मित्र की परख

एक था सिंह, जो जंगल का राजा था| वह खूब लम्बा- चौड़ा और बलवान था| वह बहुत रोबीला था और भयानक भी|

“मित्र की परख” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio

सभी जानवर उसके लिए जंगल के कोने-कोने से नित्य नई भेंट लाते थे| पर सिंह को जितना मिलाता वह उससे भी ज्यादा पाना चाहता था|

एक दिन उसने सोचा, ‘राजा के दरबारी होने चाहिए| बिना दरबारियों के राजा कैसा?’ यह सोचकर सिंह ने लोमड़ी को अपने पास बुलाया|

उसने लोमड़ी से कहा, “लोमड़ी, तुम बुद्धिमान और चतुर हो| मैं तुमको अपना सलाहकार बनाना चाहता हूं|”

लोमड़ी ने सिर झुकाकर कहा, “जैसी आज्ञा, महाराज|”

इसके बाद सिंह ने चीते को बुलाया|

सिंह ने उससे कहा, “कहते हैं कि तुम चौकन्ने और तेज भागने वाले हो| मैं तुम्हें अपना अंगरक्षक बनाना चाहता हूं|”

चीते ने भी झुककर कहा, “धन्यवाद, महाराज!”

अब सिंह ने कौवे को बुलाया और कहा, “तुम खूब ऊँची उड़ान भर सकते हो| तुम मेरे दूत बनोगे|”

कौवे ने भी सिर झुकाकर कहा, “जो आज्ञा, महाराज!”

लोमड़ी, चीते और कौवे ने शपथ ली कि वे हमेशा स्वामिभक्त रहेंगे|

राजा ने भी वचन दिया कि वह उन्हें खाना देगा और उनकी रक्षा करेगा|

सबके दिन आराम से कटने लगे| तीनों दरबारी कभी भी राजा का विरोध नहीं करते थे| उसकी हर एक इच्छा उनके लिए कानूनी थी| सिंह दहाड़ता तो वे तीनों सहमकर खड़े हो जाते| वह कभी भी जाता तो तीनों उसके पीछे-पीछे चलते|

जब सिंहराज शिकार के लिए जाता तो वे उसके लिए जानवर ढूंढ़ते| जब सिंह खा चुकता तो बचा-खुचा अपने दरबारियों के लिए छोड़ देता| इसलिए उन्हें खाने की कमी कभी न होती| सब प्रसन्न थे|

एक दिन कौवे ने सिंहराज से पूछा, “महाराज, क्या आपने ऊंट का मांस चखा है? बड़ा मजेदार होता है| एक बार मैंने रेगिस्तान में ऊंट का मांस खाया था|”

सिंह ने कभी ऊंट देखा भी नहीं था| पर ऊंट का मांस चखने का विचार उसे बहुत अच्छा लगा| उसने पूछा, “पर ऊंट मिलेगा कहां?”

कौवे ने कहा, “यहां से कुछ मिल दूर एक रेगिस्तान है| मैं वहां का चक्कर लगाकर आ रहा हूं| वहां मैंने एक मोटे ताजे ऊंट को देखा है| वह अकेला है|”

सिंह ने अपने दूसरे सलाहकारों की ओर देखा| वे लोग चतुर और अनुभवी थे| उसने उनकी राय पूछी|लोमड़ी और चीते को तो रेगिस्तान का पता नहीं था| पर वे यह भी नहीं चाहते थे कि कौवा ज्यादा होशियार समझा जाए| उन्होंने कहा, “विचार अच्छा है, महाराज! कौवा आगे-आगे उड़कर रास्ता दिखाता चले|”

दूसरे दिन सवेरे सिंहराज और उसके दरबारी ऊंट के शिकार को चल पड़े| रेगिस्तान के पास तक तो वे आसानी से पहुंच गये| पर जंगल की हरियाली खत्म होने के बाद धूप बहुत तेज हो गई| सूरज आग बरसा रहा था|

ऊपर हवा में कौवा उड़ता जा रहा था| उसने पुकारकर कहा, “जल्दी चलो, ऊंट बहुत दूर नहीं है|”

पर सिंह के लिए अब एक कदम भी चलना मुश्किल था| जलती हुई बालू से उसके तलवे झुलस गये थे|

उसने दरबारियों से गरजकर कहा, “रुक जाओ| हम जंगल वापस जायेंगे| मुझे ऊंट का मांस नहीं खाना है|”

सिंहराज के दरबारी डर गये| जंगल तो बहुत पीछे छुट गया था| उनकी समझ में नहीं आया कि थके-मांदे शेर को अब जंगल वापस कैसे ले जायें|

चिता भाग जाना चाहता था|

कौवे ने सोचा कि देखें अब क्या होता है?

