मन पसंद दूल्हा
यह कहानी उस समय की है, जब अयोध्या में राजा वीरकेतु का शासन था| राजा वीरकेतु बहुत योग्य प्रशासक थे| उनके राज्य में प्रजा स्वयं को सुखी एवं सुरक्षित महसूस करती थी|
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उस समय अयोध्या में एक संपन्न व्यापारी रहता था, जिसका नाम था – रत्नदत्त| रत्नदत्त ने व्यापार के माध्यम से अकूत संपदा एकत्रित कर ली थी, किंतु उस संपदा का उपभोग करने वाली कोई संतान अभी तक उसके घर में उत्पन्न नहीं हुई थी|
व्यापारी रत्नदत्त की पत्नी एक धर्मपरायण महिला थी| वह प्रतिदिन मंदिर में जाकर संतान-प्राप्ति के लिए भगवान शंकर की आराधना करती थी| अंतत: उसकी आराधना का फल उसे मिला| भगवान शिव की कृपा से उसकी कोख से एक सुंदर कन्या से जन्म लिया| संतान प्राप्त करके पति-पत्नी को बहुत प्रसन्नता हुई| इस अवसर पर रत्नदत्त ने एक बड़े भोज का आयोजन किया, जिनमें नगर-भर के लोग आमंत्रित किए गए| निर्धन एवं ब्राह्मणों को खूब दान-दक्षिणा दी गई| कन्या का नाम रखा गया – रत्नवती|
समय के साथ-साथ जब वह कन्या जवान हुई तो माता-पिता को उसके विवाह की चिंता हुई| उन्होंने रत्नवती के लिए अनेक सुयोग्य वर तलाश किए, लेकिन रत्नवती को उनमें से एक भी वर पसंद न आया| इससे रत्नदत्त और उसकी पत्नी को यह चिंता होने लगी कि कहीं उनकी लाडली बेटी कुंवारी ही न रह जाए!
एक दिन रत्नवती की मां ने उसे एकांत में बुलाया और उससे कहा – “बेटी रत्नवती! पड़ोसी राज्य के राजकुमार राजदत्त ने तुम्हारे रूप की प्रशंसा सुनकर तुम्हारे साथ विवाह करने का संदेश भेजा है| यदि तुम स्वीकृति दो तो हम अपनी स्वीकृति उन्हें भेज दें|”
“नहीं मां! राजकुमार को संदेश भेज दो कि मुझे उसका प्रस्ताव स्वीकर नहीं है| मैं अभी विवाह करना नहीं चाहती|” रत्नवती ने उत्तर दिया|
“तो फिर कब करोगी विवाह! क्या तब विवाह करोगी, जब तुम्हारा यौवन ढलने लगेगा?” कुछ खीझकर रत्नवती की मां ने कहा – “देखो बेटी! इस रिश्ते के लिए इन्कार मत करो| राजकुमार राजदत्त हर तरह से तुम्हारे लिए योग्य वर है|”
रत्नवती ने अपनी माता के इस आग्रह को अस्वीकार कर दिया और गर्दन झटककर वहां से चली गई| रत्नवती की मां बड़बड़ाती हुई कक्ष में अकेली रह गई|
इसी प्रकार अनेक दिन बीत गए| धीरे-धीरे रत्नवती के विवाह न करने की चर्चा नगर-भर में फैल गई, लेकिन शीघ्र ही यह चर्चा दबकर रह गई, क्योंकि इससे भी बड़ी चर्चा का एक विषय लोगों को पता चल गया| हुआ ये कि अचानक नगर में चोरी की अभूतपूर्व घटनाएं घटने लगीं| कोई भी रात ऐसी न बीतती, जब नगर के किसी-न-किसी भद्र व्यक्ति के यहां चोरी की घटना न घटती| नगर के नागरिक सारी रात जाग-जागकर पहरा देने लगे, किंतु चोर फिर भी अपनी कौशल का कमाल दिखा ही जाते| धीरे-धीरे उनके मन में आतंक समाने लगा| वे अपनी आपको असुरक्षित महसूस करके नगर से पलायन करने लगे| स्थिति कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई तो नागरिकों का एक शिष्टमंडल राजा वीरकेतु से मिलने के लिए उनके दरबार में जा पहुंचा| वहां पहुंचकर उन्होंने राजा वीरकेतु से गुहार लगाई – “राजन! हमारी रक्षा कीजिए| चोरों का कोई बहुत बड़ा गिरोह नगर में बेधड़क घूम रहा है| प्रतिदिन रात को चोरियां हो रही हैं| हम लोग सारी-सारी रात जागकर पहरा देते हैं, फिर भो चोर न जाने कैसे अपना काम कर जाते हैं| हमारी जान-माल खतरे में है| हमें इस विपत्ति से छुटकारा दिलावइए|”
राजा ने भयभीत नागरिकों को शांत किया| उन्होंने अपने सेनानायक को बुलवाया और उसे आदेश दिया – “सेनानायक! रात की पाली में अधिक-से-अधिक सुरक्षाकर्मी तैनात कर दो| आज से नगर में प्रवेश करने एवं नगर छोड़कर जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जानकारी रजिस्टर में दर्ज की जाए| सुरक्षाकर्मी रात में घूम-घूमकर ऐसे व्यक्तियों की धर-पकड़ करें, जिनकी गतिविधियां संदिग्ध हों| मैं जल्दी-से-जल्दी इस नगर को चोरों से मुक्त हुआ देखना चाहता हूं|”
राजा के इस आदेश का कड़ाई से पालन किया गया| परिणाम यह निकला कि चोरों की गतिविधियां कुछ समय के लिए बिल्कुल बंद हो गईं| इससे राजा के मन से भी बोझ हटा और नगरवासियों ने भी राहत की सांस ली|
लेकिन यह सब अस्थायी सिद्ध हुआ, सुरक्षाकर्मी जैसे ही सुरक्षा के प्रति कुछ लापरवाह हुए, नगर में दुगुने वेग से चोरी की घटनाएं घटित होने लगीं| चोरों का दुस्साहस इतना बढ़ गया कि अब वे चोरी के साथ-साथ नागरिकों की हत्याएं भी करने लगे| इससे समूचे नगर में त्राहि-त्राहि मच गई| नागरिकों का एक बहुत बड़ा प्रतिनिधि मंडल पुन: सुरक्षा की गुहार लगाता राजा वीरकेतु के पास जा पहुंचा| प्रतिनिधि मंडल के प्रमुख ने राजा ने कहा – “अन्नदाता! चोरों का आतंक दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है| पहले चोर सिर्फ चोरी ही करते थे, ललकारने पर भाग खड़े होते थे, किंतु अब तो वे हत्याएं भी कर देते हैं| नागरिक बेहद भयभीत हो गए हैं| वे नगर छोड़कर पड़ोसी राज्य में जाने की सोच रहे हैं| कुछ लोग तो यह नगर छोड़कर चले भी गए हैं| यदि शीघ्र ही उन चोरों को पकड़ने का कोई उपाय न किया गया तो शहर के नागरिक यह शहर छोड़कर चले जाएंगे|”
उन लोगों की बातें सुनकर राजा वीरकेतु ने कुछ देर तक विचार किया, फिर बोले – “मेरे प्यारे प्रजाजनो! शांत हो जाओ| मैंने एक नई योजना बनाई है| शीघ्र ही आप लोगों की चिंता का अंत हो जाएगा|”
राजा के कथन से आश्वस्त होकर नागरिक अपने-अपने घर को चले गए|
