प्रारब्ध और पुरुषार्थ
प्राचीन काल में मालव देश में एक ब्राह्मण रहता था, जो बहुत ही धर्मनिष्ठ एवं भद्र पुरुष था| उसका नाम था – यज्ञदत्त! यज्ञदत्त के दो बेटे भी थे, जिनके नाम कालेनेमी एवं विगतभय थे|
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कालनेमि और विगतभय अभी छोटे ही थे कि उनके पिता यज्ञदत्त का देहांत हो गया| परिवार को चलाने की जिम्मेदारी उनकी माता पर आ पड़ी| पति के मरने के पश्चात यज्ञदत्त की पत्नी ने अपने कर्तव्य का बखूबी निर्वाह किया| उसने अपने दोनों पुत्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए पाटलिपुत्र (वर्तमान का पटना नगर) में भेज दिया| दोनों भाई वहां पहुंचकर देवशर्मा नाम के एक विद्वान के पास रहकर विद्याध्ययन करने लगे|
देवशर्मा की दो पुत्रियां थीं| जब इन दोनों भाइयों का अध्ययन काल समाप्त हो गया तो देवशर्मा ने अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह इन दोनों भाइयों के साथ कर दिया|
दोनों भाई अपनी-अपनी गृहस्थी का संचालन करने लगे| अपने पड़ोसियों को धनी देखकर कालनेमि ने भी घनवान बनने के लिए लक्ष्मी की उपासना आरंभ कर दी, जिससे लक्ष्मी प्रसन्न हो गईं और दर्शन देकर बोलीं – “मैं तुमसे प्रसन्न होकर वरदान देती हूं कि तुम्हें मनचाहा धन मिलेगा| यही नहीं, तुम ऐसे पुत्र के पिता बनोगे, जिसे पृथ्वीपति कहा जाएगा|”
इससे कालनेमि बड़ा प्रसन्न हुआ, सहसा देवी पुन: बोलीं – “किंतु यह सब होने पर भी अंत में तुम्हारी मृत्यु चोरों के समान होगी, क्योंकि मुझे प्रसन्न करने के लिए तुम जो हवन करते थे, उस समय तुम्हारे मन में ईर्ष्या भावना रहती थी| इसका फल तुम्हें अवश्य मिलेगा|”
वर और शाप दोनों देकर लक्ष्मी अंतर्धान हो गईं| कुछ ही दिनों में कालनेमि धनवान होने लगा और धीरे-धीरे बहुत बड़ा सेठ हो गया| इसके बाद उसकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया| श्री लक्ष्मी के वरदान से होने के कारण उसका नाम श्रीदत्त रखा गया| प्रसन्नतापूर्वक कालनेमि अपने पुत्र का पालन-पोषण करने लगा| अब उसके पास किसी प्रकार का कोई अभाव न था, अत: पुत्र के पालन-पोषण और अध्ययन में वह किसी प्रकार की कमी नहीं रहने देना चाहता था|
ब्राह्मण का पुत्र होने पर भी श्रीदत्त जब युवा हुआ तो उसकी सभी रुचियां और गुण क्षत्रिय के समान थे| वह अस्त्र-शस्त्रों में अधिक रुचि रखता था, न कि शास्त्रों में| कुश्ती में तो वह कुशल हो ही गया था|
उधर कालनेमि के भाई विगतभय की पत्नी को सर्प ने काट लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई तब विगतभय तीर्थयात्रा के लिए चल पड़ा|
वहां का राजा वल्लभशक्ति गुणी लोगों का बड़ा आदर करता था| जब उसने श्रीदत्त में क्षत्रियों के समान गुण देखे तो अपने पुत्र को उससे मित्रता करने का परामर्श दिया, अत: राजकुमार विक्रमशक्ति और श्रीदत्त घनिष्ठ मित्र बन गए| कालांतर में उनकी यह मित्रता प्रतिस्पर्धा में बदल गई|
कुछ समय बाद अवन्ति देश के बाहुशाली और वज्रमुष्टि भी श्रीदत्त के मित्र बन गए| ये दोनों वीर भी क्षत्रिय थे| यही नहीं, दक्षिण देशों के सभी कुश्ती प्रेमियों तथा अनेक देशों के मंत्रियों के पुत्रों से भी श्रीदत्त की मित्रता हो गई|
उस समय के महाबल, व्याघ्रभट्ट, उपेंद्रबल, निष्ठुर आदि बड़े-बड़े प्रसिद्ध कुश्ती के जानने वाले भी श्रीदत्त के गुणों से प्रभावित होकर उसके मित्र बन गए|
यदा-कदा ये सभी मल्ल मिलते रहते थे| एक बार वर्षा काल में ये सभी एकत्र हुए| राजकुमार विक्रमशक्ति ने गंगा के तट पर घूमने की इच्छा व्यक्त की| श्रीदत्त को साथ लेकर सभी मित्र गंगा के तट पर जा पहुंचे|
वे सभी वहां पहुंचकर मनोविनोद करने लगे| उन्होंने अपने दो दल बनाए, एक दल ने अपना राजा राजकुमार विक्रमशक्ति को बनाया और दूसरे दल ने श्रीदत्त को| विक्रमशक्ति को यह सहन नहीं हुआ| उसने राजमद में अंधा होकर श्रीदत्त को मल (कुश्ती) युद्ध की चुनौती दे दी|