पर चालाक लोमड़ी ने एक चाल सोची| “मैं अभी किसी को मदद के लिए बुलाती हूं|” यह कहती हुई वह रेगिस्तान की ओर भाग गई| कुछ देर बाद लोमड़ी ने ऊंट को देख लिया| ऊंट रेगिस्तान में लोमड़ी को देखकर चकित हुआ|

लोमड़ी ने ऊंट से कहा, “जल्दी चलो दोस्त! हमारे महाराज तुम्हें बुला रहे हैं|”

ऊंट ने कहा, “कौन है तुम्हारे महाराज? मैं किसी राजा-महाराज को नहीं जानता| मैं  तो सिर्फ अपने मालिक को जानता हूं जिसके लिए बोझा लादकर इस रेगिस्तान के पार ले जाता हूं|”

लोमड़ी ने कहा, “हमारे राजा सिंह ने तुम्हारे मालिक को मार डाला है| अब तुम आजाद हो| सिंह ने तुम्हें दरबार में रहने के लिए बुलाया है| चलो मेरे साथ|”|

ऊंट लोमड़ी के पीछे-पीछे चल दिया|

लोमड़ी के साथ ऊंट को देखकर कौवा और चिता दंग रह गये| पर सिंह बहुत खुश हुआ और अपने तलवों की जलन को भी भूल गया|

ऊंट को सिंह के सामने लाया गया और लोमड़ी ने सारी बात दोहराई| ऊंट इस बात पर राजी हो गया कि राजा उसे दरबार में जगह दे तो बदले में वह उसकी सेवा करेगा|

लोमड़ी ने सिंह से कहा, “ऊंट की पीठ पर बैठ जाइये, महाराज| हम लोग घर वापस चलेंगे|”

सिंह कूदकर ऊंट की पीठ पर जा बैठा| उसके दरबारी लोमड़ी और चिता भी उसके पीछे बैठ गये| आगे-आगे कौवा रास्ता दीखता चल रहा था| इस तरह जंगल की ओर उनकी यात्रा शुरू हुई|

लम्बी यात्रा के बाद जंगल पहुंचते-पहुंचते सभी थक गये थे| सभी को जोर को भूख लगी थी|

लोमड़ी, कौवे और चीते ने ऊंट की ओर देखा| फिर एक -दूसरे की ओर देखकर मुस्कुराने लगे| वे अपने राजा के भोजन के लिए ऊंट को पकड़ लाये थे| अब तो दावत उड़ेगी ही|

सिंह ने दरबारियों के मन की बात ताड़ ली| उसने ऊंट को अपने पास बुलाया और कहा, “दोस्त ऊंट, तुमने मेरी जान बचाई है| मै कृतज्ञ हूं| तुम जब तक चाहो मेरी दरबार में रह सकते हो| मै तुम्हारी रक्षा करने का वचन देता हूं|”

यह सुनकर दरबारियों को बहुत बुरा लगा| उन्होंने राजा को ऊंट का मांस चखाने के लिए अपनी जान खतरे में डाली थी| और अब सिंह ऊंट को जिन्दा छोड़ देना चाहता है|

दरबारियों को यह जरा भी अच्छा नहीं लगा| पर करते क्या? आखिर राजा तो राजा ही था|

सिंह के तलवे इस बुरी तरह झुलस गये थे कि शिकार के लिए नहीं जा सकता था| पर उसकी भूख बढ़ती ही जा रही थी|

वह चिल्लाकर बोला, “लोमड़ी! कौवे! चीते! क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता कि मैं परेशान हूं और भूख से मारा जा रहा हूं| जाओ, मेरे लिए खाना लाओ|”

दरबारियों को तो राजा की आज्ञा का पालन करना ही था| वे बाहर तो निकले पर बहुत दूर नहीं गये| एक जगह बैठकर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए|

लोमड़ी ने कहा, “मैंने सोच लिया है| हम लोग ऐसी चाल चलेंगे कि ऊंट अपने आप सिंह के पास जाकर स्वयं को खाने के लिए कहे|” लोमड़ी ने उन लोगो को अपनी चाल बताई| सब राजी हो गये| तीनों राजा के पास वापस गये|

पहले कौवा आगे बढ़ा और खूब झुककर बोला, “महाराज, हमें कोई शिकार नहीं मिला| पर हमारे रहते हुए आप कष्ट नहीं उठा सकते| मैं छोटा-सा गरीब जीव हूं| मुझे ही खा लीजिए और अपनी भूख मिटाइये|”

लोमड़ी ने कौवे को धकेल दिया और बोली, “नहीं महारज, मुझे खाइये|”

अब चिता लपककर सामने आया और बोला, “महाराज, मैं लोमड़ी से बड़ा हूं|”

ऊंट ने उन सबकी बातें सुनीं| उसने सोचा कि उसे भी वैसा ही करना चाहिए| उसने कहा, “महाराज, आपकी जान बचाने के लिए मै भी अपनी जान दे सकता हूं| ये लोग आपके पुराने मित्र हैं| आपके ज्यादा काम आयेंगे| मुझे ही खा लीजिये|”

लोमड़ी, कौवा और चिता ततो तैयार ही थे| ऊंट के यह कहते ही तीनों उसकी ओर झपटे|

सिंह ने उन्हें रोककर कहा, “तुम सब मेरे अच्छे और स्वामिभक्त सेवक हो| मै किसी का दिल नहीं दुखना चाहता हूं| मैं सबकी बात मानूंगा| जिस सिलसिले में तुम लोगों ने अपने को भेंट किया है उसी सिलसिले से मैं एक-एक करके खाना शुरू करूंगा|”

यह सुनकर कौवा, लोमड़ी और चिता सन्न रह गए| भला वह ऐसा कब चाहते थे? कौवा फौरन उड़ गया| लोमड़ी और चिता भी भाग निकले|

रह गया केवल ऊंट| उनको भागते देख सिंह जोर-जोर से हँसा| उसने ऊंट से कहा, “तुम नेक और स्वामिभक्त हो| जब तक हम जिन्दा है, हम और तुम मित्र बने रहेंगे|”

ऊंट बहुत खुश हुआ| सिंह ने सोचा, ‘राजा होना तो बहुत बड़ी बात है, पर दयालु होना उससे भी बड़ी बात है|’

श्रम का