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लपलौस का धमाका

लपलौस का धमाका

मध्य प्रदेश के रायपुर जिले के आसपास का इलाका छत्तीसगढ़ कहलाता है| इस प्रदेश के कई दूसरे इलाकों की तरह भी काफी संख्या में जनजातियां रहती हैं|

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गांव वाले और आदिवासी वैसे तो पड़ोसी ही होते है लेकिन दोनों का रहन-सहन एक-दूसरे भिन्न होता है| गांव वाले तो ज्यादातर खेती-बाड़ी करके ही गुजारा करते है जंगलो पर निर्भर रहते हैं| वे अपने औजार और उपकरण खुद ही बनाते हैं, टोकरियो बुनते हैं और छोटे-छोटे पशुओं का शिकार करते हैं| जंगल और उसके खजाने के बारे में उनकी जानकारी का तो कहना ही क्या?

आदिवासियों की अपनी भाषा, अपने गीत और नृत्य होते हैं| वे प्रकृति की पूजा करते हैं और उनके उत्सव-अनुष्ठान आदि, मंदिर और गिरिजाघरों के विधि-विधान से सर्वथा भिन्न होते हैं| उनकी बाल-सुलभ मासूमियत की वजह से शहर में रहने वाले सोचते हैं कि उन्हें आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है|

लेकिन कभी-कभी ऐसा सोचना संकट में भी डाल सकता है, जैसा कि छत्तीसगढ़ के एक व्यापारी की समझ में आया|

चंपक लाल व्यापारी रायपुर के पास ही एक गांव में रहता था| उसका घर गांव के आला घरों में गिना जाता था| वह गेहूं, दालें, मसालें, साबुन, माचिस  और इसी तरह का और सामान बेचता था| जैसे कोई भी चीज तौलते वक्त,चंपक लाल या उसका नौकर केवलराम, दोनों ही बड़ा ध्यान रखते थे कि ग्राहक के पास एक भी फालतू दाना न चला जाए|

गांव वाले जानते थे कि चंपक लाल गांठ का बड़ा पक्का है और मुनाफे के आगे दया-धर्म या भावनाएं उसके लिए कोई  मायने नहीं रखती हैं| उसकी पत्नी शान्ति देवी, भारी-भरकम और सोने से लदी हुई रहती| लेकिन सोने की इन जंजीरों के पीछे एक दयालु मन छिपा था|

वसंत ऋतु की एक सुबह, चंपक लाल अपने बरामदे में बैठा था कि उसने एक आवाज सुनी| “कोई मेरे कौवे खरीद लो! मोटे-ताजे कौवे!”

चंपक लाल हैरान था| यह कौन है जो कौए बेच रहा है? और कौन खरीदेगा उन्हें? वह जानने के लिए आतुर हो उठा| उठकर, वह नीचे सड़क की तरफ देखने लगा|

एक अधनंगा आदिवासी सिर पर अपनी टोकरी उठाए उसके घर की तरफ आ रहा था| उसने अपनी कमर पर एक मैला-सा कपडा लपेटा हुआ था और पैरों में ट्रक के पुराने टायरों से बनी रबर की चप्पले पहन रखी थी|

आदिवासी के कंधे से लटकती तांगिया (कुल्हाड़ी) से पता चलता था की वह शिकारी है| जब वह नजदीक आया तो चंपक लाल ने उसे पुकारा|

“क्या बेचते, हो भाई?” उसने पूछा|

“कौवा, साहब,” आदिवासी ने जवाब दिया|

“दिखाओ,” चंपक लाल बोला|

बरामदे की सीढियों पर आदिवासी ने अपना टोकरा रख दिया| फिर व्यापारी की तरफ देखकर मुस्कराता हुआ बैठ गया|

चंपक लाला ने देखा तो बस, देखता ही रह गया| टोकरी के अन्दर था, एक मोटे, काले तीतरों का जोड़ा, जिनका मांस बड़ा ही नर्म और बेशकीमती होता है| उनकी टांगे बंधी हुई थीं और चितकबरे पंख धूप में चमक रहे थे|

“कैसा मुर्ख आदमी है!” उसने मन ही मन कहा, “जो इतने कीमती पक्षियों को कौए बताता है!” फिर उसने आदिवासी से पूछा, “कितबे के हैं?”

