मज़बूरी
भारतीय राजनीति में लिबरल (उदार) के रुप में सुप्रसिद्ध श्रीनिवास शास्त्री उन दिनों मद्रास विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे| वह न केवल नाम से उदार थे, व्यवहार में भी उनकी उदारता देखते ही बनती थी|
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विश्वविद्यालय के प्राध्यापक अनुशासनहीनता या किसी भूल के कारण किसी छात्र को जब कोई दंड देते, तब छात्र उपकुलपति के पास पहुँचते और भविष्य में भूल न करने का वचन देकर अपना दंड या जुर्माना माफ करवा लेते थे| उपकुलपति की इस उदारता से विश्वविधालय के अध्यापक तंग आ गए| एक दिन से शिष्टमंडल के रूप में उपकुलपति के पास पहुँचे और शास्त्री जी से बोले- “आपकी इस उदारता से संस्था में अनुशासनहीनता बढ़ रही है| छात्र आपकी बात को छोड़कर दूसरे किसी की बात सुनते ही नहीं हैं|” शास्त्री जी ने सारी बात सुनी| सुनकर बोले- “आप लोग बात तो ठीक कहते हैं, परंतु मेरी भी मजबूरी है|” प्राध्यापक बोल उठे- “कैसी मजबूरी?”
कुछ समय चुप रहकर श्रीनिवास जी बोले- “मैं अपना बचपन नहीं भूल सकता| मेरे पिता स्वर्गवासी हो गए थे| घर में विधवा माँ अकेली थी| घर में घोर दरिद्रता थी| उन दिनों स्कूल की फीस कम होती थी, परंतु मेरी माँ मेरी पढ़ाई की फीस भी बड़ी कठिनाई से जुटा पाती थी| वह मेरे लिए नए कपड़े भी नहीं सिलवा सकती थी| एक दिन घर में बिल्कुल पैसे नहीं थे| पैसे न होने से साबुन न खरीदा जा सका| मुझे लाचार होकर मैले कपड़ो में ही विद्यालय जान पड़ा| मैं मैले कपड़ों की शर्म के कारण एक कोने में दुबका बैठा था| शिक्षक ने कक्षा में आते ही कक्षा के सब बच्चों को देखकर मेरे मैले-कुचैले कपड़े देखे और मुझसे कहा- खड़े हो जाओ| शर्म नहीं आती, इतने मैले कपड़े पहनकर विद्यालय आ गए? तुम पर आठ आना जुर्माना किया जाता है| मैं अपना अपमान तो भूल गया, मुझे सारी चिंता इसी बात की थी कि जो माँ सस्ते के जमाने में साबुन की बट्टी नहीं खरीद सकी, वह जुर्माने के आठ आने कैसे देगी? उसी समय से मैं बड़े होकर भी इस घटना को नहीं भूल पाता| छात्रों की स्थिति समझे बिना उन्हें दंड देना मुझे इसलिए रास नहीं आता|”
सारी बात सुनकर प्राध्यापक सिर झुकाकर चले गए| इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि बिना कारण जाने हमें किसी को दंड नहीं देना चाहिए|”