किस्सा अँधे फ़कीर का
बगदाद के खलीफ़ा हारून रशीद एक दिन महल में उदास बैठे थे| तभी उनका वज़ीर जाफ़र किसी काम से वहाँ पहुँचा| बादशाह को चिंतित देखकर वह चुपचाप हाथ बाँधकर एक और खड़ा हो गया|
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थोड़ी देर बाद खलीफ़ा ने उठकर उसकी ओर देखा और पुनः आँखें नीची कर ली| वह मुहँ से कुछ न बोले| यह देखकर वज़ीर से रहा न गया| उसने बड़े अदब से झुककर पूछा, “हुजूर! आज यह कैसी उदासी आप पर छाई हुई है? ऐसी क्या सोच है जो आप इतने फिक्रमंद है?”
खलीफ़ा बोले, “कोई विशेष बात नही है| कभी-कभी मेरी ऐसी ही हालत हो जाती है| अब तुम कोई तरकीब बताओ, जिससे हमारी तबियत बहले और दिल पर से यह बोझ हटे|”
इस पर वज़ीर ने कहा, “हुजूर का हमेशा दस्तूर रहा है कि आप अक्सर वेश बदलकर रियाया का हल जानने के लिए शहर में गश्त लगाया करते है| आज का दिन तो खासतौर से हुजूर ने इसी लिए मुकर्रर किया हुआ है, इसलिए बेहतर हो कि अगर कुछ वक्त इसी काम में लगाया जाए|”
यह सुनकर खलीफ़ा उठे और मुस्कुराकर बोले, “तुमने खूब याद दिलाया, जाफ़र! जाओ तुम भी वेश बदलकर आओ| तब तक हम भी अपना वेश बदलकर तैयार होते है| फिर दोनों दो घड़ी शहर का चक्कर लगाएँगे और अपनी रियाया का हाल-चाल जानेंगे कि वहाँ क्या हो रहा है?”
थोड़ी देर बाद दोनों वेश बदलकर तैयार हो गए और शहर की गश्त पर निकल पड़े| उस समय दोनों ने सौदागरों का वेश धारण किया हुआ था| चलते-चलते वे दोनों शहर से बाहर निकल गए| आगे एक नदी थी| नदी पर पुल बना हुआ था| दोनों चाहते थे कि नदी पार की बस्तियों में कुछ देर घूमा जाए| जब वे दोनों नदी के पुल के ऊपर से गुजर रहे थे, तभी पुल के नुक्कड़ पर बैठे एक अँधे फ़कीर का स्वर उनके कानों में पड़ा, “अँधे मोहताज को कुछ देते जाओ, दाता| खुदा तुम्हारा भला करेगा|”
यह करुण स्वर सुनकर दोनों ठिठक गए| फ़कीर ने फिर आवाज लगाई, “ओ जाने वालों! अल्लाह के नाम पर इस अँधे फ़कीर को कुछ खैरात देते जाओ|”
खलीफ़ा को उस पर दया आ गई| उन्होंने अपनी जेब से एक अशर्फी निकाली और फ़कीर के हाथ पर रख दी| तभी फ़कीर ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोला, “ऐ मेरे दाता! यह खैरात देकर तूने मुझ अँधे पर बहुत अहसान किया है| अब एक मेहरबानी और कर दो|”
“वह क्या?” खलीफ़ा ने पूछा|
वह बोला, “मेरे सिर पर एक धौल जमाओ, क्योंकि मैं इसी सजा के योग्य हूँ|” यह कहकर उस फ़कीर ने खलीफ़ा का हाथ छोड़कर उसका दामन पकड़ लिया|
