निन्यानवे का चक्कर
प्राचीनकाल की बात है | असम के ग्रामीण इलाके में तीरथ नाम का कुम्हार रहता था | वह जितना कमाता था, उससे उसका घर खर्च आसानी से चल जाता था | उसे अधिक धन की चाह नहीं थी | वह सोचता था कि उसे अधिक कमा कर क्या करना है | दोनों वक्त वह पेट भर खाता था, उसी से संतुष्ट था |
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वह दिन भर में ढेरों में बर्तन बनाता, जिन पर उसकी लागत सात-आठ रुपये आती थी | अगले दिन वह उन बर्तनों को बाजार में बेच आता था | जिस पर उसे डेढ़ या दो रुपये बचते थे | इतनी कमाई से ही उसकी रोटी का गुजारा हो जाता था, इस कारण वह मस्त रहता था |
रोज शाम को तीरथ अपनी बांसुरी लेकर बैठ जाता और घंटों से बजाता रहता | इसी तरह दिन बीतते जा रहे थे | धीरे-धीरे एक दिन आया कि उसका विवाह भी हो गया | उसकी पत्नी का नाम कल्याणी था |
कल्याणी एक अत्यंत सुघड़ और सुशील लड़की थी | वह पति के साथ पति के काम में खूब हाथ बंटाने लगी | वह घर का काम भी खूब मन लगाकर करती थी | अब तीरथ की कमाई पहले से बढ़ गई | इस कारण दो लोगों का खर्च आसानी से चल जाता था |
तीरथ और कल्याणी के पड़ोसी यह देखकर जलते थे कि वे दोनों इतने खुश रहते थे | दोनों दिन भर मिलकर काम करते थे | तीरथ पहले की तरह शाम को बांसुरी बजाता रहता था | कल्याणी घर के भीतर बैठी कुछ गाती गुनगुनाती रहती थी |
एक दिन कल्याणी तीरथ से बोली कि तुम जितना भी कमाते हो वह रोज खर्च हो जाता है | हमें अपनी कमाई से कुछ न कुछ बचाना अवश्य है |
इस पर तीरथ बोला – “हमें ज्यादा कमा कर क्या करना है ? ईश्वर ने हमें इतना कुछ दिया है, मैं इसी से संतुष्ट हूं | चाहे छोटी ही सही, हमारा अपना घर है | दोनों वक्त हम पेट भर कर खाते हैं, और हमें क्या चाहिए ?”
इस पर कल्याणी बोली – “मैं जानती हूं कि ईश्वर का दिया हमारे पास सब कुछ है और मैं इसमें खूब खुश भी हूं | परन्तु आड़े वक्त के लिए भी हमें कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहिए |”
तीरथ को कल्याणी की बात ठीक लगी और दोनों पहले से अधिक मेहनत करने लगे | कल्याणी सुबह 4 बजे उठकर काम में लग जाती | तीरथ भी रात देर तक काम करता रहता | लेकिन फिर भी दोनों अधिक बचत न कर पाते | अत: दोनों ने फैसला किया कि इस तरह अपना सुख-चैन खोना उचित नहीं है और वे पहले की तरह मस्त रहने लगे |
एक दिन तीरथ बर्तन बेचकर बाजार से घर लौट रहा था | शाम ढल चुकी थी | वह थके पैरों खेतों से गुजर रहा था कि अचानक उसकी निगाह एक लाल मखमली थैली पर गई | उसने उसे उठाकर देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा | थैली में चांदी के सिक्के भरे थे |
तीरथ ने सोचा कि यह थैली जरूर किसी की गिर गई है, जिसकी थैली हो उसी को दे देनी चाहिए | उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई | दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दिया | उसने ईश्वर का दिया इनाम समझकर उस थैली को उठा लिया और घर ले आया |
घर आकर तीरथ ने सारा किस्सा कल्याणी को कह सुनाया | कल्याणी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया |
तीरथ बोला – “तुम कहती थीं कि हमें आड़े समय के लिए कुछ बचाकर रखना चाहिए | सो ईश्वर ने ऐसे आड़े समय के लिए हमें उपहार दिया है |”