दोनों परस्पर मल्ल युद्ध करने लगे| कभी विक्रमशक्ति का दांव ऊपर रहता तो कभी श्रीदत्त का| अंत में श्रीदत्त ने राजकुमार विक्रमशक्ति को परास्त कर दिया| इसे राजकुमार ने अपना अपमान समझा और श्रीदत्त की हत्या कर देने का संकल्प कर लिया|
श्रीदत्त इस बात को समझ गया था, अत: वह अपने मित्रों के साथ वहां से चला गया| वे अभी कुछ ही दूर गए थे कि उन्होंने एक युवती को गंगा में बहते हुए देखा| श्रीदत्त से रहा नहीं गया| उसने बाहुशाली आदि अपने मित्रों को रोका और स्वयं उस युवती की रक्षा के लिए गंगा में कूद पड़ा|
तैरता हुआ वह तुरंत उस युवती के पास पहुंचा| उसके हाथ में युवती के बाल आ गए, जिन्हें पकड़कर उसने उसे ऊपर उठाना चाहा, किंतु ऐसा नहीं हो सका| इसी प्रयत्न में श्रीदत्त भी डूब गया|
जल में डूब जाने के बाद जब श्रीदत्त को होश आया तो उसने स्वयं को एक शिव मंदिर के पास पाया| वहां नदी या वह स्त्री कुछ भी न था| श्रीदत्त थका हुआ था, अत: मंदिर में जाकर शिव को हाथ जोड़ने के बाद वहीं उपवन में बैठकर आराम करने लगा| उस रात वह उसी उपवन में रहा|
प्रात:काल श्रीदत्त ने देखा कि जिस स्त्री को बचाने के लिए वह नदी में कूदा था, वह स्त्री सुंदर वस्त्र पहनकर मां लक्ष्मी जैसे रूप में शिव की प्रात:कालीन पूजा के लिए आ रही है|
श्रीदत्त अपलक नेत्रों से उस स्त्री को देखता रहा| पूजा करने के बाद वह स्त्री वापस चली गई| उसका अपने प्रति इस प्रकार का उपेक्षित व्यवहार देखकर श्रीदत्त को बड़ी निराशा हुई| वह स्वयं को न रोक सका और उसके पीछे-पीछे चल पड़ा|
उस स्त्री का घर भी देवमंदिर के समान अत्यंत भव्य था| श्रीदत्त उसके घर की सुन्दरता देखता ही रह गया| श्रीदत्त को अपने पीछे आता देख वह स्त्री शीघ्र ही अंदर चली गई|
अंदर जाकर वह भीतरी कक्ष में एक पलंग पर बैठ गई, जिसके चारों ओर स्त्रियां खड़ी थीं| उसके साथ ही श्रीदत्त भी अंदर आ गया और उसके साथ पलंग पर बैठ गया|
श्रीदत्त के उस पलंग पर बैठते ही वह स्त्री रोने लगी| इससे श्रीदत्त को आश्चर्य भी हुआ और उस पर दया भी आई| श्रीदत्त के लिए वह एक पहेली जैसे बनी हुई थी| उसका परिचय जानने के लिए वह बोला – “देवी! आप कौन हैं? आपको क्या कष्ट है जो आप रो रही हैं? मुझे बताइए| मैं आपका कष्ट दूर करूंगा|”
यह सुनकर वह स्त्री बड़ी कठिनता से बोली – “मैं दैत्यों के राजा बलि की पौत्री हूं| मेरे साथ मेरी नौ सौ निन्यानवे बहनें भी यहां हैं| मैं उन सभी से बड़ी हूं, मेरा नाम विद्युतप्रभा है| विष्णु ने हमारे पितामह को पाताल लोक में बंधन में डाल दिया है और पिता को मल्लयुद्ध करके मार डाला है| इसके बाद उसने हमें नगर से भी निकाल दिया है| अब हमारा अपने नगर में जाना भी नितांत असंभव हो गया है| उस नगर पर शेर के समान भयंकर प्रहरी नियुक्त कर दिया गया है| वह प्रहरी कुबेर के शाप से सिंह बना यक्ष ही है| उससे हम अत्यंत भयभीत हैं|
हमने अपने नगर में प्रवेश पाने के लिए विष्णु के सामने बहुत अनुनय-विनय की, किंतु विष्णु का कहना है कि जब प्रहरी की शाप छूटेगा, हम तभी अपने नगर में प्रवेश कर सकेंगी| अत: यदि तुम मेरे लिए कुछ करना चाहते हो तो पहले उस प्रहरी सिंह का वध करो, इसीलिए मैं तुम्हें यहां लाई हूं| यदि तुम ऐसा करने में सफल हो गए तो तुम्हें उसका मृगांक नाम का खड्ग भी मिल जाएगा, जिसके प्रभाव से तुम समस्त पृथ्वी को जीतकर उसके राजा बन जाओगे|”
उसकी कहानी सुन श्रीदत्त बोला – “बहुत अच्छा! मैं अवश्य उसका वध करूंगा|”
दूसरे दिन अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार दैत्य कन्याओं को आगे कर श्रीदत्त उस नगर की ओर चल पड़ा| सवर्प्रथम उसका सामना उसी सिंह से हो गया|