खलीफा अँधे की बात पर बहुत हैरान हुए| वह बोले, “ऐ भले आदमी! मैं तेरे सिर पर धौल लगाकर अपने खैरात के पुण्य को क्यों नष्ट करूँ? भला यह भी कोई बात हुई?” कहते हुए खलीफ़ा ने उससे अपना दामन छुड़ाकर आगे बढ़ना चाहा, मगर फ़कीर ने खलीफ़ा का दामन कसकर पकड़ लिया| वह बोला “ऐ मेरे मेहरबान! मेरी इस गुस्ताखी को माफ़ कर दे और सिर पर एक धौल जररू लगा, नही तो अपनी दी हुई खैरात वापस ले ले- क्योंकि मैंने कसम खा रखी है कि धौल खाए बिना कोई खैरात नही लूँगा| मैं उस कसम को नही तोड़ सकता|”
अब खलीफ़ा क्या करते? मजबूरन उन्होंने फ़कीर के सिर पर धीरे से एक धौल जमा दी और अपने वज़ीर को संकेत से बढ़ने का इशारा कर दिया|
फ़कीर ने उनका दामन छोड़ दिया और अपने दोनों हाथ उठाकर उन्हें दुआएँ दी| वज़ीर और खलीफ़ा दोनों वहाँ से आगे बढ़ गए| चंद कदम जाने पर खलीफ़ा ने वज़ीर से कहा, “कल सुबह दोपहर की नमाज़ के बाद इस फ़कीर को दरबार में पेश करना| हम इसकी अजीब कसम के विषय में जानना चाहते है|”
अगले दिन वज़ीर उस फ़कीर के पास पहुँचा और उससे कहा, “कल जो व्यक्ति तुम्हें एक अशर्फी खैरात देकर गया था, वह बगदाद का खलीफ़ा है| उसने तुम्हें दरबार में बुलाया है| मेरे साथ चलो, खलीफ़ा तुमसे कुछ पूछना चाहते है|”
फ़कीर बहुत भयभीत हुआ और वह डरते-डरते खलीफ़ा के दरबार में पेश हुआ| खलीफ़ा ने पहले तो उसे आश्वस्त किया, फिर उससे उसकी अजीब कसम के बारे में पूछा|
तब फ़कीर ने उसे बताया, “हुजूर! मेरा नाम अब्दुला है| मेरी गुस्ताखी माफ़ की जाए| तब मैंने आपको पहचाना नही था|”
खलीफ़ा बोले, “माफ़ किया| अब उस कसम के बारे में बता| क्यों तूने धौल खाए बिना मेरे द्वारा खैरात दी गई अशर्फी को लेने से मना किया था?”
तब उस बूढ़े अब्दुला ने बताया-
हुजूर! मैं इसी बगदाद शहर का निवासी हूँ| मेरा जन्म इसी शहर में हुआ था| मेरे माँ-बाप मेरे लिए बहुत-सी दौलत छोड़कर मर गए थे, किंतु मैं इतना नासमझ निकला कि अपने आवारा किस्म के दोस्तों की सोहबत में पड़कर मैंने सब बर्बाद कर डाला| जब पास में कुछ न रहा तो मेरे वे सभी खुदगर्ज दोस्त मुझसे किनारा कर गए| मैं सोचता ही रह गया कि अब क्या करूँ? कभी अपने दोस्तों कि बेवफ़ाई पर सिर धुनता, तो कभी अपनी कमअक्ली पर पछताता| पर अब हो ही क्या सकता था| लाचार होकर जो कुछ जमा-पूँजी बची थी, उसे इकठ्ठा किया और किसी तरह उससे कुछ ऊँट खरीदकर उन्हें किराए पर चलाने लगा|
अब चूँकि मुझे काफ़ी अक्ल आ गई थी, इसलिए बहुत सोच-समझकर खर्च करता, कुछ आगे के लिए बचाकर रखता| जब कुछ रुपया इकठ्ठा हो जाता तो उससे फिर एक ऊँट खरीद लेटा| इस प्रकार बचाव करते-करते मेरे पास अस्सी ऊँट हो गए| उन ऊँटों से मुझे अच्छी आमदनी होने लगी| मैं फिर से ठाट-बाट की जिंदगी व्यतीत करने लगा|