उस रात राजा ने अपना भेष बदला| समूचे शरीर को काले रंग से रंग लिया| चेहरे पर नकली दाढ़ी, मूंछें लगा लीं| सिर पर साफा, फेंट में कटार, बाएं कंधे पर म्यान में रखी एक लंबी-सी तलवार, राजा सिर से पांव तक खूंखार लुटेरे जैसा दिखाई पड़ने लगा| रूप बदलकर राजा महल के चोर दरवाजे से बाहर निकला और नगर की सड़कों पर छिपता-छिपाता आगे बढ़ने लगा| अंधेरी रात में अंधेरे का ही एक प्रतिरूप बना राजा वीरकेतु बहुत देर तक सूनी सड़कों पर विचरण करता रहा, किंतु उसे कोई भी संदिग्ध व्यक्ति दिखाई न दिया| इसी क्रम में जब वह एक व्यापारी के मकान के नीचे से गुजर रहा था, तभी उसे एक मकान की दीवार के नीचे एक मानवी आकृति-सी दिखाई दी| राजा दबे पांव उस मानवी आकृति के समीप पहुंचा और समीप की एक दूसरी दीवार से सटकर खड़ा हो गया| उस समय वह अत्यंत चौकन्ना था| उसने मन में सोचा – ‘यह आदमी निश्चय ही उन चोरों में से एक है, जिन्होंने नगर में आतंक मचा रखा है| इसे पकड़कर इससे इसके शेष साथियों के बारे में पूछना चाहिए|’
ऐसा विचारकर राजा दबे पांव उस चोर के समीप पहुंचा| उसने म्यान से तलवार निकालकर चोर की गर्दन पर टिका दी, फिर धीमे स्वर में चोर से कहा – “खबरदार! हिलने की कोशिश की तो तलवार गर्दन के आर-पार कर दूंगा|”
इस अप्रत्याशित आक्रमण से चोर हड़बड़ा गया| राजा ने उससे पूछा – “कौन हो तुम और दबे पांव इस मकान की दीवार फांदने की कोशिश क्यों कर रहे हो?”
चोर कहने लगा – “मैं एक चोर हूं| चोरी करने के इरादे से मैं इस मकान में दाखिल होना चाहता था, पर तुम कौन हो?”
“मैं भी एक चोर हूं, चोरी करने निकला था, किंतु तुम्हें संदिग्ध अवस्था में यहां देखकर रुक गया|” राजा ने कहा|
राजा का जवाब सुनकर चोर की जान-में जान आई| उसने दाएं हाथ से राजा की तलवार अपनी गर्दन से हटा दी| राजा ने भी कोई प्रतिरोध न किया| चोर राजा की ओर घूमकर खड़ा हो गया| उसने मुस्कराते हुए राजा ने कहा – “सुनो मित्र! हम दोनों एक ही रास्ते के मुसाफिर हैं| मैं भी चोर हूं और तुम भी चोर हो| क्यों न हम मिलकर इस सेठ के घर में चोरी करें| यहां से जो कुछ माल मिलेगा, उसे हम आधा-आधा बांट लेंगे|”
राजा ने चोर का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया| उसने कहा – “मित्र! मैं इस इलाके में नया-नया आया हूं, इसलिए मुझे यहां की स्थिति का कुछ विशेष पता नहीं है| तुम ऐसा करो, इस मकान में जाकर तुम चोरी करो| तुम्हारी सुरक्षा के लिए मैं तलवार लेकर यहां खड़ा होता हूं| जैसे ही कोई खतरे की बात देखूंगा तो सीटी बजाकर तुम्हें संकेत कर दूंगा| तब तुम तुरंत यहां से निकल आना|”
फिर उन दोनों ने ऐसा ही किया| चोर चोरी करने के उद्देश्य से सेठ के मकान में दाखिल हो गया और चोर के भेष में राजा वीरकेतु पहरा देने लगा|
कुछ ही देर बाद चोर एक भारी-सा गट्ठर कंधे पर उठाए बाहर निकला| दोनों दबे पांव नगर से बाहर की ओर चल पड़| नगर से बाहर पहुंचकर राजा ने चोर से कहा – “मित्र! अब कोई खतरा नहीं है| हम नगर से काफी दूर निकल आए हैं| अब हमें चुराए हुए माल का बंटवारा कर लेना चाहिए|”