सिंह से मिलते ही श्रीदत्त का उससे मल्लयुद्ध आरंभ हो गया, जिसमें श्रीदत्त ने उसे हरा दिया| पराजित होते ही वह सिंह यक्ष के रूप में प्रकट हो गया| उसका शाप छूट गया था, इससे वह बड़ा प्रसन्न हुआ| श्रीदत्त को अपना खड्ग भेंट करने के बाद वह तत्काल अंतर्धान हो गया| इससे दैत्य कन्याओं का कष्ट भी दूर हो गया|
इसके बाद उन दैत्य कन्याओं के साथ श्रीदत्त ने उस नगर में प्रवेश किया| दैत्य कन्या ने श्रीदत्त को एक विषनाशक अंगूठी दी| वहां रहने पर श्रीदत्त उस दैत्य कन्या के प्रति आकृष्ट हो गया| दैत्य कन्या भी उसकी इच्छा समझ गई| एक दिन वे दोनों एक सरोवर में स्नान के लिए गए| वहां वह दैत्य कन्या श्रीदत्त से बोली – “आप इस खड्ग सहित सरोवर में स्नान कीजिए|”
“ऐसा क्यों?” श्रीदत्त ने पूछा|
“क्योंकि सरोवर में मगरमच्छ है|”
श्रीदत्त ने नहाने के लिए सरोवर में डुबकी लगाई, किंतु यह क्या! जब वह बाहर निकला तो उसने स्वयं को उसी स्थान पर देखा, जहां से वह उस युवती को बचाने के लिए गंगा में कूदा था| उसके पास दैत्य कन्या द्वारा दी गई अंगूठी और यक्ष द्वारा दिए गए खड्ग के सिवाय कुछ भी न था| इससे वह दुखी हुआ| उसने सोचा कि संभवत: वह ठगा गया है|
उसने चारों ओर देखा, किंतु वहां कोई न था| वह अपने मित्रों को ढूंढ़ने के लिए घर की ओर बढ़ गया| मार्ग में उसे निष्ठुरक नामक मित्र मिला| श्रीदत्त को देखते ही वह बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा – “उस समय तुम्हें डूबता देख हम भी आत्महत्या के लिए तत्पर हो गए थे, किंतु तभी आकाशवाणी हुई – ‘पुत्रो! ऐसा अनुचित साहस न करना|’
फिर हम तुम्हारे पिता को सूचित करने जा रहे थे कि मार्ग में एक व्यक्ति मिला और कहने लगा कि हम लोग नगर में न जाएं, क्योंकि राजा वल्लभशक्ति परलोक सिधार गया है और विक्रमशक्ति नया राजा बना है| राजा बनते ही वह तुम्हारे घर गया और तुम्हारे (श्रीदत्त) विषय में पूछ रहा था|”
उसने आगे बताया – “तब तुम्हारे पिता ने कहा कि वह तुम्हारे विषय में कुछ नहीं जानते| उसे तुम्हारे पिता कालनेमि की बातों पर विश्वास न हुआ और क्रोधित होकर उन्हें मृत्युदंड दे दिया|
पति की दशा देख तुम्हारी मां ने भी प्राण त्याग दिए| अब वह विक्रमशक्ति श्रीदत्त और उसके सभी मित्रों की तलाश में है, जिससे वह उन्हें भी मृत्युदंड दे सके, अत: तुम लोग नगर में न जाकर कहीं अन्यत्र चले जाओ|
उस व्यक्ति से यह सूचना पाकर हमारे सभी मित्रों की भारी शोक हुआ| हमने परस्पर मंत्रणा की कि हमें क्या करना चाहिए और निर्णय लिया कि मैं यही रहूं तथा बाहुशाली आदि पांचों मित्र अपने जन्म-स्थान उज्जैन चले जाएं, अत: हमने यही किया| अब यहां केवल मैं ही छिपा हुआ हूं, जिससे यदि तुम लौट आए तो तुम्हें सूचित कर सकूं|
अब यही उचित रहेगा कि हम भी उज्जैन चले जाएं और सब मिलकर भावी योजना तैयार करें|”
अपने माता-पिता की दारुण मृत्यु के समाचार से श्रीदत्त को भारी शोक हुआ| यक्ष द्वारा दिए गए खड्ग पर दृष्टि पड़ते ही उसकी आंखों में एक नई चमक आ गई| उसके हृदय में विक्रमशक्ति में प्रतिशोध लेने की भावना जाग पड़ी|
उस समय वह निष्ठुरक का परामर्श मानकर उज्जैन चला गया|
श्रीदत्त और निष्ठुरक उज्जैन के लिए चले जा रहे थे| श्रीदत्त उसे अपने साथ घटी घटनाओं के विषय में बताता जा रहा था, तब उन्हें एक स्त्री दिखाई दी, जो रो रही थी| श्रीदत्त ने उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि वह मालव जा रही थी, किंतु मार्ग भटक गई है| कोई उसके साथ भी नहीं है| वे दोनों भी मालव देश ही जा रहे थे, अत: उसे भी साथ लेकर चलने लगे| रात्रि हो जाने पर वे सब एक ऐसे नगर में रुके, जो उजड़कर वीरान हो गया था|
इसके बाद वे पुन: आगे बढ़े| एक रात्रि फिर किसी दूसरे स्थान पर रुके| प्रात:काल उठने पर श्रीदत्त ने देखा कि वह स्त्री निष्ठुरक को मारकर खा रही है| यह देखते ही श्रीदत्त क्रोधित हो उठा| उसने उसे मारने के लिए जैसे ही अपना मृगांक खड्ग उठाया, वह स्त्री तुरंत राक्षसी बन गई|
