क्षमा बड़ेन को चाहिए
किसी समय केदार पर्वत पर शुभनय नाम के एक महामुनि रहते थे| वे सदैव मंदाकिनी के जल में स्नान करते थे| उन्होंने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया था और कठोर तपस्या करते रहने के कारण उनकी काया कृश (दुबली-पतली) हो गई थी|
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एक रात कुछ चोर उनकी कुटी के पास पहुंचे| वे वहां उस सोने को ढूंढने के लिए आए थे, जिसे उन्होंने चोरी करके प्राप्त किया था| चोर मुनि शुभनय की कुटी के समीप ही एक स्थान पर उस चोरी से प्राप्त सोने को जमीन में गाड़ गए थे| उन चोरों ने उस सोने की बहुत खोज की, किंतु उन्हें वह सोना नहीं मिला| तब उन्होंने यही सोचा कि इस निर्जन स्थान में रहने वाले इस मुनि ने ही वह सोना निकाल लिया है|
ऐसा सोचकर चोर मुनि की कुटिया में पहुंचे और मुनि ने कहा – “अरे, कपटी मुनि! तुमने जमीन में गड़ा हुआ हमारा जो सोना ले लिया है, उसे हमें वापस कर दो| तुम तो हम चोरों से भी बढ़कर महाचोर मालूम होते हो|”
मुनि ने उन चोरों का धन नहीं लिया था, फिर भी जब उन्होंने झूठा आक्षेप उन पर लगा दिया तो उन्होंने कहा – “तुम लोग व्यर्थ ही मुझ पर झूठा आक्षेप लगा रहे हो| मैं एक साधु हूं| मुझे धन की लिप्सा नहीं है| मैंने न तो तुम्हारा धन लिया है और ना ही किसी को ले जाते देखा है|”
मुनि का ऐसा उत्तर सुनकर चोर क्रोधित हो उठे| उन्होंने पहले मुनि को डंडों से खूब पीटा, इस पर भी मुनि अपनी बात दोहराते रहे तो उन क्रूर चोरों ने मुनि के हाथ-पैर काट डाले और उनकी आंखें निकाल लीं|
इतना सब कुछ हो जाने पर भी मुनि अपनी बात पर अडिग रहे| वे कहते रहे – “मैं चोर नहीं हूं, मैंने चोरी नहीं कि है|” तब वे चोर यह समझकर कि शायद किसी अन्य व्यक्ति ने उनके धन को चुरा लिया है, वहां से चले गए|
अगले दिन सवेरे मुनि का शिष्य राजा शेखरज्योति उनके दर्शन के लिए वहां पहुंचा| अपने गुरु की ऐसी दुर्दशा हुई देखकर उसे भारी दुख पहुंचा| उसने मुनि से इस विषय में पूछा तो मुनि ने सारी बात बता दी|
सुनकर राजा ने कहा – “गुरुदेव! अब आप चिंता मत कीजिए, मैं उन चोरों को खोजकर उन्हें ऐसा कड़ा दंड दूंगा कि उनकी आगामी सात पुश्तें भी चोरी एवं हत्या जैसे जघन्य कर्म करने से तौबा कर लेंगी|”
नगर पहुंचकर राजा ने अपने गुप्तचर सारे राज्य में फैला दिए ताकि वे उनके गुरु की ऐसी दुर्दशा करने वाले उन चोरों को पकड़कर उनको राजा के समक्ष प्रस्तुत कर सकें| राजा के गुप्तचरों ने शीघ्र ही उन चोरों को खोज निकला| वे सब पकड़े गए और दंड देने के लिए राजा के समक्ष पेश किए गए|
मुनि के समक्ष ही राजा ने आज्ञा सुनाई – “इन बर्बर लुटेरों के हाथ-पैर काटकर इन्हें सूली पर तब तक लटकाया जाए, जब तक कि इनके प्राण न निकल जाएं|”
राजा की आज्ञा सुनकर चोर रोने लगे| उनके सगे-संबंधी भी दहाड़ें मारकर विलाप करने लगे| उनका करुण क्रंदन सुनकर मुनि का कोमल हृदय पसीज उठा| मुनि ने राजा शेखरज्योति से कहा – “राजा शेखरज्योति! मेरा आग्रह है कि इन नादान व्यक्तियों का वध न किया जाए|”