यह सुनकर चोर कहने लगा – “यह काम तो मेरे अड्डे पर चलर होगा मित्र! आज हमारी मित्रता हुई है| मैं तुम्हें अपना अड्डा (छिपने की जगह) दिखाना चाहता हूं| वहां तुम मेरे अन्य साथियों से भी मिलोगे| वे सब तुम्हारा स्वागत-सत्कार करेंगे| तत्पश्चात तुम अपना हिस्सा लेकर अपने घर पर लौट जाना|”
राजा ने सोचा – ‘यह तो और भी अच्छा रहेगा| एक बार इसके अड्डे का पता चल गया तो इसके शेष साथियों को ढूंढने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा| सुबह पौ फटने से पहले ही सैनिकों के साथ धावा बोल दूंगा|’ ऐसा विचारकर उसने चोर की बात मान ली|
चोर राजा को साथ लेकर एक पहाड़ की कंदरा (गुफा) में पहुंचा| कंदरा के द्वार पर पहुंचकर उसने एक शिला हटाई| सामने एक गुप्त दरवाजा दिखाई देने लगा| अंधेरे में दोनों उस दरवाजे में दाखिल हो गए| कुछ आगे चलने पर राजा ने देखा, एक बहुत बड़े सुसज्जित कमरे में दस-पंद्रह भयंकर शक्ल-सूरत वाले व्यक्ति बैठे हुए मदिरापान कर रहे थे| एक प्रौढ़ा उन सबको बारी-बारी से मदिरा परोस रही थी| दाएं-बाएं बहुत-से संदूक रखे थे, जिनमें चोरी किया हुआ माल भरा पड़ा था| उनमें से कुछ बक्से तो इतने ठसा-ठस भरे हुए थे कि कुछ स्वर्णमुद्राएं उसमें से छिटककर बाहर आ गिरी थीं, जो दीपकों के प्रकाश में झिलमिला रही थीं| चोर जब वहां पहुंचा तो उसके सभी साथी राजा को संदिग्ध दृष्टि से घूरने लगे| एक चोर ने पूछ लिया – “सरदार! यह नया व्यक्ति कौन है?”
“अपना साथी है| आज ही इससे मित्रता हुई है|” यह कहकर उस चोरों के सरदार ने अपने साथियों की जिज्ञासा शांत कर दी| फिर मदिरापान का दौर चलने लगा| राजा ने बहुत कम मदिरा पी, वह उन्हें अधिकाधिक मदिरा पीने को प्रेरित करता रहा| तत्पश्चात सबने खाना खाया| सुब माल के बंटवारे की बात कहकर अन्य चोरों के साथ चोरों का सरदार भी सो गया, किंतु राजा को नींद कहां! उसके मस्तिष्क में तो लगातार यही बात घुमड़ रही थी कि कैसे जल्दी-से-जल्दी इस गुफा से निकलकर नगर में पहुंचा जाए और वहां से सैनिक लाकर इस गुफा पर धावा बोला जाए| तभी वह प्रौढ़ा स्त्री, जो राजा के पहुंचने से पूर्व उन चोरों को मदिरापान करा रही थी, दबे पांव उसके समीप पहुंची| उसने फुसफुसाते स्वर में राजा से कहा – “राजन! मैंने आपको इस भेष में भी पहचान लिया है| यहां आपका जीवन संकट में है, जैसे ही इन चोरों को इस बात का पता लगेगा कि आप यहां के राजा हैं, ये आपको मार डालेंगे, इसलिए मेरा यह परामर्श है कि आप फौरन यहां से निकल जाएं|”
राजा बोला – “कैसे निकलूं यहां से| बाहर जाने वाले दरवाजे के रास्ते में तो ये चोर पसरे पड़े हैं| बाहर निकलते समय यदि इनमें से किसी से मेरा पांव छू गया तो सारा खेल खत्म हो जाएगा|”
यह सुनकर प्रौढ़ा स्त्री बोली – “आप मेरे पीछे-पीछे आइए| मैं एक दूसरा गुप्त रास्ता भी जानती हूं यहां से बाहर निकलने का, जो आपको सीधा सरयू नदी के किनारे पर पहुंचा देगा| बाकी का काम तो आपके लिए बहुत आसान है|”