श्रीदत्त ने क्रोध में उसके बाल पकड़ लिए और वह उसे मार डालना चाहता था कि वह राक्षसी का रूप छोड़कर दिव्य रूप वाली हो गई| फिर वह श्रीदत्त से बोली – “हे युवक! मुझे न मारो| वस्तुत: मैं राक्षसी नहीं हूं| कौशिक ऋषि के शाप से ही मेरी यह स्थिति हुई है| जब कौशिक मुनि कुबेर बनने के लिए तप कर रहे थे तो कुबेर ने मुझे उनकी तपस्या भंग करने के लिए वहां भेजा|
मैं अपना मोहक रूप धारण करने पर जब ऋषि को नहीं लुभा सकी तो मैंने राक्षसी रूप धारण कर लिया| मेरा यह रूप देखकर ऋषि ने मुझे शाप दे दिया – ‘दुष्टे! अब से तुम मानवभक्षी राक्षसी बन जाओगी|’
शाप सुनकर मैं भयभीत हो गई और लगी रोने-गिड़गिड़ाने| तब ऋषि बोले – ‘जब श्रीदत्त नामक ब्राह्मण कुमार किसी कारण तुम्हारे बालों को पकड़ेगा तो तुम्हारा शाप छूट जाएगा|’ इसी कारण मैं राक्षसी बनी थी| आज तुमने मेरे शाप का अंत कर दिया| मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूं| वर मांगो|”
उसके इन शब्दों से श्रीदत्त को कुछ चैन मिला, तब वह उस स्त्री से बोला – “इस समय मुझे किसी दूसरे वर की आवश्यकता नहीं है| तुमने निष्ठुरक को मार डाला है, अत: मुझे यही वर दो कि वह तुरंत जीवित हो जाए|”
“तथास्तु!” कहती हुई वह स्त्री वहीं पर अंतर्धान हो गई, उसके अंतर्धान होते ही अखंड शरीर वाला निष्ठुरक तुरंत जीवित हो गया|
श्रीदत्त ने उसे उसकी मृत्यु के विषय में कुछ भी नहीं बताया| प्रात: होने पर दोनों उज्जैन के लिए चल पड़े| वहां जाने पर पहले निष्ठुरक अपने मित्रों के निवास-स्थानों पर गया| उन्हें सकुशल लौटा देख मित्रों को बड़ी प्रसन्नता हुई, फिर उन्होंने श्रीदत्त से उसकी आपबीती सुनी|
इसके बाद बाहुशाली श्रीदत्त को अपने साथ अपने घर ले गया| उसके माता-पिता ने श्रीदत्त को अपने पुत्र के समान ही स्नेह और ममता दी| तब से श्रीदत्त उन्हीं के घर पर रहने लगा|
बसंत ऋतु आने पर बसंतोत्सव मनाया गया तो अपने मित्रों के साथ श्रीदत्त भी उत्सव देखने एक उपवन में गया| वहां राजा श्री बिंबिक की कन्या को देखते ही श्रीदत्त को ऐसा लगा, मानो बसंत ऋतु की शोभा स्त्री का रूप धारण कर उसके सामने आ गई हो| श्रीदत्त अपलक नेत्रों से उसे देखने लगा| स्वस्थ और सुदर्शन श्रीदत्त को देख राजकुमारी मृंगाकवती भी मुड़-मुड़कर उसे देखने लगी| इसी प्रकार उद्यान में घूमते समय एक बार मृंगाकवती एक वृक्ष की ओट में हो गई तो श्रीदत्त को दिशाभ्रम जैसा हो गया|
श्रीदत्त का मित्र बाहुशाली भी उसके साथ ही था| वह राजकुमारी और श्रीदत्त के व्यवहार का अर्थ समझ गया| श्रीदत्त उद्विग्न-सा हो गया था, क्योंकि राजकन्या वृक्ष की ओट में हो गई थी| इस पर बाहुशाली ने कहा – “मित्र! चिंता न करो| आओ, राजकुमारी को मैं तुम्हें दिखाता हूं|”
उसका हाथ पकड़कर बाहुशाली उसे राजकुमारी के सामने ले गया| दोनों वहां पहुंचे ही थे, तभी सुनाई दिया – “हाय-हाय! राजकन्या को सर्प ने डस लिया है|”
लोग इधर-उधर भागने लगे| श्रीदत्त की दशा ऐसी हो गई कि काटो तो खून नहीं| बाहुशाली ने बड़े धैर्य से काम लिया और उसने राजकुमारी की सेविका से कहा – “मेरे मित्र श्रीदत्त के पास सर्पविष नाशक अंगूठी है| वह विष दूर करने वाला मंत्र भी जानता है|”
कंचुकी ने प्रणाम करने के बाद श्रीदत्त से राजकुमारी के पास चलने का निवेदन किया तो वह राजकुमारी के पास गया| उसने पहले अंगूठी राजकुमारी को पहना दी और फिर मंत्रपाठ करने लगा| मृत राजकुमारी तुरंत जीवित हो गई|
राजकुमारी के जीवित होने पर सभी श्रीदत्त का आभार मानने लगे| सूचना मिलने पर राजा बिंबिक भी उस स्थान पर आ पहुंचा| राजा के आने पर लोग इधर-उधर हट गए| श्रीदत्त ने अंगूठी राजकुमारी के ही हाथ में रहने दी और स्वयं बाहुशाली के साथ उसके घर आ गया|
जब राजा को ज्ञात हुआ कि श्रीदत्त ने राजकुमारी का जीवन बचाया है तो उसने उसके लिए अनेक उपहार भेजे, जिन्हें उसने बाहुशाली के पिता को भेंट कर दिया|
