रूप में आपको क्या दूं? मैं अपने तपोबल से कोई भी दुर्लभ से दुर्लभ वस्तु दे सकता हूं|”
ऋषि की बात सुनकर राजा ने कहा, “हे भगवान ! मेरा जन्म स्वायंभुव मनु के वंश में हुआ है| आप मुझे वर दीजिए कि मेरी पत्नी के गर्भ से ऐसा प्रतापी पुत्र पैदा हो जो मन्वंतर का स्वामी हो|”
ऋषि ने प्रसन्न होकर कहा, “हे राजन ! तुम्हारी कामना अवश्य पूर्ण होगी| तुम्हारा पुत्र मनु होकर संपूर्ण पृथ्वी का उपभोग करेगा और सभी धर्म-कर्मों का ज्ञाता होगा|”
यह कहकर ऋषि ने अपनी पुत्री और राजा को सम्मानपूर्वक विदा कर दिया| राजा अपनी पत्नी को लेकर अपने नगर में आ गए और वहां अनेक वर्षों तक पूर्ण सुख से रेवती के साथ रहते रहे| परस्पर समागम के कारण रेवती गर्भवती हो गई और नियत अवधि के पश्चात उसके गर्भ से एक परम प्रतापी पुत्र पैदा हुआ| बड़ा होकर वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता हुआ और अपने महान पराक्रम के बल पर उसने सारी पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया| रेवती का पुत्र होने के नाते उसका नाम रैवत रखा गया और उसी को मनु के पद पर प्रतिष्ठित किया गया|
रैवत मनु के मन्वंतर में सुमेधा, भूपति, बैकुंठ और अमिताभ – ये चार देवगण थे| इनमें से प्रत्येक गण में चौदह-चौदह देवता थे| इन चारों देवगणों के स्वामी विभु नामक इंद्र थे| उन्होंने सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके ही इस पद को प्राप्त किया था| हिरण्यरोमा, वेदश्री, उर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य, महामुनि वसिष्ठ-ये सप्तर्षि थे| बलबंधु, महावीर्य सुयष्टव्य तथा सत्यक आदि रैवत मनु के पुत्र थे|