तब उस स्त्री ने राजा को वह गुप्त रास्ता दिखा दिया| राजा जब बाहर निकल गया तो उस स्त्री ने पुन: गुफा का मार्ग बंद कर दिया और चुपचाप अपने स्थान पर आकर सो गई|
सुबह जब चोर जागे तो उन्होंने राजा को गायब पाया| पलक झपकते ही चोरों का सरदार समझ गया कि उनके साथ धोखा हो गया| रात उसके साथ आया हुआ व्यक्ति या तो कोई राजा का गुप्तचर था या कोई सुरक्षा विभाग का बड़ा अधिकारी|’ यह सोचकर उसने अपने साथियों से कहा – “मित्रों! अब यह जगह सुरक्षित नहीं रही| भेद खुल चुका है| राजा के सैनिक हमें पकड़ने के लिए पहुंचने ही वाले होंगे, तुरंत इस स्थान को खाली करके यहां से भाग चलो|”
यह सुनकर सभी चोरों के चेहरे फक्क पड़ गए| कुछ देर के पश्चात वह चोर, जिसने राजा के वहां पहुंचने पर शंका व्यक्त की थी, बोला – “सरदार! मुझे तो पहले ही उस पर संदेह था, किंतु जब आपने हमें संतुष्ट कर दिया तो हम चुप रह गए|”
“जो हो गया, सो हो गया|” एक अन्य चोर बोला – “प्रश्न यह उठता है कि वह व्यक्ति यहां से भागा कैसे? गुफा से बाहर जाने वाले रास्ते पर तो हम सब सोए हुए पड़े थे|”
“जरूर किसी ने उसे दूसरा गुप्त मार्ग बताया होगा|” तीसरा चोर बोला – “उसी रास्ते से वह व्यक्ति बाहर निकल गया है|”
“पर किसने बताया उसे दूसरे मार्ग का रहस्य?” इस प्रश्न पर सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे|
कुछ देर बाद एक अन्य चोर ने कहा – “हम सब एक-दूसरे के विश्वस्त हैं| मुझे पक्का विश्वास है कि हममें से किसी ने भी उसे दूसरे रास्ते का रहस्य नहीं बताया होगा| हां, इस स्त्री के विषय में नहीं कह सकता, जो हमारे लिए खाना बनाती है|”
सबकी निगाहें उस प्रौढ़ा पर केंद्रित हो गईं| पूछने पर वह प्रौढ़ा नजरें चुराने लगी| बस फिर क्या था, एक चोर ने गुस्से में भरकर उस प्रौढ़ा का सिर कलम कर दिया| तत्पश्चात सभी चोर थैलों में कीमती रत्न, हीरे, जवाहरात भरकर गुफा से बाहर निकले, पर बाहर का दृश्य देखकर उनके छक्के छूट गए, क्योंकि सारे इलाके को राजा के सैनिकों ने घेर रखा था| बचने का कोई और उपाय न देखकर उन चोरों ने अपनी तलवारें निकाल लीं और राजा के सैनिकों से भिड़ गए| यह मुकाबला अधिक देर तक न चल सका| शीघ्र ही अधिकांश चोर मारे गए| एक-दो चोर बच गए, जो घायल होकर सैनिकों से बचने के लिए वापस गुफा में घुस गए, लेकिन सैनिकों ने वहां भी उनका पीछा न छोड़ा| जो चोर सैनिकों द्वारा पकड़े गए, उनमें से एक चोरों का सरदार भी था|
अब चोरों की गुफा पर राजा के सैनिकों का अधिकार हो गया| वहां चोरी करके एकत्रित हुई सारी सामग्री राजा के सैनिकों के हाथ लग गई| पकड़े गए चोर और लूटी हुई सारी चीजें अयोध्या में लाई गईं| उसी दिन राजा वीरकेतु ने उन चोरों की सजा निश्चित कर दी| दो चोरों को तो क्षमायाचना करने पर आजन्म कारावास की सजा निश्चित की गई, जबकि चोरों के सरदार को मृत्युदंड दिया गया|
