मदन द्वादशी व्रत का अद्भुत प्रभाव
एक बार देवताओं द्वारा संपूर्ण दैत्यकुल का संहार हो जाने पर दैत्य माता दिति को अपार कष्ट हुआ| तब वह पृथ्वी-लोक में स्यमन्तपंचक क्षेत्र में आकर सरस्वती नदी के तट पर अपने पति महर्षि कश्यप की आराधना करते हुए भीषण तप में निरत हो गई|
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उसने ऋषियों की भांति फलाहार, कृच्छ्र-चांद्रायण आदि व्रतों का पालन एवं अनुष्ठान करते हुए वृद्धावस्था के कष्टों एवं संततिहीनता के शोक को एक साथ सहन करते हुए सौ वर्षों तक कठोर तप किया, परंतु उन्हें अभीष्ट सिद्धि नही हो सकी| तत्पश्चात् विफल मनोरथा दिति ने वशिष्ठ आदि ऋषियों से प्रश्न किया- ‘ऋषियों! आप लोग मुझे ऐसा व्रत बतलाइए, जो पुत्रशोक का विनाशक तथा इहलोक एवं परलोक में सौभाग्य रुपी फल का प्रदाता हो|’
तब वशिष्ठ आदि ऋषियों ने दिति को मदन द्वादशी-व्रत के विधान का उपदेश किया| उसे सुनकर दिति ने उसका अनुष्ठान श्वेत चावल, श्वेत पुष्प, श्वेत चंदन और दो श्वेत वस्त्रों से अलंकृत एक छिद्ररहित घट की स्थापना की| वह घट विविध खाध-सामग्री एवं यथाशक्ति सुवर्ण-खंड से सुशोभित था| उसके निकट विभिन्न प्रकार के ऋतु फल रखे हुए थे| दिति ने घट के उपर गुड़ से भरा हुआ ताँबे का पात्र रखा और उसके ऊपर कदलीपत्र पर काम और रति की रचना करके गंध, धूप आदि उपचारों से उनकी पूजा की| उस दिन उन्होंने मात्र एक फल का भोजन किया और भूतल पर शयन करते हुए रात्रि व्यतीत की| प्रातःकाल उन्होंने उस घटक को ब्राह्मण को दान करके ब्राह्मणों को भोजन कराया और स्वयं भी नमकरहित भोजन किया| तदनन्तर ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर इस मंत्र का पाठ किया-
प्रीयतामत्र भगवान् कामरूपी जनार्दनः| ह्रदये सर्वभूतानां य आनन्दोअभिधीयते||
इसी प्रकार दिति ने प्रत्येक मास में शुक्लद्वादशी-व्रत का अनुष्ठान किया| बारह मास बीत जाने के बाद उन्होंने तेरहवें मास में घृत, धेनु एवं समस्त सामग्रियों से युक्त शय्या, रति-कामदेव की स्वर्ण-प्रतिमा और श्वेत रंग की दूधारु गौका दान किया तथा हवि, खीर और श्वेत तिलों से कामदेव के नामों का उच्चारण करते हुए हवन किया| इस तरह दिति का अनुष्ठान पूर्ण हो जाने पर उसके पति महर्षि कश्यप उसके सम्मुख उपस्थित हो गए| उन्होंने दिति को पुनः रुप-यौवन संपन्न युवती बना दिया और उससे मनोवांछित वर माँगने को कहा| दिति ने कहा- ‘पतिदेव! मैं एक ऐसा पुत्र चाहती हूँ जो इंद्र एवं समस्त देवताओं का विनाशक हो|’
यह सुनकर महर्षि कश्यप ने कहा- ‘शुभे! मैं तुम्हें अत्यंत ऊर्जस्वी और इंद्र का वध करने वाला पुत्र प्रदान करूँगा, परंतु तुम आज ही आपस्तम्ब ऋषि के द्वारा पुत्रेष्टियज्ञ का अनुष्ठान कराओ| तत्पश्चात् मेरे द्वारा तुम्हें इंद्र के विनाशक पुत्र की प्राप्ति होगी|’ पति के कथानानुसार दिति ने पुत्रेष्टियज्ञ को संपादित किया| यज्ञ की समाप्ति के बाद महर्षि कश्यप ने दिति के उदर में गर्भाधान किया और कहा- ‘वरानने! एक सौ वर्षों तक तुम इसी तपोवन में रहती हुई गर्भिणी स्त्री के लिए उचित संपूर्ण नियमों का पालन करो और गर्भस्थ शिशु की रक्षा करो|’ ऐसा कहकर महर्षि कश्यप अंतर्ध्यान हो गई| दिति पति के कथनानुसार नियमों का पालन करती हुई उसी तपोवन में समय व्यतीत करने लगी| इस वृतांत को जानकर इंद्र देवलोक से दिति के पास आये और दिति की सेवा करने की इच्छा करते हुए उसके पास ही रहने लगे| ब्राह्मरूप से विनम्र एवं शांत प्रतीत होने वाले इंद्र की एकमात्र इच्छा थी कि किसी भी प्रकार से सौ वर्ष के पूर्ण होने के पूर्व ही यह गर्भ नष्ट हो जाए| इसलिए वे सदैव दिति के छिद्रान्वेषण में तत्पर रहते थे|
जब सौ वर्ष की अवधि के पूर्ण होने में केवल तीन दिन शेष रह गए तो दिति अपने-आपको सफल मनोरथ समझते हुए निद्रा के प्रभाव से दिन में ही पैताने की ओर सिर कर सो गई| ऐसा अवसर पाकर इंद्र ने दिति के उदर में प्रवेश किया और व्रज के प्रहार से गर्भ के सात टुकड़े कर दिए| उन सात टुकड़ों से सूर्य के समान तेजस्वी सात शिशु उत्पन्न हो गए और रोने लगे| इंद्र के मना करने पर भी जब शिशुओं ने रोना बंद नही किया, तब उन्होंने पुनः व्रज के प्रहार से एक-एक शिशु के सात-सात टुकड़े कर दिए| इस प्रकार वे टुकड़े उनचास शिशुओं के रुप में परिणत होकर जोर-जोर से रोने लगे| इंद्र के बार-बार ‘मा रुदत’ मत रोओ कहने पर भी उनका रुदन बंद नही हुआ| इंद्र को महान् आश्चर्य हुआ कि व्रज प्रहार के बाद भी शिशुओं के जीवित रहने का क्या कारण है? अन्ततः ध्यान के द्वारा उन्हें यह ज्ञात हुआ कि दिति के द्वारा किए गए मदन द्वादशी-व्रत के प्रभाव से ही ये बालक अमर हो चुके है और उदर में रहते हुए ही उनकी संख्या उनचास हो गई है| यह सोचकर इंद्र दिति के उदय से बाहर निकल आए| उन्होंने अपने कृत्य के लिए दिति से क्षमा माँगी और दिति के गर्भ में स्थित उनचास शिशुओं को मरुद्गण की संज्ञा देते हुए उन्हें देवताओं के समान बताया तथा यज्ञों में उनके लिए उचित भाग की व्यवस्था की|
फिर ये दिति के पुत्रों को विमान में बैठाकर अपने साथ स्वर्ग ले गए| इस व्रत के अनुष्ठान से कर्ता के संपूर्ण मनोरथ सफली भूत हो जाते है और असंभव भी संभव हो जाता है|