कुल का नाश
महाभारत-युद्ध के दिनों में श्रीकृष्ण एवं श्री बलराम के यादव कुल की प्रशंसा इन शब्दों में की थी वे ‘वृद्धों’ की आज्ञा में चलते हैं|
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अपने सजातियों का अपमान नहीं करते…ब्राह्मणों, गुरुओं और सजातियों के धन के प्रति अहिंसावृति रखते हैं|…धनवान् होकर भी अभिमान-रहित हैं, ब्रहा के उपासक तथा सत्यवादी हैं|
समर्थों का मान करते है और दोनों की सहायता करते हैं| सदा भगवान् की उपासना में रत, संयमी और दानशील रहते हैं| डींगे नहीं मारते, इसीलिए वृष्णि वीरों का राज्य नष्ट नहीं होता| उस व्यक्ति के बावजूद यादवों का कुल महाभारत के युद्ध के कुछ समय बाद ही नष्ट हो गया| यादवों को मधपान की बड़ी लत थी| कृष्ण-बलराम आदि यदु नेताओं ने राष्ट्रभर में विज्ञप्ति प्रसारित कराई कि मध-निर्माण राजाज्ञा द्वारा वर्जित है, आज के बाद जो मधपान करेगा, उसे बान्धवों सहित प्राणदंड दिया जाएगा| इस आदेश से कुछ समय तक मध का प्रयोग रुक गया, परंतु बाद में उच्छखल यादवों ने इस व्यसन का अभ्यास और बढ़ा दिया| एक दिन द्वारका के निकट प्रभात तीर्थ में समुद्र-तट पर बैठे यादव नाचरंग देख रहे थे कि शराब का दौर चलने लगा| सात्यकि ने कृतकर्मा की निंदा की तो कृतकर्मा ने सात्यकि को बुरा-भला कहा| शराब के नशे में सात्यकि अपने-आप में नहीं रहा| उसने तलवार से कृतकर्मा का सिर काट डाला| अन्धक और भोज सात्यकि के विरुद्ध हो गए| श्रीकृष्ण पुत्र प्रधुम्न ने सात्यकि का पक्ष लिया| दोनों दलों ने तलवारें खींच ली और एक-दूसरे पर टूट पड़े| इस मुठभेड़ में सारे यादवकुल का नाश हो गया| इस कहानी से ज्ञात होता है कि आपसी दुश्मनी कुलों का नाश कर देती है|