राजा ने आदेश दिया – “कल दोपहर के समय चोरों के इस सरदार को वध-स्थल पर ले जाकर सूली पर चढ़ा दिया जाए| सूली पर चढ़ने से पूर्व एक हाथी पर बैठाकर इसे पूरे नगर में घुमाया जाए, ताकि लोग आतंक के पर्याय बने इस चोर को स्वयं अपनी आंखों से देख सकें और इस बात का भी अनुभव कर सकें कि उनका राजा कभी असत्य नहीं बोलता| उनके राजा ने नागरिकों के समक्ष चोरों को समाप्त करने का जो वादा किया था, उसे पूरा कर दिखाया है|”
अगले दिन चोरों के उस सरदार को एक हाथ पर बैठाकर सैनिक उसे वध-स्थल की ओर ले चले| अनेक गली-मुहल्लों से गुजरते हुए जब सैनिक व्यापारी रत्नदत्त के मकान के नीचे पहुंचे तो रत्नवती गली में हो रहे हो-हल्ला का कारण जानने के लिए उत्सुकतावश मकान की छत पर जाकर खड़ी हो गई| चोरों का मुखिया यद्यपि पिछले दिन लड़ाई में घायल हो चुका था, तदपि उस समय वह शांत भाव से हाथी की पीठ पर बैठा हुआ था| सूरज की किरणों से उनका मुख दैदीप्तमान हो रहा था| रत्नवती उसकी सुगठित काया पर मुग्ध हो उठी| वह दौड़कर अपने पिता और माता के पास पहुंची और उन्हें उस चोर को दिखाते हुए बोली – “पिताजी! मुझे मेरा मनपसंद वर मिल गया| देख रहे हैं न हाथी पर बैठे उस युवक को| मैं उसी से विवाह करूंगी|”
व्यापारी रत्नदत्त और उसकी पत्नी ने हैरानी से अपनी बेटी की तरफ देखा| रत्नवती की मां बोली – “रत्नवती! तू कहीं पागल तो नहीं हो गई| जानती है कौन है यह युवक? यह युवक एक चोर है| इसने नगर में अब तक सैकड़ों चोरियां की हैं| अनेक हत्या जैसे अपराध भी इसके खाते में दर्ज हैं| महाराज ने इसे सूली पर लटकाने की सजा सुनाई है|”
“तेरी माता ठीक कह रही है बेटी!” रत्नदत्त ने कहा – “यह युवक सिर्फ कुछ घंटों का मेहमान है, अत: इसे वरण करने का सपना तू त्याग दे|”
“नहीं पिताजी! यह युवक मेरे हृदय में बैठ चुका है| अब मैं शादी करूंगी तो सिर्फ इसी से|” रत्नवती ने जिद की|
“रत्नवती! तू क्या पागलों जैसा प्रलाप कर रही है|” रत्नवती की माता ने उसे घुड़का – “मूर्ख लड़की! यह तो सोच कि हम संभ्रांत कुल के हैं और वह एक ऐसा चोर, जिसकी जिंदगी में अब कुछ भी नहीं बचा, जिसकी सांसें समाप्त होने को हैं, हमने तो तेरे लिए एक-से-एक सुंदर, कुलीन वर खोजे थे, तू ही जिद में आकर सबको अस्वीकार करती रही और अब तू सूली पर चढ़ाए जाने वाले एक चोर को अपने पति के रूप में वरण करना चाहती है| ऐसा कभी भि नहीं हो सकता है|”
“मां! तुम मुझे पागल कहो या विक्षिप्त!” रत्नवती ने दृढ़-निश्चय से कहा – “अब तो मैं अपना विवाह इसी युवक के साथ करूंगी, अन्यथा अपनी जान दे दूंगी|”
अपनी बेटी का ऐसा दृढ़-निश्चय देख रत्नदत्त और उसकी पत्नी भयभीत हो गए| तब रत्नदत्त की पत्नी ने अपने पति से कहा – “स्वामी! अपनी इकलौती बेटी की जिंदगी का सवाल है| आप फौरन राजा वीरकेतु के पास जाइए और उनसे प्रार्थना कीजिए कि वे इस चोर को किसी भी कीमत पर रिहा कर दें| बदले में वे हमसे जितना भी धन मांगेंगे, हम उन्हें दे देंगे|”
