पेड़ लगाए नाना ने और फल खाए नाती-पोतों ने
बाबू प्रेमनाथ रेलवे के बड़े अधिकारी थे। रेलवे की ओर से उन्हें एक आलीशान बंगला भी मिला हुआ था। बाबू प्रेमनाथ ने वहां कुछ पौधे लगाए। उन्हें बागवानी का शौक था, इसलिए जब भी समय मिलता वे पेड़-पौधों की देखरेख में लग जाते।
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इस तरह उन्होंने वहां एक छोटा-सा बगीचा बना लिया, जिसमें आम, अनार, पपीता आदि के पेड़ लगे थे। कुछ समय बाद बाबू प्रेमनाथ का अन्यत्र स्थानांतरण हो गया। उन्हें जाने में अभी दो सप्ताह शेष थे। ऐसे में जब वे नए पौधे लगा रहे थे, तो उनकी बड़ी बेटी मनु वहां आकर बोली- पिताजी! पहले तो आप अपने बच्चों के लिए पौधे लगाते थे, पर अब किसके लिए लगा रहे हैं? बाबू प्रेमनाथ ने मुस्कराकर कहा- बेटी! इन पर लगने वाले फलों को कोई और खाकर तृप्ति पाएगा। सदा स्वार्थ और फल की इच्छा से ही कोई काम नहीं करना चाहिए।
नि:स्वार्थ काम भी निष्फल नहीं होते। दो सप्ताह बाद बाबू प्रेमनाथ वहां से चले गए। इस बात को बीते कई वर्ष हो गए। इसी बीच मनु का विवाह भी एक रेलवे अधिकारी से हो गया। वह दो बच्चों की मां बन गई। संयोग से मनु के पति की नियुक्ति उसी स्थान पर हुई और वही बंगला उन्हें मिला। एक दिन बाबू प्रेमनाथ का अपनी बेटी के घर आना हुआ तो देखा कि मनु के बच्चे आम खा रहे हैं। वे बोले- बेटी! इस साल आम तो अब तक आए ही नहीं, फिर तुम लोगों को कहां से मिले? मनु उन्हें बगीचे में ले गई और कहा- ये आपके द्वारा लगाए गए पेड़ों के ही फल हैं।
सार यह है कि फल या परिणाम के विषय में सोचे बगैर किया गया सद्कार्य कभी व्यर्थ नहीं जाता, बल्कि उसका फल कई गुना होकर पुन: मिलता है।