एक दिन की बात है| मैं एक सौदागर का माल ज़हाज में लदवाकर अपने खाली ऊँटों को लिए वापस बगदाद लौट रहा था| रास्ते में क्या देखता हूँ कि एक बहुत बड़ा हरा-भरा चारागाह सामने है| मैंने सोचा, दो घड़ी यहाँ रुककर विश्राम कर लिया जाए| इतने में ऊँट भी अपना पेट भर लेंगे और मैं भी थोड़ा-सा सुस्ता लूँगा| यही सोचकर मैंने ऊँटों को चारागाह में चरने के लिए छोड़ दिया और खुद एक पेड़ के साए में आराम करने के लिए लेट गया| इतने में एक फ़कीर, जो बगदाद से पैदल चला आ रहा था, वहाँ आ पहुँचा| वह भी उसी पेड़ के साए में आकर बैठ गया| हम दोनों में दुआ-सलाम हुई, फिर आपस में बातचीत होने लगी| थोड़ी देर बाद मैंने खाना निकाला| खुद भी खाया और उस फ़कीर को भी खिलाया| फ़कीर इससे बहुत खुश हुआ और बोला, “यहाँ से कुछ फासले पर एक जगह है, जहाँ एक छिपा हुआ खजाना दफ़न है| उसमें इतनी दौलत है कि तुम सारे ऊँटों पर भी लाद लो, तब भी खजाना ज्यों-का-त्यों रहेगा|”
यह सुनकर मैं बहुत खुश हुआ| मैंने फ़कीर से कहा, “आप तो फ़कीर है, खुदा से लौ लगाए हुए है, इसलिए आपको उस खजाने से क्या लेना-देना? लेकिन मैं एक दुनियादार आदमी हूँ| मेहरबानी करके मुझे उस खजाने का पता बता दीजिए| मैं अपने ऊँटों को वहाँ ले जाऊँगा और उन पर वह खजाना लादकर ले आऊँगा| अगर आपका जी चाहे तो उस दौलत में से एक ऊँट लदी दौलत आप भी ले लेना| मैं खुशी-खुशी वह आपको भेंट कर दूँगा|”
अँधे फ़कीर ने आगे खलीफ़ा को बताया-
मेरे हुजूर! कहने को तो यह बात मैंने उस फकीर से कह दी, लेकिन मेरा मन मुझे अंदर-ही-अंदर कोस रहा था कि मैंने खामखाँ एक ऊँट भरी दौलत उसे देने का वादा कर लिया| यह फकीर उस दौलत का क्या करेगा? लेकिन वह फ़कीर भी अजीब था, वह बोला, “वाह! एक ऊँट भर के लिए मैं तुम्हें उस ख़जाने का पता क्या बताऊँ? हाँ, एक ही सूरत है, तुम मेरे साथ ऊँट लेकर चलो| हम वहाँ से सारी दौलत ऊँटों पर लाड़ लाएँगे| फिर उन अस्सी ऊँटों में से आधे मेरे और आधे तुम्हारे| अगर शर्त मंजूर है तो ठीक है- नही तो मैं अपना रास्ता पकड़ता हूँ|”
मैंने सोचा कि चालीस ऊँटों पर लदी दौलत ही क्या कम है? वह तो मेरी सात पुश्तों के लिए भी काफ़ी होगी| सो मैं फौरन राजी हो गया और उस फ़कीर के साथ चल पड़ा| थोड़ा सफ़र करने के बाद हम एक पहाड़ के दर्रे पर पहुँचे, जिसका रास्ता बहुत तंग था| इसलिए ऊँटों की कतार बाँधकर अंदर ले जाना पड़ा| थोड़ा आगे चलकर उस फ़कीर ने मुझसे कहा, “अब तुम ऊँटों को यही बैठाकर मेरे साथ चलो|”