इस घटना के बाद राजकुमारी के विरह में श्रीदत्त व्यथित रहने लगा| उसकी दशा निरंतर बिगड़ने लगी| ऐसा लगता था, मानो इसे कोई गंभीर रोग हो गया हो| उसकी इस दशा का कारण उसके मित्र नहीं जान सके|
कुछ दिन बाद राजकुमारी की सहेली भावनिका अंगूठी लौटाने श्रीदत्त के पास आई और विनम्र शब्दों में उससे बोली – “महोदय! मेरी सहेली को प्राणों का दान तो तुमने दे दिया, अब यदि उससे विवाह नहीं करोगे तो वह फिर काल के गाल में समा जाएगी, अत: उस पर दया करो|”
भावनिका के इन शब्दों को सुनकर श्रीदत्त को अपने प्रति राजकुमारी के अनुराग से प्रसन्नता हुई, परंतु उसकी दशा के विषय में सुनकर वह व्यथित भी हो गया|
भावनिका के साथ मिलकर श्रीदत्त और उसके मित्र भावी योजना पर विचार करने लगे| अन्य उपाय न देख सभी ने निर्णय लिया कि राजकुमारी का अपहरण कर लिया जाए और श्रीदत्त उज्जैन छोड़कर मथुरा में रहने लगे|
यह निश्चित हो जाने पर भावनिका प्रसन्नता के साथ लौट गई| दूसरे दिन व्यापार करने का बहाना बनाकर बाहुशाली आदि मथुरा को चले गए| मार्ग में वे श्रीदत्त और राजकुमारी के लिए व्यवस्था भी करते गए| यह सब कार्य पूरी सावधानी और गोपनीयता के साथ किया गया था|
निर्धारित योजनानुसार एक पागल महिला को उसकी पुत्री सहित राजकुमारी के भवन में भेज दिया गया| सायंकाल भावनिका उस भवन में दीप जलाने लगी तो वहां आग लग गई| राजकुमारी और भावनिका वहां से निकल गईं, जिसका किसी को पता भी न लगा|
बाहर श्रीदत्त उनकी प्रतीक्षा कर रहा था| उसने उन दोनों को अपने दो मित्रों के साथ बाहुशाली के पास भेज दिया|
उधर राजकुमारी के भवन में आग लगने से वह पागल स्त्री और उसकी पागल पुत्री जलकर मर गई| राजकुमारी के विषय में सभी चिंतित हो गए| राजकुमारी का कुछ भी पता न था| जब जलकर भस्म हुए भवन का मलबा देखा गया तो उसमें से दो जले हुए शव मिले| इससे सभी को विश्वास हो गया कि राजकुमारी और भावनिका जलकर मर गई हैं| श्रीदत्त अभी तक उज्जैन में ही था, अत: उस पर संदेह होने का प्रश्न ही नहीं उठता था|
घटना के तीसरे दिन अपना खड्ग लेकर अपनी प्रियतमा से मिलने के लिए श्रीदत्त भी मथुरा के लिए चल पड़ा| उसके पांवों में जैसे पंख लग गए थे| एक ही रात्रि में अत्यधिक लंबा मार्ग पार कर प्रात:काल वह विंध्याचल के घने वन में पहुंच गया|
उज्जैन से श्रीदत्त के प्रस्थान करते समय कुछ अशुभ शकुन हुए थे, जिन्हें उसने अनदेखा कर दिया था| वह आगे बढ़ता जा रहा था| कुछ दूर जाने पर उसकी सारी प्रसन्नता मिट्टी में मिल गई, क्योंकि वहां भावनिका तथा उसके दो मित्र घायल पड़े थे| वहां जाने पर उसे ज्ञात हुआ कि उन पर कुछ घुड़सवार सैनिकों ने आक्रमण कर दिया था| उन्हें घायल करने के बाद वे सैनिक मृंगाकवती को अपने साथ लेकर चले गए थे| अब एक पल का भी विलंब करना घातक हो सकता था, न मालूम वे राजकुमारी के साथ क्या व्यवहार करें, यह विचार करते ही श्रीदत्त ने अपना घोड़ा दौड़ा दिया| कुछ ही समय में उसने उस विशाल सेना को देख लिया| उसके बीच में उसका कोई अश्वरोही क्षत्रिय युवक सेनापति था|
राजकुमारी को उस युवक ने अपने साथ ही बैठाया था| क्रोधित होकर श्रीदत्त घोड़े को दौड़ाता हुआ तुरंत उनके समीप पहुंच गया|
श्रीदत्त जानता था कि वह युवक राजकुमारी को सहज ही मुक्त नहीं करेगा, अत: उसने एक पत्थर से निशाना लगाकर उस युवक को घोड़े से नीचे गिरा दिया| इसके तुरंत बाद उसे बचने का अवसर दिए बिना श्रीदत्त ने उसे मार डाला|
उसके सेना को कुछ सोचने-समझने का भी अवसर न मिला| जब तक सेना कुछ समझ पाती, उनका सेनापति परलोक सिधार गया था|
इसके बाद उस सेना ने श्रीदत्त पर आक्रमण कर दिया, किंतु जो भी सैनिक श्रीदत्त का सामना करने आया, उसके खड्ग के कारण उसे तत्काल नीचे गिरकर धूल चाटने के लिए विवश होना पड़ा| यह देख अन्य सैनिक भागने लगे| श्रीदत्त ने उन पर फिर आक्रमण किया, जिससे अनेक मारे गए और शेष भाग खड़े हुए|
