पसीने की कमाई का आनंद
रैदास नाम के एक बड़े भगवद्भक्त थे| वे काशी में रहते थे| गंगा के घाट के पास ही उनकी झोंपड़ी थी, जिसमें वे अपनी पत्नी के साथ रहते थे और झोंपड़ी के बाहर बैठकर जूते गांठते रहते थे|
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अपनी मेहनत-मजदूरी से उन्हें जो मिल जाता वे उसी में संतोष करते और मस्ती का जीवन बिताते| काम से समय मिलता तो सत्संग में चले जाते| कमाई बड़ी कम थी, पर उसकी उन्हें चिंता न थी| उनकी स्त्री बड़ी भली थी| पति को जो भी मिलता, उसी में खुशी-खुशी गुजर-बसर कर लेती थी|
एक दिन एक साधु रैदास के पास आया| उनकी दीनदशा देखकर उसने अपनी झोली में से एक पत्थर निकालकर बोला – “रैदास लो, यह पारस पत्थर है| लोहे को सोना बना देता है|”
इतना कहकर साधु ने लोहे का एक टुकड़ा लिया और सोना बनाकर दिखा दिया|
रैदास ने कहा – “महाराज, आप अपनी इस नियामत को अपने पास ही रहने दीजिए| मुझे नहीं चाहिए| मैं किसी की दी हुई मदद नहीं लेता| अपनी मेहनत से जितना काम लेता हूं, उसी में अपनी घर-गृहस्थी चला लेता हूं|”
साधु ने बड़ी ममता से कहा – “रैदास, आदमी को अच्छी तरह से रहना चाहिए| देखो तो तुम्हारी कुटिया की क्या हालत हो रही है!”
रैदास बोले – “स्वामीजी हमें अपनी इस जिंदगी से बड़ा सुख-संतोष है| पसीने की कमाई का अपना ही आनंद होता है| वही असली बात है|”
साधु ने बहुत आग्रह किया, पर रैदास नहीं माने| उन्होंने कहा – “स्वामीजी आपको यह पारस किसी को देना ही हो तो राजा को दीजिए| वह बड़ा गरीब है| उसे हर घड़ी रुपए की जरूरत रहती है| या फिर दीजिए गरीब मन वाले उस धनी को, जो रात-दिन पैसे के पीछे पड़ा रहता है|”
रैदास ने आगे और बात नहीं की| वह जूते गांठने में लग गए| बेचारा साधु अपना-सा मुंह लेकर चला गया|