मैंने ऐसा ही किया| ऊँट बैठाए और उस फ़कीर के साथ चल पड़ा| थोड़ा और आगे चलने पर उस फ़कीर ने कुछ लकड़ियाँ जमा की और चकमक पत्थर से उनमें आग जलाई| आग पर उसने जेब से निकालकर कोई खुशबूदार चीज़ फेंकी और कुछ मंत्र पढ़े, जिसका अर्थ मैं बिल्कुल भी न समझ सका| मंत्रों को पढ़ते ही आग से एक गहरा धुआँ उठा और ऊपर जाकर फट गया| जैसे ही धुँआ छटा, वहाँ एक ऐसा टीला नज़र आने लगा, जो पहले दिखाई नही देता था| फिर देखते ही देखते उस टीले तक जाने के लिए एक रास्ता अपने आप बन गया| मैंने गौर से देखा तो पाया कि वह रास्ता टीले के ऊपर बने एक बड़े से मकान के दरवाजे तक जाता था| दरवाजा उस वक्त खुला हुआ था|
हम दोनों ऊँटों समेत उस मकान तक पहुँचे| भीतर हमें दौलत के बेशुमार ढेर नज़र आए| अशर्फियाँ, हीरे, मोती, सोना, चाँदी और जवाहरात के ढेर वहाँ सजे-सजाए रखे थे| हमने जल्दी-जल्दी अपने सभी ऊँटों पर दौलत लाद ली और उस मकान में से निकल आए| फ़कीर ने दरवाजा बंद कर दिया और चलने का इशारा किया| लेकिन तभी वह फ़कीर उस खज़ाने का दरवाजा खोलकर एक बार फिर भीतर गया और वहाँ से लकड़ी के एक संदूक में से लकड़ी की एक छोटी-सी डिबिया निकाल लाया| उसने मुझे वह डिबिया इस प्रकार दिखाई, जैसे वह उस डिबिया को मुझे दिखाना नही चाहता हो| फिर उसने वह डिबिया अपनी जेब में रख ली| हम दर्रे से बाहर निकल आए| बाहर आकर हमने ऊँटों का बँटवारा किया और फिर एक-दूसरे से जुदा हो गए| फ़कीर बगदाद की ओर चल पड़ा| चलते वक्त मैंने फ़कीर का शुक्रिया अदा किया कि उसकी बदौलत मुझे इतनी दौलत मिली| लेकिन मैं अभी चंद कदम ही चला पाया था कि मेरे सिर पर शैतान सवार हो गया| मेरे दिल में लालच ने सिर उठाया और मैं सोचने लगा कि यह फ़कीर जिसके आगे-पीछे दुनिया में कोई नही है, इतनी दौलत का क्या करेगा? उल्टे इतनी दौलत की साज-संवार में इसका इतना वक्त लगेगा कि यह खुदा की इबादत करना भी भूल जाएगा| यही सोचकर मैं मुड़ा और उस फ़कीर को आवाज़ लगाई| मेरी आवाज़ सुनकर वह फ़कीर रुक गया|
मैंने उसके नजदीक पहुँचकर कहा, “बाबा! आप तो फ़कीर है| इतनी दौलत लेकर आप क्या करेंगे? फिर ऊँटों की देखभाल करने में आपको दिक्कत भी होगी, इससे बेहतर है कि अपने हिस्से के ऊँटों में से आप दस ऊँट मुझे दे दे|”
मेरी बात सुनकर फ़कीर ने पल भर सोचा, फिर बोला, “तुम ठीक कहते हो| इतने ऊँटों की देखभाल करना सचमुच मुश्किल काम है| तुम इनमें से जितने चाहो, उतने ऊँट ले लो|”
लेकिन मेरे मुहँ से तो दस ऊँट की बात निकल चुकी थी, सो मैं दस ऊँट लेकर ही वापस लौट पड़ा| लेकिन कुछ दूर पहुँचने पर शैतान ने फिर दिमाग में सरगोशी की, ‘फ़कीर ने दस ऊँट तो मुझे बिना हील-हवाले के ही दे दिए, लिहाज़ा उससे मुझे दस ऊँट और माँगने चाहिए!’