राजकुमारी को लेकर श्रीदत्त अपने मित्रों के पास लौट पड़ा| मार्ग में घायल होने के कारण उनका घोड़ा भी मर गया| राजकुमारी अत्यधिक थक गई थी, अपितु यह कहना चाहिए कि उसकी दशा दयनीय जैसे हो गई थी, इसलिए उसे एक स्थान पर बैठाकर श्रीदत्त पानी लाने के लिए चल पड़ा|
आस-पास कहीं पानी न था| श्रीदत्त को आगे बढ़ते-बढ़ते संध्या हो गई| फिर पानी मिला तो वह रास्ता भटक गया| सारी रात वह इधर-उधर भटकता रहा| सवेरा होने पर वह उस स्थान पर पहुंचा, जहां उसका घोड़ा मरा हुआ था| वहां से उस स्थान पर गया, जहां राजकुमारी को छोड़ आया था, किंतु राजकुमारी वहां नहीं थी| अपना मृगांक खड्ग एक पेड़ के पास रखकर वह राजकुमारी को इधर-उधर देखने के लिए पेड़ पर चढ़ गया|
श्रीदत्त के पेड़ पर चढ़ते ही वहां एक भील आ गया| वृक्ष की जड़ में खड्ग रखा देख उसने उसे उठा लिया| यह देख श्रीदत्त नीचे उतरा और उससे राजकुमारी के विषय में पूछने लगा|
उसकी बातें सुनकर भील ने कहा – “पास ही मेरा गांव है, तुम वहां चले जाओ| हो सकता है, राजकुमारी वहां गई हो| कुछ देर में मैं भी वहां आऊंगा और तुम्हारे इस खड्ग को भी ले आऊंगा|”
भीलों के उस राजा ने दो-तीन आदमी श्रीदत्त के साथ भेज दिए| श्रीदत्त गांव में चला गया| वह भीलों के राजा के आने की प्रतीक्षा करने लगा| रात्रि होने पर वह सो गया| प्रात: जब वह जागा तो उसे घोर निराशा हुई| उसने देखा कि उसके पैर बेड़ियों में जकड़े हुए थे|
राजकुमारी मिलकर फिर खो गई थी, चमत्कारी खड्ग भी हाथ से चला गया था और अब पैरों में बेड़ियां पड़ गई थीं| श्रीदत्त ने इसे भाग्य का खेल समझा|
वह इसी उधेड़बुन में खोया था कि तभी मोचनिका नामक एक सेविका उसके पास आई और बोली – “भद्र पुरुष! तुम कहां मौत के मुंह में आ फंसे? भीलों का राजा किसी कार्य के लिए कहीं गया है| वहां से लौटने पर वह चंडिका को प्रसन्न करने के लिए तुम्हारी बलि दे देगा| उसने इसी उद्देश्य के लिए तुम्हें बड़ी चतुरता से यहां भेजा है| बलि-पशु होने के कारण ही अच्छे-अच्छे भोजन आदि से तुम्हारा स्वागत हो रहा है| यदि इससे छूटना चाहते हो तो एक उपाय बताती हूं|”
श्रीदत्त उसकी ओर ऐसे देखने लगा, जैसे पूछना चाहता हो – ‘तुम क्या कहना चाहती हो?’
वह दासी बोली – “इस भील की युवा कन्या तुम पर आसक्त हो गई है| तुम उससे विवाह कर लो| इससे तुम्हारे प्राण भी बच जाएंगे और उसका भी भला हो जाएगा|”
श्रीदत्त इस प्रस्ताव से सहमत हो गया| उसने भील-कन्या से गंधर्व विवाह कर लिया| दोनों पति-पत्नी बन गए| भील कन्या रात्रि में तो उसकी बेड़ियां उतार देती, किंतु प्रात: होने पर पुन: बेड़ियां डाल देती|
कुछ दिन बाद भील कन्या गर्भवती हो गई, यह देख उसकी माता को बड़ी चिंता हुई| उसने इस विषय में मोचनिका से पूछा तो उसने भील-कन्या और श्रीदत्त के गंधर्व विवाह की बात बता दी|
अपने दामाद की दशा देख भीलनी को बड़ा दुख हुआ| वह श्रीदत्त के पास जाकर कहने लगी – “पुत्र! मेरा पति चंड बड़ा निर्दयी है| जब उसे मेरी पुत्री सुंदरी और तुम्हारे इस गंधर्व विवाह का पता लगेगा तो वह क्रोधित हो जाएगा और तुम सदा यहीं बंदी बनकर रह जाओगे| इसके लिए यही उचित रहेगा कि तुम यहां से निकल भागो, किंतु मेरी पुत्री को कभी न भूलना|”
इतना कहने के बाद उस दयालु भीलनी ने श्रीदत्त के पैरों के बंधन खोल दिए| मुक्त होने पर श्रीदत्त ने अपनी पत्नी सुंदरी को अपने खड्ग के विषय में बता दिया और फिर मृंगाकवती की खोज में निकल पड़ा|
श्रीदत्त को वहां से निकलते समय अनेक शुभ शकुन दिखाई पड़े| वहां से वह फिर उसी स्थान पर पहुंचा, जहां उसके घोड़े ने प्राण त्यागे थे तथा जहां वह मृंगाकवती को छोड़कर गया था|
वहां पहुंचने पर उसे सामने से एक शिकारी आता दिखाई दिया| उसके निकट आने पर श्रीदत्त ने उससे भी मृंगाकवती के विषय में पूछा तो वह बोला – “क्या तुम ही श्रीदत्त हो?”
