मध्य मार्ग
राजकुमार सिद्धार्थ सुंदरी पत्नी यशोधरा, दूध पीते बालक राहुल और कपिलवस्तु का राजपाट त्यागकर तपस्या के लिए चल पड़े|
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भोजन के लिए भिक्षा माँगी| पहला कौर मुँह में देते ही उल्टी होने लगी| ऐसा खाना तो पहले कभी नहीं खाया था, पर अब तो ऐसा ही खाना होगा| उन्होंने जी को कड़ा किया| योग-साधना; समाधि सीखी| कुछ दिनों वह तिल-चावल खाते रहे| फिर कोई भी आहार लेना बंद कर दिया| उनका शरीर सूखकर काँटा हो गया| स्वल्प आहार लेते तपस्या करते हुए उन्हें छह-सात साल हो गए|
परंतु सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई| एक दिन वह वृक्ष के नीचे बैठे थे| समाधि में बैठने की कोशिश में थे, परंतु उनका चित उद्विग्न था| अचानक कुछ महिलाएँ नगर से लौट रही थी| वे मधुर स्वर में गाना गा रही थी, जिनके बोल का सार था- “वीणा के तार ढीले मत छोड़ो; ढीला छोड़ने से उनका स्वर नहीं निकलेगा, परंतु तार इतने अधिक कसों भी नहीं कि वे टूट जाएँ|”
गीत की बात सिद्धार्थ को जँच गई| उन्हें अनुभूति हुई कि वीणा के तारों और संगीत के लिए जो बात ठीक है, वही शरीर के लिए भी ठीक है| न तो अधिक आहार लेना ठीक है और न बहुत न्यून ही| नियमित मध्यम आहार-विहार से ही योग सिद्ध हो सकता है| अधिकता किसी बात की अच्छी नहीं| मध्यम मार्ग ही ठीक होता है| इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी श्रम क्षमता के अनुसार ही भोजन लेना चाहिए|