यह सोचकर मैं फिर फ़कीर के पास पहुँचा और अनुनय-विनय करके दस ऊँट और माँगे| फ़कीर ने खुशी-खुशी वह दस ऊँट भी मुझे दे दिए| लेकिन मेरे सिर पर तो लालच का भूत सवार था| मैं फिर उसके पास पहुँचा और दस ऊँट और माँगे|
“ठीक है भाई! तेरी मर्जी, मेरे लिए दस ऊँट भी काफ़ी है|” ऐसा कहकर फ़कीर ने मुझे दस ऊँट और दे दिए|
तीस ऊँट लेकर भी मेरा लोभी मन न माना| मैं फिर फ़कीर के पास पहुँचा और उससे सभी ऊँट माँग लिए| फ़कीर ने सभी ऊँट दे दिए और खाली हाथ वहाँ से चल दिया| लेकिन अपनी बदकिस्मती का मैं क्या करुँ? मेरे सिर पर तो शैतान सवार था| उसने मेरी बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी| लोभ ने मेरे दिल में घर कर लिया था| सो हुजूर! इतनी दौलत लेकर भी मैं संतोष न कर सका और एक बार फिर फ़कीर के पास जा पहुँचा| इस बार मुझे उस डिबिया का लालच था, जो मैंने उसके पास देख ली थी| मैंने सोचा की ज़रुर उस डिबिया में कोई ऐसा मलहम रखा होगा, जिसकी मदद से वह फ़कीर ज़मीन में गड़े हुए खजाने को देख सकता था|
उसी लालच के वशीभूत होकर फ़कीर के पास जाकर वह डिबिया देने की प्रार्थना की| फ़कीर ने शायद मेरे मन में पैदा हुए लालच को भाँप लिया था| सो मेरी प्रार्थना पर उसने वह डिबिया भी मुझे निकालकर दे दी|
डिबिया लेकर मैं बहुत खुश हो गया| फिर मैंने उस फ़कीर से कहा, “बाबा! जब आपने मुझ पर इतनी कृपा की है तो मेहरबानी करके इस डिबिया के गुण भी बता दीजिए|”
उस फ़कीर ने कहा, “इस डिबिया में जो मलहम है, उसको यदि तुम बाई आँख बंदकर पलक के ऊपर लगाओगे तो तुम्हें दुनिया-जहान के ज़मीन में गड़े सभी खजाने दिखाई देने लगेगे| लेकिन यदि तुमने इसे अपनी दाई आँख में लगा लिया तो तुरंत हमेशा के लिए अंधे हो जाओगे|”
मैंने कहा, “बाबा! इसे मेरी बाईं आँख पर लगाकर तो दिखा दो, ताकि मैं इस सच्चाई पर यकीन कर सकूँ|”
फ़कीर ने वैसा ही किया| मैंने आँख बंद करके पलक पर मलहम लगवाया तो मुझे ज़मीन में दबे अनेकों खजाने दिखाई देने लगे|
तब मैंने इस लोभ में कि दाई आँख पर मलहम लगाने से और ज्यादा खजाने दिखाई देंगे, फ़कीर से अपनी दाई आँख पर मलहम लगाने को कहा|
इस पर फ़कीर बोला, “ऐ खुदा के नेक बंदे! ज्यादा लालच मत कर| दाई आँख पर मलहम लगवाओगे तो ताजिंदगी अँधे हो जाओगे| फिर तुम्हें बहुत पछताना पड़ेगा|”
मगर मेरे सिर पर तो लालच का भूत सवार था, मैं न माना| वह फ़कीर जितना मुझे समझाता, मेरी हठ उतनी ही बढ़ती जाती| मैंने कहा, “बाबा! क्यों मुझे बहकाते हो| ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ही मलहम की दो तासीर हो?”
तब फ़कीर ने मुझे बहुत समझाया, लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ा रहा| बस फिर क्या था, उसने वह मलहम मेरी दाई आँख पर लगा दिया| मैंने आँख खोलकर देखा तो मैं अँधा हो चुका था| मैंने अपना सिर पीट लिया| रो-रोकर फरियाद की, “हाय! यह मैंने क्या किया? दौलत के लालच में मैंने अपनी अनमोल आँखें खो दी| बाबा! अब यह सारी दौलत तुम ही ले जाओ और किसी तरह मेरी आँखें मुझे वापस कर दो| आँखों की रोशनी खोकर यह दौलत मेरे किस काम की?”