“हां-हां, मैं ही वह हतभागा हूं| क्या तुमने मृंगाकवती को देखा है?” अपनी प्रसन्नता पर नियंत्रण रखता हुआ श्रीदत्त बोला|
“बताता हूं मित्र! वह तुम्हारा नाम लेकर भटक रही थी| मैं उसके पास गया तो उसने मुझे अपनी व्यथा-कथा बताई| उसे मैंने अनेक प्रकार से ढाढ़स बंधाया और फिर उसे असहाय समझकर अपने गांव में ले गया|
मेरे गांव में भी भीलों का भय था, अत: सुरक्षा के लिए मैं उसे मथुरा मार्ग पर नागस्थल नामक स्थान पर ले गया| यह स्थान मथुरा के समीप ही है|
वहां एक वृद्ध ब्राह्मण शिवदत्त रहते हैं, जिनसे मेरी मित्रता है| मैंने वहीं धरोहर के समान मृंगाकवती को रखा है| उससे तुम्हारा नाम, परिचय आदि जानकर मैं यहां तुम्हारी खोज में आया हूं|”
शिकारी से मृंगाकवती का समस्त कुशल विवरण प्राप्त हो जाने पर श्रीदत्त को अपार प्रसन्नता हुई| फिर वह उससे मिलने के लिए नागस्थल की ओर चल पड़ा| दूसरे दिन सायंकाल तक वह नागस्थल पहुंच गया|
नागस्थल पहुंचकर श्रीदत्त ने सर्वप्रथम शिवदत्त ब्राह्मण के घर का पता ज्ञात किया| इसके बाद उसके घर जाकर उसने मृंगाकवती को लौटाने की प्रार्थना की| तब शिवदत्त ने बताया – “मथुरा में मेरा एक मित्र है, जो बड़ा ही विद्वान तथा गुणीजनों का आदर करने वाला ब्राह्मण है| वह राजा शूरसेन का मंत्री भी है| तुम्हारी पत्नी मृंगाकवती को मैंने उसी के संरक्षण में रखा है, क्योंकि यह स्थान एकाकी होने से मैंने उसे यहां रखना असुरक्षित समझा| अब इस समय रात्रि हो गई है, अत: अभी यहीं आराम करो, सुबह चले जाना|”
इसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं, यह समझकर उस रात्रि वह शिवदत्त के घर रहा| प्रात: होते ही वह मथुरा के लिए प्रस्थान कर गया और कुछ ही देर में मथुरा पहुंच गया| दो दिन के थके-हारे श्रीदत्त को नगर की सीमा पर एक बावड़ी दिखाई दी तो वह स्वयं को नहाने से न रोक सका|
वह नहाने के लिए बावड़ी में घुसा तो उसे वहां चोरों द्वारा छिपाए हुए कुछ कपड़े दिखाई दिए| उन वस्त्रों के बीच में एक मूल्यवान हार भी था, जो उसे नहीं दिखाई दिया| उन कपड़ों को लेकर मृंगाकवती को खोजने के लिए वह मथुरा नगर में प्रविष्ट हुआ|
तभी नगर के रक्षकों ने उसे देख लिया| उसके पास से उन्हें चोरी के वस्त्र तथा उनमें बंधा हार प्राप्त हो गया, अत: वे श्रीदत्त को पकड़कर नगर के अधिपति के पास ले गए|
नगर के अधिपति ने उसे राजदरबार में भेज दिया| स्वयं को निरपराध सिद्ध करने में असमर्थ रहने पर राजा ने श्रीदत्त को मृत्युदंड दे दिया|
राजसैनिक घोषणा करते हुए श्रीदत्त को वधस्थल की ओर ले जा रहे थे कि तभी मृंगाकवती ने उसे देख लिया| वह तुरंत अपने आश्रयदाता के पास गई और उसने कहा – “मेरे पति को मृत्युदंड दे दिया गया है| जल्लाद उसे वधस्थल की ओर ले जा रहे हैं|”
उसका आश्रयदाता राजा का प्रधानमंत्री था| यह सुनते ही उसने मृत्युदंड स्थगित करा दिया, फिर वह राजा के पास गया और उसने मृत्युदंड रद्द करा दिया, क्योंकि मृंगाकवती ने बल देकर कहा कि उसका पति ऐसा दुष्कृत्य नहीं कर सकता| कहीं कोई त्रुटि हो गई है|
इसके बाद उस मंत्री ने श्रीदत्त को बंधन से मुक्त करवाया और अपने घर बुला लिया|
शूरसेन का वह मंत्री अन्य कोई नहीं, श्रीदत्त का चाचा विगतभय ही निकला, जो पत्नी की मृत्यु के बाद घर छोड़कर आ गया था| संयोग से वह मथुरा के राजा का मंत्री बन गया| चाचा के सामने देख श्रीदत्त उनके चरणों में झुक गया|
