पहले अपने को पहचानो
एक दिन दस लड़के यात्रा पर रवाना हुए| उन्होंने तय कर लिया कि अमुक स्थान पर उन्हें पहुंचना है| सब अपने-अपने हिसाब से चलने लगे| कोई तेज चलता तो कोई धीरे| सब अलग-अलग हो गए|
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शाम को सबों के मंजिल पर पहुंचने पर उन्होंने आपस में सलाह की कि पूरी टोली को गिल लेना चाहिए| कहीं कोई रास्ते में तो नहीं रह गया|
एक लड़के ने सबको कतार में खड़ा कर दिया और लगा गिनने| एक, दो, तीन, चार, पांच, छ:, सात, आठ, नौ| उसने कहा – “हम नौ हैं| दसवां कहीं रह गया|”
दूसरा बोला – “ठहरो, मैं गिनता हूं| तुमसे भूल हो सकती है|”
उसने गिना, वही नौ|
अब क्या हो! उनका एक साथी कहीं गुम हो गया| सब परेशान होकर एक-दूसरे का मुंह देखने लगे|
तभी एक आदमी उधर से गुजरा| उन्हें परेशान देखकर उसने पूछा – “क्या बात है?”
उन सबने अपनी हैरानी बता दी कि हम घर से दस चले थे अब नौ रह गए हैं|
उस आदमी ने उन पर एक निगाह डाली| बोला – “लो तुम्हारे खोए साथी को मिलाए देता हूं|”
उसने सबको पंक्ति में खड़ा करके गिनना आरंभ किया| वे पूरे दस निकले|
सारे लड़के बड़े खुश हुए| उन्होंने उस आदमी का आभार मानते हुए पूछा – “भाई तुमने दसवां साथी कैसे मिला दिया|”
उस आदमी ने कहा – “भले आदमियों, तुममें से जो गिनता था, वह अपने को गिनना छोड़ देता था| इसी से हिसाब गलत हो जाता था|”
उसका कहना सही था, हम अपने को भूल जाते हैं| इसी से दुनिया अधूरी दिखती है| इसी लिए वेदांत का कथन है कि पहले अपने को पहचानो फिर दुनिया को|