मेरा आर्तनाद सुनकर फ़कीर बोला, “भाई! मैंने तो तुम्हें बहुत समझाया था, किंतु तुम न माने| मेरी एक भी नसीहत पर तुमने कोई ध्यान न दिया| मेरी हर बात को तुमने फरेब समझा| इतनी दौलत पाकर भी तुम्हें सब्र न हुआ| अब भुगतो अपने लालच का नतीजा|”
मैं उस फ़कीर के पाँव पकड़कर बहुत रोया, गिड़गिड़ाया| उसकी बहुत खुशामद की| किंतु नतीजा कुछ न निकला| मुझे वैसी ही हालत में छोड़कर वह फ़कीर ऊँटों पर लदी सारी दौलत लेकर न जाने किस दिशा में चला गया|
मैंने चिल्ला-चिल्लाकर उसे यहाँ तक भी कहा कि कम-से-कम मुझे अपने शहर तक तो ले चलो| लेकिन उसने मेरी एक न सुनी| मुझे रोता-कलपता छोड़कर वह वहाँ से चला गया और मैं भूखा-प्यासा जंगल में मारा-मारा फिरने लगा| मेरे भाग्य अच्छे थे कि तभी एक काफिला वहाँ से गुजरा| वह काफ़िला बगदाद जा रहा था| काफ़िले के सरदार को मुझ पर दया आ गई और वह मुझे बगदाद तक साथ ले आया| यहाँ मुझ अँधे को पहचानता ही कौन था? जिस किसी को भी मैंने अपना दुखड़ा सुनाया, सबने मेरा उपहास उड़ाया| किसी ने भी मेरी बातों पर यकीन न किया| तब मैंने कसम खाई की आइंदा भीख माँगकर अपना पेट भरुँगा| जो कोई भी मुझ पर तरस खाकर मुझे भीख देगा, उसे पहले मेरे सिर पर एक धौल लगाना होगा, ताकि मुझे अपने लालची जीवन का अहसास होता रहे| जो कोई ऐसा नही करेगा, उससे मैं भीख नही लूँगा|
इतना कहकर वह अँधा खलीफ़ा से बोला, “बस हुजूर! इस तरह बीसियों साल से मैं भीख माँग-माँगकर अपना पेट भर रहा हूँ| यही वजह थी कि मैं कल हुजूर की शान में गुस्ताखी कर बैठा था| मुझे उम्मीद है, मेरी दास्तान सुनकर आप मुझे माफ़ कर देंगे|” फिर वही अँधा फ़कीर खामोश हो गया|
तब खलीफ़ा हारुन रशीद बोले, “बाबा! तुम्हारे लालच की सज़ा तुम्हें मिल रही है, लेकिन हमें तुम्हारी दास्तान सुनकर बहुत दुख पहुँचा है| हमें तुमसे हमदर्दी है|”
फिर खलीफ़ा ने उस फ़कीर को प्रतिदिन शाही लंगर से भोजन देने की पेशकश की| किंतु फ़कीर ने इन विनम्रतापूर्वक खलीफ़ा का आग्रह ठुकरा दिया और ताजिंदगी वैसा ही जीवन व्यतीत करता रहा|
शहरजाद प्रत्येक रात शहरयार को इसी प्रकार की दिलचस्प एवं सारगर्भित कहानियाँ सुनाती रही| उसने शहरयार को ‘अलीबाबा और चालीस चोरों’ वाली कहानी भी सुनाई| ‘अलादीन का जादुई चिराग’ की भी दास्तान बयान की| कहानियों का यह सिलसिला एक हज़ार एक रातों तक चलता रहा| कहानियाँ सुन-सुनकर शहरयार का ‘स्त्री जाति’ के प्रति नज़रिया बदल गया| वह समझ गया कि सभी स्त्रियाँ बेवफा नही होती, न ही सारे पुरुष वफादार होते है| तब उसने शहरजाद को विधिवत सम्मान देकर अपनी पटरानी बना लिया| फिर वे दोनों जीवनपर्यंत निष्कंटक राजसत्ता का उपभोग करते रहे|