कर्मरहस्य

कर्मरहस्य

अत्रिवंश में उत्पन्न एक मुनि थे, जो संयमन नाम से विख्यात थे| उनकी वेदाभ्यास में बड़ी रूचि थी| वे प्रातः, मध्यान्ह तथा सांय-त्रिकाल स्नान-संध्या करते हुए तपस्या करते थे|

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एक दिन वे धर्मारण्य क्षेत्र में परम पुण्यमयी गंगा नदी के तट पर स्नान करने के उद्देश्य से गये| वहाँ मुनि ने निष्ठुरक नामक कर्म मत करो|’

तब मुनि की ओर देखकर वह व्याध मुस्कराते हुए बोला-‘द्विजवर! सभी जीवधारियों में आत्मारूप से स्थित जैसे माया जानने वाला व्यक्ति मन्त्रों का प्रयोग करके माया फैला देता हैं, ठीक वैसे ही यह प्रभु की माया है, इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिये| विप्रवर! मोक्ष की इच्छा करने वाले पुरुषों को चाहिये कि वे कभी भी अपने मन में अहंभाव को न टिकने दें| यह सारा संसार अपनी जीवन यात्रा के प्रयत्न में संलग्न रहता है| हाँ, इस कार्य के विषय में ‘अहम्’ अर्थात् ‘मैं कर्ता हूँ’-इस भाव का होना उचित नहीं है|’ निष्ठुरक व्याध की बात सुनकर विप्रवर संयमन ने अत्यन्त आश्चर्ययुक्त होकर उससे इस प्रकार कहा-‘भद्र! तुम ऐसी युक्तिसंगत बात कैसे कह रहे हो?’

ब्राह्मण की बात सुनकर धर्ममर्मज्ञ व्याध पुनः अपनी बात प्रारम्भ की| उसने सर्वप्रथम लोहे का एक जाल बनाया| उसे फैलाकर उसके नीचे सुखी लकड़ियाँ डाल दीं| तदन्तर ब्राम्हण के हाथ में अग्नि देकर उसने कहा-‘आर्य! इस लड़की के ढेर में आग लगा दीजिये|’

तत्पश्चात् ब्राह्मण ने मुख से फूँककर अग्नि प्रज्वलित कर दी और वे शान्त होकर बैठ गये| जब आग धधकने लगी, तब वह लोहे का जाल भी गरम हो उठा| साथ ही उसमें जो गाय की आँख के समान छिद्र थे, उनमें से निकलती हुई ज्वाला इस प्रकार शोभा पाने लगी, मानों हंस के बच्चे श्रेणीबद्ध होकर निकल रहे हों, उस जलती हुई अग्नि से हजारों ज्वालाएँ अलग-अलग फूट पड़ीं| आग के एक जगह रहने पर भी उस लौहमय जाल के छिद्रों से ऐसा दृश्य प्रतीत होने लगा| तब व्याध ने उन ब्राह्मण से कहा-‘मुनिवर! आप इनमें से कोई भी एक ज्वाला उठा लें, जिससे मैं शेष ज्वालाओं को बुझाकर शान्त कर दूँ|

इस प्रकार कहकर उस व्याध ने जलती हुई आग पर जल से भरा एक घड़ा तुरंत फेंका| फिर तो वह आग सहसा शान्त हो गयी| सारा दृश्य पूर्ववत् हो गया| अब व्याध ने तपस्वी संयमन से कहा-‘भगवन्! आपने जो जलती आग ले रखी है, वह उसी अग्निपुंज से प्राप्त हुई है| उसे मुझे दे दें, जिसके सहारे मैं अपनी जीवन यात्रा सम्पन्न कर सकूँ|’ व्याध के इस प्रकार कहने पर जब ब्राह्मण ने लोहे के जाल की ओर दृष्टि डाली तो वहाँ अग्नि थी ही नहीं| वह तो पूंजी भूत अग्नि के समाप्त होते ही शान्त हो गयी थी| तब कठोर व्रत का पालन करने वाले संयमन की आँखें मूँद गयीं और वे मौन होकर बैठ गये| ऐसी स्थिति में व्याध ने उनसे कहा-‘विप्रवर! अभी थोड़ी देर पहले आग धधक रही थी, ज्वालाओं का ओर-छोर नहीं था, किंतु मूल के शान्त होते ही सब-की-सब ज्वालाएँ शान्त हो गयीं| ठीक यही बात इस संसार की भी है|

‘परमात्मा ही प्रकृतिका संयोग प्राप्त करके समस्त भूत प्राणियों के आश्रय रूप में विराजमान होते हैं| यह जगत् तो प्रकृति में विक्षोभ-विकार उत्पन्न होने से प्रादुर्भूत होगा है, अतएव संसार की यही स्थिति है|’

‘यदि जीवात्मा शरीर धारण करने पर अपने स्वाभाविक धर्म का अनुष्ठान करता हुआ हृदय में सदा परमात्मा से संयुक्त रहता है तो वह किसी प्रकार का कर्म करता हुआ भी विषाद को प्राप्त नहीं होता|’

इस प्रकार निष्ठुरक व्याध और संयमन ब्राह्मण की उपर्युक्त बात के समाप्त होते ही उस व्याध के ऊपर आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगती है| साथ ही द्विजश्रेष्ठ संयमन ने देखा कि कामचारी अनेक दिव्य विमान वहाँ पहुँच गये हैं| वे सभी विमान बड़े विशाल एवं भाँति-भाँति के रत्नों से सुसज्जित थे, जो सभी विमान में निष्ठुरक व्याध को मनोनुकूल उत्तम रूप धारण करके बैठे हुए देखा; क्योंकि निष्ठुरक व्याध अद्वैत ब्रह्मका उपासक था, उसे योग की सिद्धि सुलभ थी, अतएव उसने अपने अनेक शरीर बना लिये| यह दृश्य देखकर संयमन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अपने स्थान को चले गये| इससे सिद्ध होता है कि अपने वर्णाश्रम-धर्म के अनुसार कर्म करने वाला कोई भी व्यक्ति निश्चय ही ज्ञान प्राप्त करके मुक्ति का अधिकारी हो सकता है|