कुत्ता या बकरी
पंडित रामशंकर यजमानी करके दूसरे गाँव से अपने घर कि ओर लौट रहे थे| वे बहुत प्रसन्न थे क्योंकि दक्षिणा में उन्हें बकरी मिली थी| पंडित रामशंकर की ख्याति आसपास के गाँवों में फैली हुई थी|
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रास्ते से गुजरते समय बीच में बियावान जंगल पड़ता था और पंडितजी की मारे डर के घिग्गी बंधी जा रही थी क्योंकि जंगल में चोर-लुटेरो व ठगों की भरमार थी और वे किसी भी राह चलते को लूट लेते थे| जंगल शुरू होते ही पंडितजी ‘राम-राम’ जपते हुए रास्ता पार करने लगे| भय था कि कोई उन्हें लूट न ले|
उसी जंगल में चार धूर्त ठग भी टकटकी लगाए अपने शिकार की प्रतीक्षा में थे| जब उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति दुधारू बकरी लिए चला आ रहा है तो उनकी बाँछे खिल गई|
चारों सोचने लगे, बकरी को कैसे प्राप्त किया जाए? ठगों का मुखिया बेहद तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी था| बोला, ‘मैंने रास्ता निकाल लिया है|’
चारों सिर जोड़कर बैठ गए और मुखिया उन्हें अपनी योजना से अवगत कराने लगा| मुखिया की बात पूरी होते ही चारों खुशी से नाचने लगे और मुक्त कंठ से योजना की सराहना करने लगे|
जैसी उनकी योजना थी, उसके अनुसार दो ठग तो वही निकट खड़े रहे और दो आगे बढ़ गए| ज्योंहि पंडित रामशंकर उनके निकट पहुँचे तो एक ठग बोला, ‘जय रामजी की पंडितजी!’
‘पायं लागूं ब्राह्मण देवता|’ दूसरा ठग बोल उठा|
पंडितजी ने उनके अभिवादन के प्रत्युतर में उन्हें आशीर्वचन कहे| तभी एक ठग बोल उठा, ‘महाराज! यह कुता तो किसी अच्छी जाति का लगता है- कहाँ से मिला?’
पंडितजी ने हैरान-परेशान होकर बकरी की ओर देखा और बोले, ‘अरे ओ जड़बुद्धि मनुष्य! यह बकरी तुझे कुता दिखाई दे रही है, यह तो मुझे दक्षिणा में मिली है|’
दूसरा ठग जो अवसर की ताक में बैठा था, बोला, ‘प्रियवर! आपको ज़रूर कोई भ्रम हो रहा है, ज़रा गौर से देखिए, यह तो कुता ही है| किसी ने आपके साथ मज़ाक किया है|’ कहकर वे दोनों ठग वहाँ से चले गए और इधर पंडितजी बार-बार बकरी को देखते हुए सोचने लगे- दोनों आदमी इसे कुता कह रहे थे, कहीं यही तो सच नही| किसी प्रकार मन को काबू करके वे बकरी लेकर आगे बढ़ गए|
अभी वे कुछ दूर चले थे कि योजनानुसार वहाँ खड़े शेष दोनों ठग उन्हें अपलक देखने लगे| पंडितजी ने सोचा, कौन है ये लोग, जो मुझे इस प्रकार से घूर रहे है|
तभी उनमें से एक आगे बढ़ा और पंडितजी के चरणों में झुकता हुआ बोला, ‘चरणवंदना स्वीकार करे|’ अभी पंडितजी जवाब में कुछ कहने जा ही रहे थे कि वह बोला, ‘यह कुता लिए आप कहाँ से आ रहे है? क्या आपके गाँव में कुते कम है, जो इसे लिए जा रहे हो?’
पंडितजी ने हैरान-परेशान होकर बकरी की ओर देखा और कुछ सोचकर बोले, ‘अरे भाई! आँखें नही है क्या? देखते नही यह बकरी है…बकरी; और तुम इसे कुता कह रहे हो?’
‘नही-नही पंडितजी, धोखा तो आपको हुआ है- यह कुता ही है|’ तभी चौथा ठग बीच में हस्तक्षेप करता हुआ बोला, ‘पंडितजी! आप तो नाहक कुपित हो रहे है| ठीक तो कह रहा है यह बेचारा- कुते को कुता न कहे तो क्या कहे?’
अब पंडितजी के सब्र का बाँध टूट गया- वह ज़ोर से चिल्लाकर बोले, ‘मैं पागल हो जाऊँगा| कैसे मूर्खों से पाला पड़ा है, जो बकरी को कुता बता रहे है|’
‘महाराज, हमारी आपसे कोई शत्रुता तो है नही, जो हम ऐसा कह रहे है| मूर्ख तो आपको बनाया गया है, जो बकरी कहकर कुता दान में दे दिया|’
अब पंडित रामशंकर की दशा ‘आगे समुद्र पीछे खाई’ जैसी हो गई| उन्हें विश्वास हो गया कि जो वह दक्षिणा में ला रहे है, वह कुता ही है, बकरी नही| उन्होंने उसे वहीं जंगल में छोड़ दिया और अपने यजमान को कोसते हुए घर की ओर चल दिए| इस प्रकार ठगों ने चतुराई दिखाकर पंडितजी की बकरी हथिया ली|
कथा-सार
आत्मविश्वास बहुत बड़ी चींज है| चार-पाँच आदमी भरी दोपहरी को रात कहे तो रात नही हो जाएगी| पंडितजी के साथ भी ऐसा ही हुआ- चार ठगों ने उनकी बकरी को कुता कहा और वह भी ऐसा ही समझे| अतः परिस्थितियाँ पहचानकर स्वविवेक से निर्णय करनेवाला प्राणी ही बुद्धिमान कहलाता है|