लालच बुरी बला
गोदावरी नदी के किनारे पर बसे घने जंगल में एक बहेलिए ने अपना जाल फैलाकर उसके चारों ओर चावल बिखेर दिए तथा स्वयं चुपचाप छिपकर बैठ गया|
“लालच बुरी बला-2” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio
थोड़ी देर बाद आकाश में उड़ते-कबूतरों के एक दल ने चावलों को देखा तो उनके मुहँ में पानी भर आया| कबूतरों के मुखिया चित्रग्रीव ने उस सुनसान जंगल में इधर-उधर बिखरे चावलों को देखकर यह अनुमान लगाया कि आसपास ज़रूर कोई शिकारी छिपकर बैठा है|
उसने कबूतरों को निर्देश दिया कि चावलों के लालच में न पड़े, यह ज़रूर किसी शिकारी की चाल है| फिर भी कबूतर अपने आपको रोक नही पा रहे थे|
चित्रग्रीव ने उन्हें समझाते हुए कहा- ‘इसी शिकारी की तरह एक बूढ़े शेर ने भी प्रलोभन देकर न जाने कितने प्राणियों की जान ले ली थी| वह शेर इतना अधिक बूढ़ा हो गया था कि उसके लिए अपना भोजन तक जुटाना कठिन हो गया था| उसे कहीं से सोने का एक कंगन मिला और तुरंत उसे एक युक्ति सूझी|
एक नदी के किनारे खड़ा होकर वह आते-जाते राहगीरों को सुनाते हुए कहने लगता था, ‘मैं अब बहुत बूढ़ा हो गया हूँ| मृत्यु के काफ़ी निकट पहुँच चुका हूँ| जीवनभर इस पापी पेट के लिए मैंने बहुत से जीवों की हत्या की है| अब मुझ में विवेक और वैराग्य के भाव जाग उठे है| मेरे पास यह सोने का कंगन है| मैं इसे दान में देकर कुछ पुण्य कमाना चाहता हूँ| कोई महानुभाव मुझसे दान लेकर मुझे कृतार्थ करने की कृपा करे|’
‘तू एक हिंसक और भयंकर प्राणी है| समीप आने पर तू मुझे मारकर खा जाएगा, इसलिए तुझ पर विश्वास नही किया जा सकता|’ राहगीर कहते हुए और आगे बढ़ जाते|
आखिरकार एक लालची वक्ती उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया|
‘मुझे कंगन पाने के लिए क्या करना होगा?’ उसने पूछा|
‘कुछ नही, तुम केवल इस नदी में स्नान करके आओ और फिर हाथ में जल लेकर अपना नाम बोलकर संकल्प करो और यह कंगन ले लो|’ शेर मन-ही-मन खुश होता हुआ बोला|
राहगीर बिना विचार किए स्नान के लिए नदी में उतर गया| नदी में गहरा दलदल था, जिसमें वह धँसता चला गया और काफ़ी ज़ोर लगाने पर भी बाहर न निकल सका| इस प्रकार शेर को उसका भोजन मिल गया और लोभ के कारण उस राहगीर को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा| वह बूढ़ा और धूर्त शेर इस प्रकार लोभी व्यक्तियों को फँसाकर अपना जीवनयापन करता रहा| अतः मित्र! बिना सोच-विचार किए किसी कार्य को नही करना चाहिए|’
उन्हीं कबूतरों में से एक लालची कबूतर ने कहा, ‘बड़े-बूढों का कहना संकटकाल में ही महत्व रखता है| यदि हर कार्य में उनकी बातें मानने लगे तो जीना कठिन हो जाएगा और भोजन मिलना भी दुर्लभ हो जाएगा| मित्रों! अगर सभी बातों पर संदेह करने लगोगे तो भूखों मर जाओगे| अतः मेरी बात मानो, चावल खाकर अपनी भूख मिटाओ|’
अपने साथी की बात मानकर कबूतर चावल खाने के लालच में नीचे उतर आए और जाल में फँसकर अपने उस साथी को भला-बुरा कहने लगे|
चित्रग्रीव ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘साथियों! अब आपस में लड़ना छोड़ो और इसे अपने भाग्य का खेल समझकर मुक्त होने के संबंध में सोच-विचार करो| जब संकट आता है तो बुद्धि उलटी हो जाती है| वह न चाहते हुए भी भटक जाती है| कहा भी गया है कि ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि|’ इसलिए एक-दूसरे पर दोषारोपण न करते हुए एक साथ ज़ोर लगाकर जाल के साथ उड़ने की चेष्टा करो|’
सभी कबूतरों ने चित्रग्रीव के कथन का पालन किया और जाल के साथ उड़ गए| कबूतरों को जाल के साथ उड़ते देखकर बहेलिया हक्का-बक्का रह गया| बहेलिया कुछ दूर उनके पीछे यह सोचकर भागा कि यह कबूतर संगठित होकर उड़े अवश्य जा रहे है, परंतु ये थककर ज़रूर गिर पडेंगे और तब मैं इन्हें अपने वश में कर लूँगा| लेकिन बहुत दूर तक पीछा करने के बाद भी जब कबूतर नही गिरे तो वह निराश होकर हाथ मलता हुआ अपने घर की ओर लौट चला|
बहेलिए को लौट गया देखकर चित्रग्रीव ने अपने साथियों से कहा, ‘साथियों! मेरा एक मित्र हिरण्यक नामक चूहा गण्डकी नदी के किनारे चित्रवन में रहता है| वह इस जाल को काट देगा|’
हिरण्यक के निवास पर पहुँचकर चित्रग्रीव ने उसे पुकारा तो मूषकराज अपने मित्र की आवाज़ पहचान कर अपने बिल से बाहर निकल आया| जैसे ही हिरण्यक की निगाह जाल पर पड़ी तो फौरन स्थिति को समझ गया और अपने मित्र के बंधन काटने लगा| चित्रग्रीव ने उसे रोकते हुए कहा, ‘पहले मेरे साथियों के बंधन काटो मित्र, उन्हें मुक्त करने के बाद ही मुझे इस जाल से मुक्ति दिलाना|’
‘मेरे दाँत अब काफ़ी कमज़ोर हो गए है, मित्र| इसलिए मैं सबके बंधन नही काट पाऊँगा|’ हिरण्यक ने अपनी मज़बूरी बताई|
‘नही मित्र! जब तक मुझ पर आश्रित मेरे साथी स्वतंत्र नही हो जाते तब तक मैं भी इस जाल से मुक्त नही होऊँगा|’
‘तुम धन्य हो मित्र! जब तक मेरे दाँत है, तब तक मैं इस जाल को काटता रहूँगा|’ हिरण्यक ने यह कहकर सबको कुछ ही देर में बन्धनमुक्त कर दिया|
चित्रग्रीव ने हिरण्यक के प्रति कृतज्ञता जताई और उससे विदा लेकर अपने निवास की ओर चल दिए|
कथा-सार
लोभ, लालच मनुष्य के प्रबलतम शत्रु है| इनके मोह में फँसकर प्राणी कुछ भी करने को तैयार हो जाता है| यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी संकट में डाल देता है, जैसा लालची कबूतरों के साथ हुआ| अतः बड़े-छोटे का ध्यान किए बिना अच्छे मित्रों की संख्या बढ़ाते जानी चाहिए तथा व्यर्थ का अहंकार नही पालना चाहिए, न जाने कौन कब काम आ जाए| धनी हो या निर्धन, राजा हो या फ़कीर- नल से पानी पीने के लिए झुकना सभी को पड़ता है|