“एक जोड़े का बीस रुपया, साहब,” आदिवासी बोला|

“मै १५ रूपये से एक पैसा भी ज्यादा नहीं दूंगा,” कहकर चंपक लाल घर के भीतर जाने लगा|

“नहीं, नहीं साहब, आप तो बहुत दयालु हैं| कृपा करके इन्हें खरीद लीजिए,” कहकर आदिवासी ने पक्षियों को बरामदे की ऊपर वाली सीढ़ी पर रख दिया|

चंपक लाल खुस को शाबाशी देता मुड़ा| उसने गिनकर १५ रूपये आदिवासी के हाथ थमा दिये| आदिवासी थोड़ा मुस्कराया और सलाम ठोकते हुए पैसे रख लिए|

“तुम्हारा नाम क्या है?” चंपक लाल ने पूछा|

“जी, नत्थू,” आदिवासी बोला|

“ठीक है, नत्थू, अब तुम चलो,” चंपक लाल बोला| “और अगली बार जब तुम्हें और अ…अ…कौए मिलें तो मुझे जरुर बताना,” वह कुटिलता से मुस्कुराते हुए बोला|

शान्ति देवी शाकाहारी थी| इसलिए तीतर बरामदे वाले चूल्हे में पकाए गए| जब उसने दो-दो तीतर देखे तो उसकी आंखे मारे हैरानी के खुली रह गईं|

“क्या कहा? कितने में खरीदा इन्हें?” शान्ति देवी ने पूछा|

“पन्द्रह रूपये में,” चंपक लाल हँसते हुए बोला| उसने पड़ोस से अपने मित्र को खाने की दावत दी और रात तक अपनी समझबूझ पर बहुत खुश होता रहा|

दस- एक दिन बाद वह फिर बरामदे में बैठा था कि तभी उसने किसी को पुकारते हुए सुना, “कोई मेरा सुन्दर रंगना ले लो!”

वही आदिवासी अपने सिर पर तांबे का एक चमकता हुआ घड़ा उठाए चला आ रहा था|

“रंगना-आ…आ…आ…,” वह पुकार लगा रहा था, “कोई है, जो मेरा सुन्दर रंगना खरीद ले?”

“अरे नत्थू,” चंपक लाल को आदिवासी का नाम जैसे रटा था, “यह रंगना क्या है? जरा इसे यहां तो ला|

नत्थू बरामदे की सीढियों में एक बार फिर आकर बैठ गया और घड़े को अपने पास ही रख लिया|

चंपक लाल एकटक उसे देखने लगा| बड़ा भारी और खुबसूरत माल है, उसने सोचा| वैसे तो घड़ा इस्तेमाल किया हुआ था और जगह-जगह उसमें गड्ढे भी पड़े थे, पर रोशनी में कैसा चमचमा रहा था! इतना पुराना और भारी बर्तन कम से कम हजार रुपए का तो होगा, दुकानदार ने सोचा|

“तुम इसे क्या कहते हो?” उसने आदिवासी से पूछा|

“साहब, यह रंगना है,” नत्थू दांत दिखाते हुए बोला| “मेरी माँ का पुराना रंगना है| लेकिन कितना मजबूत है? देखिए,” मटके पर एक धाप लगाते हुए नत्थू बोला|

“कितना लोगे?”चंपक लाल ने पूछा|

“सौ रुपए, साहब,” नत्थू बोला|

चंपक लाल की भौहें टेढ़ी हो गईं| “बहुत ज्यादा है,” वह बोला,” कोई दूसरा ग्राहक ढूंढ़ लो, अपने रंगना के लिए|”

“नहीं, नहीं साहब, ऐसा न कीजिए! “आप बड़े अच्छे हैं, साहब| अच्छा, आप बोलिए, आप कितना देंगे?” नत्थू बोला|

“अस्सी रूपये,” चंपक लाल ने दृढ़ता से कहा|

नत्थू के चहरे से मुस्कान गायब हो गई| फिर भी उसने घड़ा उठाया, बरामदे की ऊपर वाली सीढ़ी में रखा और अपना हाथ आगे फैला दिया| चंपक लाल ने गिनकर अस्सी रूपये उसे दे दिये|

चंपक लाल अपनी पत्नी को सारा किस्सा सुनाते हुए खूब हंसा| शान्ति देवी बार बार रंगना घुमाकर देखती जाती और हैरान होती जाती, लेकिन उसे उसमें कोई कमी नजर नहीं आई|

“यह तो मोती है, जो तुम्हें कौड़ियो के भाव मिल गया,” वह बोली|

अब तो चंपक लाल हर सुबह अपने बरामदे में बैठा नत्थू की राह तकने लगा| वह उससे कुछ और खरीदने के  लिए लालायित था|

जिसने भी रंगना देखा था, उसी ने तारीफ की थी और उसे मुनाफे का सौदा बताया था|

दुकानदार को रंगना खरीदे अभी सात दिन हुए थे| वह अपने बरामदे में था, कि उसने नत्थू को आते देखा|

“लपलौस,” नत्थू चिल्लाते हुए चला जा रहा था| “अरे, कोई मेरे अनमोल लपलौस खरीदेगा?”

