केले के छिलके और श्रीकृष्ण
एक बार श्रीकृष्ण विदुर से मिलने हस्तिनापुर गये| विदुर घर में थे नहीं| उनकी पत्नी थी| कृष्ण ने चरण छुए| वे गद्गद् विह्वल हो गयी| उन्हें कुछ सुझा नहीं कि वे क्या करे? कहाँ बैठावें? वे तेजी से अन्दर गयीं| झटपट कुछ केले लेकर लौटीं|
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अपने ऊचें आसन पर बैठीं| कृष्ण को पाँव के पास बैठने के लिए कहा| श्रीकृष्ण बैठ गये|
विदुर की पत्नी कृष्ण के प्रेम में लीन हो थीं| उनकी अनुभूति समाप्त हो गयी थी| कुछ ज्ञान नहीं रह गया था| वे केले छीलकर गुदा फेकने लगीं और छिलके कृष्ण को खाने के लिए देने लगीं| कृष्ण उसे ही प्रेम से खाते रहे| वे छिलके खा रहे थे और उस गूदे की तरफ देखा भी नहीं जिन्हें वे फेंकती जा रही थीं|
तभी विदुर आये| यह तमाशा देखकर भौंचक्के रह गये| कृष्ण से कहा, “छिलके न खाओ, हानिकारक है, पचेंगे नहीं| “श्रीकृष्ण मुस्काए, बोले, “माँ के दिये हुए हैं| अमृत हैं|”