बेटी की जिद और पत्नी के आग्रह के सम्मुख रत्नदत्त नतमस्तक हो गया| वह तत्काल घर से निकलकर राजा से मिलने के लिए चल पड़ा| राजमहल पहुंचकर उसे सूचना मिली कि राजा तो उस चोर को सूली पर चढाए जाने का नजारा देखने के लिए वध-स्थल पर गए हैं, तब व्यापारी भी एक द्रुतगामी बग्घी में बैठकर वध-स्थल की ओर चल दिया|
राजा के पास पहुंचकर रत्नदत्त ने उनसे विनय की – “हे अन्नदाता! मेरी पुत्री को मरने से बचा लीजिए|”
राजा को आश्चर्य हुआ| उसने पूछा – “तुम्हारी पुत्री को क्या हो गया है, रत्नदत्त! क्या वह गंभीर रूप से बीमार हो गई है? यदि ऐसा है तो हम राजवैद्य को बुलवा देते हैं|”
“नहीं महाराज! राजवैद्य की आवश्यकता नहीं है| उसे प्रेम का रोग लग गया है| वह एक ऐसे युवक को अपना दिल दे बैठी है, जिसके साथ उसका विवाह होना असंभव है|” रत्नदत्त ने कहा|
यह सुनकर राजा वीरकेतु मुस्कराते हुए बोले – “यह तो कोई असंभव बात नहीं है रत्नदत्त! अपनी संतान के लिए तो माता-पिता सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं| मुझे तुम उस युवक का नाम बताओ, मैं अभी उसे यहां बुलाकर तुम्हारी पुत्री की कामना पूर्ण कराए देता हूं|”
“वह युवक यहीं मौजूद है, अन्नदाता!”
“अच्छा! कौन है वह युवक, जिसे वरण करने के लिए तुम्हारी बेटी जिद कर रही है?” राजा ने पूछा|
फिर जब रत्नदत्त ने उस चोर नाम बताया तो राजा सन्न रह गया| उसने गंभीर स्वर में कहा – “यह असंभव है रत्नदत्त! हम इस चोर युवक को सूली पर लटकाने का आदेश दे चुके हैं| कुछ ही समय बाद इसके प्राण पखेरू उड़ जाएंगे|”
“इसे छोड़ दीजिए अन्नदाता! अन्यथा मेरी बेटी आत्महत्या कर लेगी| इसे छोड़ने के बदले में मैं अपना सारा धन आपको देने के लिए तैयार हूं|” रत्नदत्त ने गिड़गिड़ाते हुए कहा|
“रत्नदत्त! मैं इसे कदापि नहीं छोड़ सकता| बड़ी मुश्किल से यह हमारे हाथ लगा है| इसके ऊपर बहुत गंभीर इल्जाम हैं| यह चोर ही नहीं, कातिल भी है|जरा सोचो, ऐसे पापी व्यक्ति को छोड़ देना क्या उचित होगा?”
“उचित तो नहीं है महाराज, लेकिन मेरी बेटी के जीवन का प्रश्न है| मैं आपसे फिर प्रार्थना करता हूं कि आप इस युवक की जान बख्श दीजिए|”
लेकिन राजा ने व्यापारी रत्नदत्त का आग्रह स्वीकार न किया| उसने संकेत करके चोर को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया| तत्पश्चात ठीक उस समय, जब वधिक उस चोर के हाथ-पैर बांधकर उसे सूली पर लटकाने वाले थे, एक द्रुतगामी बग्घी में बैठकर रत्नवती वहां पहुंची और वधिकों को पुकारकर कहा – “ठहरो वधिक! इस युवक को सूली पर चढ़ाने से पहले मुझे अंतिम बार इसके दर्शन कर लेने दो|”
रत्नवती की बात सुनकर कुछ क्षण के लिए वधिकों ने अपनी हाथ रोक लिए| यह देखकर उस चोर युवक ने पूछा – “क्या बात है भाई! तुम अपना काम करते क्यों नहीं और यह सुंदर युवती कौन है?”