विगतभय ने उसे नहीं पहचाना था| जब श्रीदत्त ने उसे अपना परिचय दिया तो उसे अपार प्रसन्नता हुई| उसके पूछने पर श्रीदत्त ने आरंभ से अंत तक सब कुछ बता दिया|
बड़े भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर विगतभय को भारी दुख हुआ, फिर भी उसने श्रीदत्त से कहा – “चिंता न करो| मुझे यक्षिणी सिद्ध है| उसने मुझे पांच हजार घोड़े और सात करोड़ सोने की मुद्राएं दी हैं| मेरा भी तुम्हारे सिवाय और कौन है! यह सब तुम्हारा ही तो है|”
बिना कुछ किए ही श्रीदत्त को इतनी बड़ी संपत्ति मिल गई| विगतभय ने मृंगाकवती से उसका विधिपूर्वक विवाह कराया| इसके बाद श्रीदत्त आनंदपूर्वक वहीं रहने लगा|
सब कुछ व्यवस्थित हो जाने पर भी श्रीदत्त अपने मित्र बाहुशाली के लिए सदा चिंतित रहता था|
कुछ दिन बाद विगतभय ने श्रीदत्त से कहा – “बेटे! राजा शूरसेन की पुत्री का विवाह उज्जैन के राजकुमार के साथ तय हुआ है| विवाह के लिए राजकुमारी को उज्जैन ले जाया जा रहा है| महाराज इस कार्य के लिए वहां जाने में असमर्थ हैं, अत: उन्होंने यह कार्य मुझे सौंपा है, किंतु राजकुमारी इस प्रकार के विवाह के सर्वथा विरुद्ध हैं और मैं भी राजकुमारी के पक्ष में हूं| मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए| तुम्हारे आ जाने से मुझे एक विचार आया है कि राजकुमारी का अपहरण कर उसका विवाह तुम्हारे साथ कर दें| मेरे पांच हजार अश्वारोही सैनिक तुम्हारे अधीन हैं ही, राजा की सेना भी मेरे ही अधीन रहेगी| इस प्रकार तुम बिना कोई संघर्ष किए ही सफलता प्राप्त कर लोगे|”
योजना बन जाने पर निश्चित दिन चाचा विगतभय और भतीजा श्रीदत्त दल-बल सहित चल पड़े| दुर्भाग्य से जब वे विंध्य के वन में पहुंचे तो उन पर डाकुओं ने हमला कर दिया और बाणों की वर्षा करने लगे|
श्रीदत्त के अनेक सैनिक घायल हुए और कुछ मार डाले गए| घायल श्रीदत्त बंदी बना लिया गया| डाकू उसके हाथ-पैर बांधकर उसे अपने गांव में ले गए| वहां उन्होंने उसे चंडी के मंदिर में पहुंचा दिया| ये डाकू भील ही थे| जब मंदिर में उसकी बलि देने की सभी तैयारियां हो रही थी तो भील राजा की पुत्री, जो श्रीदत्त की पत्नी थी, वहां आई| अपने पिता की मृत्यु के बाद कोई भाई न होने के कारण वही राज्य की स्वामिनी थी| श्रीदत्त को बलि के लिए बांधा हुआ देखा तो उसने तुरंत उसके बंधन खुलवा दिए|
पति को पाकर वह अत्यंत प्रसन्न हुई और उसे लेकर अपने घर पहुंची| इस प्रकार बिना कोई प्रयत्न किए ही श्रीदत्त को अपनी भील-पत्नी का राज्य प्राप्त हो गया|
वहीं श्रीदत्त ने राजा शूरसेन की पुत्री से भी विवाह किया और वहां राज्य करने लगा| तब उसने उज्जैन तथा मथुरा के राजाओं के पास दूत भेजे कि उसने दोनों की पुत्रियों से विवाह कर लिया है|
संतान अंतत: संतान ही होती है| अपनी पुत्रियों के विवाह का समाचार सुनकर दोनों राजा अनेकानेक प्रकार के उपहार लेकर श्रीदत्त की राजधानी पहुंचे|
इसके बाद उन दोनों की सेनाओं को लेकर श्रीदत्त ने अपने पिता के हत्यारे विक्रमशक्ति पर आक्रमण कर दिया| भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें विक्रमशक्ति को मारकर श्रीदत्त ने अपने पिता को मृत्यु का बदला चुका लिया|
थोड़े ही समय में श्रीदत्त ने भूमंडल का अधिकांश भाग अपने अधिकार में कर लिया| वह पृथ्वीपति बन गया| उसने मृंगाकवती को अपनी महारानी बनाया और राजसुख का उपभोग करने लगा|
किसी के द्वारा सच ही कहा गया है – ‘धैर्यशाली पुरुष इसी प्रकार वियोग के कष्टों का सामना करते हुए अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त कर ही लेते हैं|’