कर्ण

कर्ण

कुंती यादवों के राजा कुंतीभोज की पुत्री थी| बाल्यावस्था से ही कुंती अपनी सुन्दरता, धर्म और सदाचार के लिए प्रसिद्ध थी| एक बार ऋषि दुर्वासा राजा कुंतीभोज के यहाँ रहने आये| वे एक वर्ष तक रहे| कुंती ने उनकी बहुत सेवा की| कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे एक मन्त्र सिखाया जिससे देवताओं का आह्वान हो सकता था|

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कुंती की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा| और एक दिन कुंती ने बिना सोचे-समझे सूर्य का आह्वान किया| तुरन्त सूर्यदेव उसके सामने आ गए| कुंती ने भयभीत होकर पूछा, “आप कौन है?” सूर्य देवता ने उत्तर दिया, “मै  सूर्य हूं|” कुंती उनकी सुन्दरता और तेज से चकाचौंध होकर बोली, “सूर्यदेव, मैंने अज्ञानतावश आपका आह्वान किया है| कृपया मुझे क्षमा कीजिए|”

सूर्यदेव बोले, “मै इस तरह नहीं जा सकता, तुमने मंत्रोच्चारण द्वारा मेरा आह्वान किया है| मै मन्त्र की शक्ति से बंधा हुआ हूं| तुम मेरे पुत्र को जन्म दोगी परन्तु तुम्हारे ऊपर कोई दोष नहीं आएगा|”

सूर्यदेव के वरदान दे पैदा हुए इस बालक में सूर्य के समान तेज और सौन्दर्य था| कुंवारी कुंती ने घबरा कर स्वर्ण कवच और कुंडल सहित जन्मे इस बालक को एक टोकरी में रखा और नदी में बहा दिया|

निस्संतान गरीब सारथी अधिरथ आर उसकी पत्नी राधा को बहती हुई टोकरी में एक बालक मिला| उन्होंने उस तेजस्वी बालक का नाम कर्ण रखा| इस प्रकार सूर्य के वरदान से जन्मा कुंती-पुत्र कर्ण, गरीब सारथी अधिरथ के घर में पलने लगा|

कर्ण बहुत बुद्धिमान, दयालु और दानी था परन्तु शीघ्र ही क्रुद्ध हो जाता था| कुछ लोग उससे स्नेह करते थे तो कुछ घृणा| परन्तु किसी को यह विदित नहीं था कि वह पांडवों का भाई है|

कर्ण धनुर्विद्या में निपुण होना चाहता था| परन्तु सूतपुत्र होने के कारण कोई भी उसे यह विद्या सिखाना नहीं चाहता था| हारकर कर्ण सोचने लगा, “मै क्या करूं? क्यों न मै जाकर परशुराम से विनती करूं?”

परशुराम एक प्रसिद्ध धनुर्धारी थे, पर वे क्षत्रियों से घृणा करते थे| कर्ण जब उनके पास अपनी प्रार्थना लेकर गया तो उसने झूठ बताया कि वह एक ब्राह्मणकुमार है| परशुराम ने उसे धनुर्विद्या में पारंगत बना दिया|

एक दिन परशुराम कर्ण की गोद में अपना सिर रखकर गहरी निद्रा में सो रहे थे| अचानक एक कीड़ा रेंगता हुआ आया और कर्ण की जांघ पर डंक मार दिया| परशुराम की निद्रा भंग हो जाने के डर से कर्ण अपने स्थान पर स्थिर बैठा रहा| यहाँ तक कि घाव से रक्त बहने लगा और पीड़ा असहनीय हो गई परन्तु वह शांत बैठा रहा| कुछ समय पश्चात परशुराम जागे और कर्ण का घाव को देखकर क्रोधित स्वर में बोले, “तुम ब्राह्मण हो ही नहीं सकते, तुम अवश्य क्षत्रिय हो| केवल क्षत्रिय ही इतनी वेदना सह सकते हैं| बताओ, तुम कौन हो?”

क्षमा मांगते हुए कर्ण ने कहा, “गुरुदेव, मै सूतपुत्र हूं|” यह सुनकर परशुराम और क्रोधित हो उठे और बोले, “तुमने झूठ बोला, इसके लिए तुम्हें दंड दूंगा और श्राप भी| युद्धभूमि में तुम अपने विशेषतम शत्रु योद्धा का सामना करते समय तुम मेरी दी हुई शिक्षा को भूल जाओगे|” कर्ण यह श्राप सुनकर बहुत दुखी हुआ| परन्तु जो श्राप एक बार दिया जा चूका हो, उसे तो अपने नियम के अनुसार पूरा होना ही होता है| और यही कारण था कि कई वर्षों बाद जब कर्ण और अर्जुन का युद्ध में आमना-सामना हुआ, तब कर्ण अपनी संपूर्ण शिक्षा भूल गया|