“यह इस शहर के सबसे संपन्न व्यापारी रत्नदत्त की बेटी रत्नवती है| इससे सुंदर इस नगर में और कोई युवती नहीं है| आज तक इसने अपने विवाह के लिए किसी को भी पसंद नहीं किया| राजकुमारों का प्रणय-निवेदन भि इसने अस्वीकार कर दिया है, किंतु न जाने कैसे यह तुम पर मोहित हो गई है और तुम्हारे साथ विवाह करना चाहती है|” वधिक ने बताया|
यह सुनकर उस चोर युवक के चेहरे पर विचित्र-से लक्षण पैदा हुए| उसने आश्चर्य के स्वर में सिर्फ इतना ही कहा – “यह मुझसे विवाह करना चाहती है| यह तो बड़ी विचित्र-सी बात है| पता नहीं, यह सुनकर मुझे प्रसन्न होना चाहिए या दुखी होना चाहिए|”
वधिकों ने अपना काम किया| उन्होंने उस चोर युवक को सूली पर चढ़ा दिया| यह देखकर रत्नवती अपनी पोशाक में छुपी कटार अपनी छाती में घोंपने को उद्घत हुई|
तभी वहां एक चमत्कार हुआ| भगवान शंकर वहां प्रकट हो गए| उन्होंने रत्नवती को रोकते हुए कहा – “ठहरो पुत्री! ऐसा जघन्य कार्य मत करो| तुम्हारी माता की भक्ति और निष्ठा से प्रसन्न होकर मैंने तुम्हें उनके यहां उत्पन्न होने के लिए भेजा था| मैं तुम्हारी दृढ़ निष्ठा से प्रसन्न हूं| तुम जो चाहो, मांग सकती हो|”
भगवान शिव शंकर को साक्षात सामने पाकर रत्नवती ने आत्महत्या का इरादा त्याग दिया| उसने कहा – “हे देव! यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरी दो मनोकामनाएं पूरी कर दीजिए|”
“हां-हां अवश्य| बताओ, तुम्हारी कौन-कौन सी मनोकामनाएं पूर्ण करूं?” शिव शंकर बोले|
“हे देव! मेरी पहली मनोकामना तो यह है कि मेरे पिता को अनेक पुत्र प्राप्त हों और मेरी दूसरी मनोकामना यह है कि जिस पुरुष को मैंने अपना पति मान लिया है, वह एक सच्चे और ईमानदार व्यक्ति के रूप में पुनर्जीवित हो जाए|”
“तथास्तु!” शिव शंकर ने उसे आशीर्वाद दिया – “आज के बाद वह एक भला आदमी बनकर अपना जीवनयापन करेगा और राजा वीरकेतु के द्वारा उसे उसके पापों के लिए क्षमा मिलेगी|”
भगवान शिव के आशीर्वाद से वह चोर तत्काल पुनर्जीवित हो उठा| चोर के जीवित होते ही भगवान शिव अंतर्धान हो गए| राजा वीरकेतु ने जब यह सारा दृश्य अपनी आंखों से देखा तो उन्हें अपनी निर्णय पर शर्मिंदगी महसूस हुई| वे चोर के निकट पहुंचे और उससे कहा – “युवक! तुम सचमुच एक बहादुर व्यक्ति हो, भगवान शिव का आशीर्वाद भी तुम्हें प्राप्त है| मैं तुम्हें क्षमा प्रदान करता हूं और तुम्हें अपनी सेना का सेनानायक नियुक्त करता हूं|”
इस प्रकार रत्नवती के दृढ़-निश्चय ने न केवल एक चोर को नया जीवन दिया, अपितु अपना मनपसंद दूल्हा भी पा लिया| तत्पश्चात वे जीवनपर्यंत सुखपूर्वक रहते रहे|