चंपक लाल ने उसे आवाज दी तो वह एकदम सीढियों वाली अपनी पुरानी जगह आकर बैठ गया|

“तो बताओ, इस बार यह लपलौस क्या बेच रहे हो?” चंपक लाल ने पूछा|

“देखिए, साहब, आपने ऐसे अनमोल लपलौस पहली बार देखे होंगे,” नत्थू बोला| बोलते हुए नत्थू ने अपने कमरबंद के कोने से एक चमड़े की पोटली निकाली| उसने पोटली को उलटा कर दी और उसकी मैली हथेली पर एक-एक करके चमचमाते हीरों का ढेर लग गया|

चंपक लाल हक्का-बक्का रह गया| हीरों की चमक चौंधिया देने वाली थी| बाईस हीरे-कुछ मात्र के दानों जितने छोटे, कुछ कंचो जितने बड़े| लालची दुकानदार का मुंह सुख रहा था| किसी तरह वह बोला, “कितने पैसे, अ..अ…अ…इन लपलौसों के?”

“दस लाख रुपये, साहब,” पलक झपकाए बिना नत्थू बोला|

“क्या..आ? दस लाख? यह तो बहुत…,” चंपक लाल ने कहना शुरू किया ही था कि नत्थू ने उसे बीच में ही उसे चुप करा दिया|

“ठीक है, ठीक है, पर मै एक पैसा भी कम नहीं लूंगा| लपलौस मेरे अकेले के नहीं, सारे कबीले के हैं| और मुझे लौटकर सबको उनका हिस्सा देना है,” नत्थू बोला|

चंपक लाल सोचने लगा| छत्तीसगढ़ में हीरों की खदाने तो हैं, लेकिन सबको खोदा नहीं गया है| इन आदिवासियों को जंगल का कोना-कोना मालूम है और हो सकता है कि वे कई सालों से दौलत जमा कर रहे हों|

फिर चंपक लाल को नत्थू की  हीरों का सही दाम आंकने की काबलियत की भी पता था| अगर वह हजार रूपये का घड़ा सिर्फ अस्सी रूपये में बेच सकता है तो जो हीरे यह दस लाख में बेच रहा है, उनकी असली कीमत क्या होगी? व्यापारी का दिमाग यह सोचकर चकरा गया| उसने फैसला कर लिया|

“अच्छा, ठीक है, मै तुम्हारे लपलौस खरीद लूंगा,” वह नत्थू से बोला, “लेकिन मुझे इतने रूपये इकट्ठा करने का समय तो दो|”

“साहब, आप कितने अच्छे हैं? कितने दयालु हैं? मै अपनी पत्नी के मामा से मिलकर शाम तक यहीं लौट आऊंगा,” आदिवासी बोला और चला गया|

उस दिन चंपक लाल ने अपना सामान, जमा-पूंजी पत्नी के अधिकांश गहने बेच डाले और नत्थू के आने से पहले ही उसने दस लाख जुटा लिए| नत्थू के दांत भी चमक रहे थे और हीरे भी| दीपक की रोशनी में भी वे चमचमा रहे थे|

चंपक लाल हीरे गिने, उन्हें ठोंक-बाजार देखा और फिर पैसे दिए| आदिवासी ने पैसों को कपड़े में बांधा और अपनी कुल्हाड़ी के साथ उसे भी अपनर कंधे पर लटका लिया| फिर उसने दुकानदार को सलाम बजाया और घने जंगल में गायब हो गया|

अगले दिन, चंपक लाल हीरे बेचने शहर गया| जौहरी ने हीरे जांचे और अपना सिर हिलाते हुए बोला, “चमकते तो बहुत हैं, पर ये हीरे नहीं हैं| कांच है, सिर्फ कांच|”

चंपक लाल के तो होश उड़ गए| सस्ते सौदे और मुनाफे की सब योजनाएं धरी रह गईं| उसने सोचा था कि वह आदिवासी को बेवकूफ बना रहा है, पर असल में तो नत्थू ने जाल फेंका था और वह उसमे फंस गया था|

छत्तीसगढ़ में यह कहानी लोग कबिता के रूप में सुनाते हैं:

कौआ का धोखा में तीतर बिकाईस

और बिकाईस रंगना

अब जो पड़े लपलौस धमाका

न घर सोहे, न अंगना

रुपए की