मुनि के ऐसे वचन सुनकर राजा हैरान रह गया| ऐसे दुर्दमनीय, ऐसे निकृष्ट लोगों को मुनिवर छोड़ देने की बात कर रहे हैं, जिन्होंने मुनि को घोर कष्ट पहुंचाया| वह बोला – “गुरुदेव! ये लोग जीने के योग्य नहीं हैं| इन्होने राज्य के न जाने कितने घरों में चोरियां की हैं, धन प्राप्त करने के लिए इन्होंने हत्या जैसे घृणित कार्य भी किए हैं| इन्हें तो दंड अवश्य ही मिलना चाहिए| यदि आपके कहने पर मैंने इन्हें क्षमा कर दिया तो इससे राज्य में अव्यवस्था फैल जाएगी| अन्य लोगों को बुरे काम करने की प्रेरणा मिलेगी|”
“राजन!” शांत चित्त होकर मुनि बोले – “राज व्यवस्था को चलाना राजा का कार्य होता है| अब यह अलग बात है कि वह कुशलता से राज्य का संचालन करता है अथवा अकुशलता से| राजा अगर कुशलता से राज्य की व्यवस्थासंभालेगा, गरीब प्रजा के हित के कार्य करेगा तो राज्य में अव्यवस्था की स्थिति पैदा ही न होगी और प्रमाद में फंसकर यदि वह राज्य-कार्यों से विमुख हो गया तो राज्य में अव्यवस्था तो फैलेगी ही| राजन! कोई भी व्यक्ति चोरी और हत्याएं जैसे दुष्कर्म सिर्फ इसलिए नहीं करता कि उसे ऐसा करने का शौक है| ऐसे दुष्कर्म तो उसकी विवशताएं उससे कराती हैं| ‘विभुक्षति किम न करोति पापं!’ व्यक्ति भूखा होने पर ही पाप कर्मों की ओर उन्मुख होता है, अत: राजा का भी यह कर्तव्य बनता है कि वह अपनी प्रजा में ऐसे व्यक्तियों की खोज करे कि कौन व्यक्ति दरिद्रता की किस सीमा तक जीवनयापन कर रहा है, फिर यथासंभव उन्हें सहायता प्रदान कर उनके उत्थान का मार्ग प्रशस्त करे|”
मुनि ने राजा को आगे समझाया – “राजन! तुम इन चोरों का वध इसलिए करना चाहते हो कि इन्होंने मुझे उत्पीड़ित किया है तो तुम गलती पर हो| मेरी यह दशा इन्होंने नहीं की, मेरी यह दशा तो इनके शस्त्रों (हथियारों) ने की है| यहां तुम प्रश्न कर सकते हो कि उन शस्त्रों को चलाने वाले यही थे तो इसका उत्तर यह है कि शस्त्र चलाने की प्रेरणा इन्हें क्रोध ने दी| स्वर्ण न मिलने के कारण इन्हें क्रोध आया| इनके स्वर्ण खो जाने का कारण मेरा ही पूर्वकृत अपराध था| मेरे अपराध का कारण मेरा अज्ञान था, अत: मेरा अपकार करने वाला तो मेरा अज्ञान हुआ| मेरे लिए उस अज्ञान को मारना ही उचित है| तनिक सोचो राजन, अगर अपकार करने के कारण ये चोर वध करने योग्य हैं तो उपकार करने के कारण रक्षा करने योग्य क्या नहीं है? यदि इन्होने मेरी यह हालत न की होती तो मोक्षफल देने वाली क्षमा मैं किस पर प्रयोग करता| हे राजन! इन्होने तो एक तरह से मुझ पर उपकार ही किया है|”
क्षमाशील मुनि का ऐसा सारगर्भित उपदेश सुनकर राजा का क्रोध जाता रहा| उन्होंने उन चोरों को मुक्त कर दिया| क्षमाशीलता का व्यवहार करने के कारण मुनि का शरीर भी उनके तपोबल से पहले की तरह ही अक्षत हो गया और इसके बाद उन्हें सिद्धि भी प्राप्त हो गई, इसीलिए तो कहा गया है कि जो व्यक्ति क्षमाशील होते हैं, वे अपनी क्षमाशीलता के कारण इस संसार रूपी सागर को पार कर जाते हैं|