“ऐसा ही लगता है |” कल्याणी बोली – “हमें गिनकर देखना चाहिए कि ये चांदी के रुपये कितने हैं |”
दोनों बैठकर रुपये गिनने लगे | पूरे निन्यानवे रुपये थे | दोनों खुश होकर विचार-विमर्श करने लगे | कल्याणी बोली – “इन्हें हमें आड़े समय के लिए उठा कर रख दिन चाहिए, फिर कल को हमारा परिवार बढ़ेगा तो खर्चे भी बढ़ेंगे |”
तीरथ बोला – “पर निन्यानवे की गिनती गलत है, हमें सौ पूरा करना होगा, फिर हम इन्हें बचा कर रखेंगे |”
कल्याणी ने हां में हां मिलाई | दोनों जानते थे कि चांदी के निन्यानवे रुपये को सौ रुपये करना बहुत कठिन काम है, परंतु फिर भी दोनों ने दृढ़ निश्चय किया कि इसे पूरा करके ही रहेंगे | अब तीरथ और कल्याणी ने दुगुनी-चौगुनी मेहनत से काम करना शुरू कर दिया | तीरथ भी बर्तन बेचने सुबह ही निकल जाता, फिर देर रात तक घर लौटता |
इस तरह दोनों लोग थक कर चूर हो जाते थे | अब तीरथ थका होने के कारण बांसुरी नहीं बजाता था, न ही कल्याणी खुशी के गीत गाती गुनगुनाती थी | उसे गुनगुनाने की फुरसत ही नहीं थी| न ही वह अड़ोस-पड़ोस या मोहल्ले में कहीं जा पाती थी |
दिन-रात एक करके दोनों लोग एक-एक पैसा जोड़ रहे थे | इसके लिए उन्होंने दो वक्त के स्थान पर एक भक्त भोजन करना शुरू कर दिया, लेकिन चांदी के सौ रुपये पूरे नहीं हो रहे थे |
यूं ही तीन महीने बीत गए | तीरथ के पड़ोसी खुसर-फुसर करने लगे कि इनके यहां जरूर कोई परेशानी है, जिसकी वजह से ये दिन-रात काम करते हैं और थके-थके रहते हैं |
किसी तरह छ: महीने बीतने पर उन्होंने सौ रुपये पूरे कर लिए | अब तक तीरथ और कल्याणी को पैसे जोड़ने का लालच पड़ चुका था | दोनों सोचने लगे कि एक सौ से क्या भला होगा | हमें सौ और जोड़ने चाहिए | अगर सौ रुपये और जुड़ गए तो हम कोई व्यापार शुरू कर देंगे और फिर हमारे दिन सुख से बीतेंगे |
उन्होंने आगे भी उसी तरह मेहनत जारी रखी | इधर, पड़ोसियों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी | एक दिन पड़ोस की रम्मो ने फैसला किया कि वह कल्याणी की परेशानी का कारण जानकर ही रहेगी | वह दोपहर को कल्याणी के घर जा पहुंची | कल्याणी बर्तन बनाने में व्यस्त थी |
रम्मो ने इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् कल्याणी से पूछ ही लिया – “बहन ! पहले जो तुम रोज शाम को मधुर गीत गुनगुनाती थीं, आजकल तुम्हारा गीत सुनाई नहीं देता |”
कल्याणी ने ‘यूं ही’ कहकर बात टालने की कोशिश की और अपने काम में लगी रही | परंतु रम्मो कब मानने वाली थी | वह बात को घुमाकर बोली – “आजकल बहुत थक जाती हो न ? कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर दूं |”
कल्याणी थकी तो थी ही, प्यार भरे शब्द सुनकर पिघल गई और बोली – “हां बहन, मैं सचमुच बहुत थक जाती हूं, पर क्या करूं हम बड़ी मुश्किल से सौ पूरे कर पाए हैं |”
“क्या मतलब ?” रम्मो बोली तो कल्याणी ने पूरा किस्सा कह सुनाया | रम्मो बोली – “बहन, तुम दोनों तो गजब के चक्कर में पड़ गए हो, तुम्हें इस चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए था | यह चक्कर आदमी को कहीं का नहीं छोड़ता |”
कल्याणी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा – “तुम किस चक्कर की बात कर रही हो ? मैं कुछ समझी नहीं |”
“अरी बहन, निन्यानवे का चक्कर |” रम्मो का जवाब था |