कृष्ण की राजसी होली
जैसे-जैसे होली का दिन समीप आ रहा था, कृष्ण की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। इसी बीच उनका मन कई बार चाहा कि वे स्वयं रथ हाँकें और सुरक्षाकर्मियों, को चकमा दे कर तीव्र गति से ब्रजप्रदेश पहुँच जाएँ, परंतु नटवरलाल सुरक्षाकर्मियों के समक्ष जैसे विवश हो गए थे।
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कृष्ण ने अपने सखा और सलाहकार उद्धव को बुलाया। (स्पष्टीकरण : उद्धव कृष्ण के साथ स्कूल में नहीं पढ़े थे, फिर भी सखा और सलाहकार थे, यह द्वापरयुग की बात है, कलियुग की नहीं) श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा, ‘हे मित्र, ब्रज की बार-बार याद आने से हृदय गोप-गोपिकाओं से मिलने को मचल रहा है। मैं होली के अवसर पर ब्रजप्रदेश जाना चाहता हूँ। गोपिकाओं के गुलाबी गालों पर गुलाल मलने के लिए मेरे हाथ तड़प रहे हैं। गोप-सखाओं के साथ मिल कर होली का हुड़दंग मचाने के लिए हृदय में तरंगें उठ रही हैं। कुछ करो, मित्र’!
‘मैं तुम्हारे हृदय की दशा समझता हूँ मित्र, परंतु सुरक्षा की दृष्टि से इस समय ब्रज प्रदेश जाना उचित नहीं है, गुप्तचरों से सूचना मिली है कि अभी भी कंस के कुछ ऐसे विश्वासपात्र सेवक बचे हैं, जो तुम्हारी हत्या करना चाहते हैं। ब्रज की गोपिकाओं के प्रति तुम्हारे अनुराग से वे अच्छी तरह परिचित हैं, हो सकता है कि होली के अवसर पर ब्रज में तुम्हारी हत्या का षड्यंत्र रचा जा रहा हो,’ उद्धव बोले।
‘इसका अर्थ हुआ इस बार हम होली नहीं खेल सकेंगे,’ कृष्ण खीझ कर बोले। ‘क्यों नहीं खेल सकेंगे! अब तो आप राजा कृष्ण हैं, आप चाहें तो पूरा वर्ष होली खेल सकते हैं। अब आपको केवल होली खेलनी ही नहीं है, होली पर प्रजा के नाम से संदेश भी प्रसारित करना है।’
‘होली पर प्रजा के नाम संदेश! कैसा संदेश?’ कृष्ण ने सश्चर्य कहा।
कौन व्यक्ति किस पल पर कैसे आप पर रंग फेंकेगा, इसके एक-एक क्षण को तय कर लिया गया है। जो आप पर रंग डालेंगे, वे उत्तर दिशा में आप से बीस गज दूर होंगे। उनके पीछे सुरक्षा कर्मचारी तत्पर रहेंगे और जिन पर आप रंग डालेंगे, वे पश्चिम दिशा में रहेंगे।
‘यही कि प्रजाजन होली को सद्भावपूर्वक मनाएँ। एक-दूसरे से मिल-जुलकर, भेदभाव भूलकर होली खेलें। आपका संदेश-सचिव होली का संदेश देने के लिए उसका प्रारूप तैयार कर रहा है।’
यह सुन कर कृष्ण बहुत जोर से हँसे, ‘होली पर संदेश…प्रजा तो सद्भावपूर्वक होली मनाएगी ही। मेरे संदेश देने से क्या होनेवाला है, मित्र? हाँ, इससे लोगों को यह ज्ञान अवश्य हो जाएगा कि होली भेदभाव के साथ ही मनाई जा सकती है।’
‘जानता हूँ इन संदेशों का कोई विशेष लाभ नहीं होता, फिर भी ये दिए जाते हैं। जनता भी इन संदेशों को निस्पृह भाव से सुनती है। इनका सुनना क्या और न सुनना क्या! संदेश देने वाला भी इस भाव से देता है कि जो सुने उसका भला, जो न सुने उसका भी भला, परंतु राजा को संदेश देना ही पड़ता है,’ उद्धव बोले।
‘यानी कि हम होली का संदेश देंगे, होली नहीं खेलेंगे,’ श्रीकृष्ण ने चुटकी ली।
