मन की महिमा
एक बार भगवान बुद्ध के दो शिष्य उनसे मिलने जा रहे थे| पूरे दिन का सफर था| चलते-चलते रास्ते में एक नदी पड़ी| उन्होंने देखा कि उस नदी में एक स्त्री डूब रही है|
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बौद्ध भिक्षुओं के लिए स्त्री का स्पर्श वर्जित माना जाता है| ऐसी दशा में क्या हो?
उन दोनों भिक्षुओं में से एक ने कहा – “हमें धर्म की मर्यादा का पालन करना चाहिए| स्त्री डूब रही है तो डूबे! हमें क्या!”
लेकिन दूसरा भिक्षु अत्यंत दयावान था| उसने कहा – “हमारे रहते कोई इस तरह मरे, यह तो मैं सहन नहीं कर सकता|” इतना कहकर वह पानी में कूद पड़ा डूबती स्त्री को पकड़ लिया और कंधे का सहारा देकर किनारे पर ले आया|
दूसरे भिक्षु ने उसकी बड़ी भर्त्सना की, रास्ते भर वह कहता रहा कि मैं जाकर तथागत से कहूंगा कि आज तुमने मर्यादा का उल्लंघन करके कितना बड़ा पाप किया है|
दोनों बुद्ध के सामने पहुंचे तो दूसरे भिक्षु ने एक सांस में सारी बातें कह सुनाईं – “भंते मैंने इसको बहुतेरा रोका, पर यह माना ही नहीं| बड़ा भयंकर पाप किया है इसने|”
बुद्ध ने उसकी बात बड़े ध्यान से सुनी, फिर पूछा – “इस भिक्षु को उस स्त्री को कंधे पर बाहर लाने में कितना समय लगा होगा?”
“कम-से-कम पंद्रह मिनट तो लग ही गए होंगे|”
“अच्छा!” बुद्ध ने पूछा – “इस घटना के बाद यहां आने में तुम लोगों को कितना समय लगा?”
भिक्षु ने हिसाब लगाकर उत्तर दिया – “यही कोई छ: घंटे!”
बुद्ध ने कहा – “भले आदमी, इस बेचारे ने तो उस स्त्री को पंद्रह मिनट ही अपने कंधे पर रखा, लेकिन तू तो उसे छ: घंटे से अपने मन में बिठाए हुए है| बोल दोनों में बड़ा पापी कौन है?”
बेचारा भिक्षु निरुत्तर हो गया| वह समझ गया कि मन की बड़ी महिमा है|