महर्षि वशिष्ठ की विश्वामित्र को फटकार
राजा हरिश्चंद्र के दरबार से जसने के उपरांत महर्षि वशिष्ठ से चुप नहीं रहा गया| वे गंभीर होकर विश्वामित्र से बोले, “ऋषिवर! आप यह ठीक नहीं कर रहे हैं| आपका वैर मुझसे है| यदि आपको परेशान करना है तो आप मुझे करें| महाराज से आपका व्यवहार ऋषि-परम्परा के विरूद्ध है|”
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“महर्षि’आप तो अभी से घबरा गए| अभी तो आरंभ है, देखना है इति तक पहुचंते-पहुचंते आपकी और आपके शिष्य की क्या स्थिति होती है|” विश्वामित्र ने वशिष्ठ का अपमान करते हुए कहा|
महर्षि वशिष्ठ ने शांत भाव से विश्वामित्र को समझाते हुए कहा, “राजर्षि! अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है| अपने तपोबल का अहंकार करना एक साधु के लिए कदाचित उचित नहीं है| शिष्य को गुरु का सान्निध्य किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ना चाहिए जितनी यह बात उपयुक्त है, उतना ही यह भी आवश्यक है गुरु अपने शिष्य का आपदा में सदैव साथ दे| इसलिए मैं भी अभी इस का परित्याग कर रहा हूं|”
महर्षि वशिष्ठ द्वारा की गई इस घोषणा को सुनते ही सब सभासदों ने भी अयोध्या के परित्याग की एक स्वर में घोषणा कर दी|