‘क्यों नहीं खेलेंगे,’ आपकी राजसी होली की तैयारियाँ तो दो माह से चल रही हैं, जो लोग आपसे होली खेलने आएँगे, उनके चुनाव की प्रक्रिया लगभग समाप्त हो चुकी है। होली खेलने वालों के चरित्र, रहन-सहन, स्वभाव आदि की पूरी विवरणी तैयार कर ली गई है। इनको होली का प्रशिक्षण देने के लिए अनेक कुशल होली वीर स्थान-स्थान से बुलाए गए हैं। रंग के लिए टेसू के फूलों का एक उपवन तैयार किया गया है, जिसकी रक्षा का भार सौ पहरेदारों पर है। चौंसठ प्रकार के गुलालों की रचना करने के लिए दो सौ कारीगरों की व्यवस्था की गई है। दो सौ पिचकारियों के निर्माण का कार्य विशेष सुरक्षा में चल रहा है।
कौन व्यक्ति किस पल पर कैसे आप पर रंग फेंकेगा, इसके एक-एक क्षण को तय कर लिया गया है। जो आप पर रंग डालेंगे, वे उत्तर दिशा में आप से बीस गज दूर होंगे। उनके पीछे सुरक्षा कर्मचारी तत्पर रहेंगे और जिन पर आप रंग डालेंगे, वे पश्चिम दिशा में रहेंगे। उनके हाथ में कुछ नहीं होगा,’ उद्धव एक साँस में सब बोल गए।
‘यानी आपका अर्थ है कि जो हम पर रंग डालेंगे, हम उन पर रंग नहीं डालेंगे, उनके हाथ में पिचकारियाँ नहीं होंगी। वे केवल अपने ऊपर रंग डलवाएँगे, ये कैसा हास्यास्पद होगा! यह होली है या होली का स्वांग? कृष्ण झुझंला कर बोले।
‘राजा तो होता ही है स्वांग करने के लिए, मित्र! गरीबों को देख कर एक पल में उसके चेहरे पर दुःख-दर्द छा जाता है और अमीरों को देख कर अगले ही क्षण उसका चेहरा राजीव सा खिल जाता है। वह एक क्षण विवाह में सम्मिलित हो कर मुस्कुराता है और दूसरे क्षण शवयात्रा में सम्मिलित हो कर उदास हो जाता है, परंतु उसका हृदय न तो प्रसन्न होता है और न ही दुःखी’, उद्धव ने समझाया।
‘नहीं मित्र, नही! राजा होने का अर्थ यह नहीं है कि हम प्रजा से दूर हो जाएँ प्रजा क्या सोचेगी? जो कृष्ण कल तक ब्रज की गलियों में होली खेला करता था, जो आम जनता के घरों से मक्खन चुराया करता था, जो कल तक वन में गाय चराया करता था, वही कृष्ण राजा बन कर इतना विश्ष्टि हो गया कि राजसी होली खेल रहा है। होली खेल नहीं रहा है, होली का स्वांग कर रहा है। कृष्ण की छवि ऐसी नहीं है, वह तो किसी गरीब के झोपड़े में घुस कर होली खेल सकता है। नहीं मित्र, कृष्ण को राजसी होली की छवि नहीं चाहिए।’
‘छवि की आप चिंता मत करें मित्र, मैंने प्रचारमंत्री से कहकर सब प्रबंध करवा लिया है। महल के एक भाग में झोपड़ियों का निर्माण किया गया है। आपसे होली खेलने के लिए हर वर्ग की पोशाक पहने अलग-अलग व्यक्ति आएँगे। होली खेलते समय आपके प्रत्येक भाव-अनुभाव के सैकड़ों चित्र बना कर वितरित किए जाएँगे। राज्य पर थोड़ा आर्थिक संकट है, अतः आपकी छवि सादगीभरी होली खेलने वाले राजा की होगी। जनता से भी अनुरोध किया जाएगा कि वह भी सादी होली खेले और बचत करे, उद्धव ने समझाया।
‘सादी होली…. हा-हा-हा, हमारे लिए सादी होली का जैसा प्रबंध तुमने किया है, उसे देखकर तो देवता भी चकित हो रहे हैं। हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर जितना हो रहा है उससे…’
‘यह आपका सिरदर्द नहीं है, मित्र!’ उद्धव ने बात काटते हुए कहा, ‘आप तो होली खेलने के लिए अपना मन तैयार रखें।’
‘हमें नहीं खेलनी है ऐसी यांत्रिक होली। हम होली खेलेंगे तो ब्रजवासियों के साथ वरना होली नहीं खेलेंगे,’ कृष्ण ने रूठते हुए कहा।
उद्धव ने यह सुन कर थोड़ा चिंतन किया और बोले, ‘अच्छा मित्र, इसका भी उपाय मैंने सोचा है, हम सब होली खेलने किसी द्वीप पर चलेंगे, वहाँ आपके कुछ अत्यंत अंतरंग गोप-गोपी मित्र होंगे, उनके साथ आप छुट्टियाँ भी मना लेना और होली भी खेल लेना।’
प्रस्ताव अच्छा था, कृष्ण मान गए।