कीर्तन का फल

कीर्तन का फल

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी का चन्द्र अपनी ज्योत्स्ना से धरती को शीतलता प्रदान कर रहा था| वह विणा लेकर भक्ति गीत गाते हुए एकान्त अरण्य में स्थित मन्दिर की ओर चल पड़ा|

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चाण्डाल होते हुए भी उसका नित्य नियम था, मन्दिर में बैठकर रात्रि के स्तब्ध प्रहर में भगवान् को भक्ति-संगीत सुनाना| यह नियम अनेक वर्षों से अबाधगति से चल रहा था, उसी की पूर्ति में तल्लीन होकर वह चला जा रहा था|

वह अचानक चौंक उठा, पर भयभीत नहीं हुआ| उसे किन्हीं बलिष्ठ भुजाओं ने जकड़ लिया था| उसने देखा-एक भयंकर ब्रह्मराक्षस उसे जकड़े हुए है| ‘अरे, तुम मुझ निर्बल को पकड़ कर अपना कौन-सा अभीष्ट पूरा करना चाहते हो?’ उसने प्रश्न किया|

बीभत्स अट्टहास से वन क्षेत्र को प्रकम्पित करते हुए उस राक्षस ने कहा-‘पूरी दस रातें बीत गयी हैं भोजन बिना| आज क्षुधातृप्ति करने हेतु ब्रम्हा ने तुम्हें भेज दिया है|’

चाण्डाल तो भगवान् के गुणानुवाद के लिये लालायित था| उसने ब्रह्मराक्षस से विनय के स्वर में कहा-‘मैं जगदीश्वर के पद्यगान के लिये समुत्सुक हूँ| अपने आराध्य को संगीत सुनाकर लौट आँऊ, तब तुम अपनी आकांक्षा की पूर्ति कर लेना| मैंने जो व्रत ले रखा है, उसे पूर्ण हो जाने दो|’

क्षुधातुर राक्षस ने कठोर शब्दों में कहा-‘अरे मुर्ख! क्या मृत्यु के मुख से भी कोई बचकर गया है?’

कीर्तन प्रेमी चाण्डाल ने कहा-‘अपने निन्दित कर्मों के कारण निःसंदेह मैं चाण्डाल-योनि में उत्पन्न हूँ, परन्तु अपने जागरण-व्रत को पूर्ण करने-हेतु मैं तुम्हारे सामने सत्यप्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अवश्य लौटकर आऊँगा| मैं सत्य की दुहाई देता हूँ कि यदि अपने वचन का पालन न करूँ तो मुझे अधोगति प्राप्त हो|’

ब्रम्हराक्षस ने कुछ सोचकर उसे मुक्त कर दिया| चाण्डाल रात्रिपर्यन्त भक्तिभाव में निमग्न अपने आराध्य के समक्ष नृत्यगान में तल्लीन रहा और प्रातः अपने प्रतिज्ञानुसार ब्रम्हराक्षस के पास जाने-हेतु चल पड़ा|

मार्ग में एक पुरुष ने उसे रोककर परामर्श भी दिया कि ‘तुम्हें उस राक्षस के पास कदापि नहीं जाना चाहिये| वह तो शवतक को खा जाने वाला अत्यन्त क्रूर और निर्दयी है|’

चाण्डाल ने कहा-‘मैं सत्य का परित्याग नहीं कर सकता| मेरा निश्चय अटल है| मैं उसे वचन दे चुका हूँ|’

इस प्रकार कहकर वह चाण्डाल राक्षस के समक्ष उपस्थित होकर निर्भीकतापूर्वक बोला-‘महाभाग! मैं आ गया हूँ| अब आप मुझे भक्षण करने में किंचित् भी विलम्ब न करें| आपके अनुग्रह के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ|’

ब्रह्मराक्षस आश्चर्यचकित हो उस दृढ़व्रती को देखता रहा और मधुर स्वर में बोला-‘साधु वत्स! साधु! मैं तुम्हारी सत्यय प्रतिज्ञा के समक्ष नत हूँ| भद्र! यदि जीने की आकांक्षा है तो मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ, परन्तु तुमने जो रात्रि में विष्णु मन्दिर में जाकर गायन किया है उसका फल मुझे दे दो|’

चाण्डाल ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-‘मैं कुछ समझ नहीं पाया, तुम्हारे वाक्य का अभिप्राय है? पहले तो तुम मुझे खाने को लालायित थे और अब भगवद्गगुणानुवाद का पुण्य क्यों चाहते हो?’

ब्रह्मराक्षस ने अनुनय-विनय कर गिड़गिड़ाते हुए कहा-‘श्रेष्ठ पुरुष! बस, तुम मुझे एक प्रहर के गीत का ही पुण्य दे दी| यदि इतना न दे सको तो एक गीत का ही फल दे दो|’

पर ब्रह्मराक्षस ने अपना परिचय देते हुए कहा-‘मैं पूर्वजन्म में चरक गोत्रिय सोमशर्मा यायावर ब्राह्मण था| वेदसूत्र और मन्त्रों से पूर्णतः अनभिज्ञ होते हुए भी मैं लोभ-मोह से आकृष्ट मूर्खों का पौरोहित्य करने लगा| एक दिन मैं ‘पांचरात्र’-संज्ञक यज्ञ करवा रहा था| इतने में ही मुझे उदरशूल उत्पन्न हुआ|मन्त्रहीन, स्वरहीन, अविधिपूर्वक कराये गये यज्ञ की पूर्णाहुति के पूर्व ही मेरा प्राणान्त हो गया, जिस कारण मुझे इस अधम शरीर से मुक्त कर सकता है|’

चाण्डाल तो उत्तम व्रती था ही, उसने कहा-‘राक्षस! यदि मेरे गीत से तुम शुद्धमना और क्लेशमुक्त हो सकते हो तो मैं सहर्ष अपने सर्वोत्कृष्ट गायन का फल तुम्हें प्रदान करता हूँ|’

चाण्डाल के इतना कहते ही वह ब्रह्मराक्षस तत्काल एक दिव्य पुरुष के रूप में परिवर्तित हो गया|