कंजूस महाजन

मोतीराम महाजन अव्वल नंबर का कंजूस था| एक दिन शाम को जब वह घर लौट रहा था तो रास्तेभर यही सोचता रहा कि उसकी पत्नी और बच्चे बहुत खर्च करते है| यदि वह अधिक समय घर से बाहर रहेगा तो वो लोग उसको कंगला बनाकर ही छोडेंगे| श्रीमती जी दिन भर खरीददारी करती रहती है और बच्चे भी दिनभर कुछ-न-कुछ खाते-पीते रहते है| यह स्थिति तो तब है जब कड़ी निगरानी रखी जाती है|

तभी रास्ते में एक भिखारी मिला, ‘भूखे को कुछ मिलेगा, माई-बाप|’

‘चल भाग यहाँ से| फूटी कौड़ी भी नही है मेरे पास|’ इतना कहकर वह तेज़ी से घर की ओर चल दिया|

रास्ते में हलवाई की दुकान पर गर्म-गर्म जलेबियाँ उतर रही थी| उन्हें देखकर मोतीराम के मुहँ में पानी भर आया| उसने सोचा, ‘अगर मैं जलेबियाँ खरीदूँगा तो वहाँ खड़े परिचितों को भी देनी पड़ेगी| अगर नौकर से मँगवाता हूँ तो पत्नी और बच्चों को भी देनी पड़ेगी| क्यों न बाहर ही खा लूँ|’

घर पहुँचकर उसने अपने नौकर को बुलाया, ‘रामू, हलवाई की दुकान से जलेबियाँ ले आ| मगर सुन, यहाँ मत लाना…झील किनारे झाड़ी के पास ले आना| मैं वही तेरा इंतजार करूँगा|’

मोतीराम जब जलेबी खाने की योजना बना रहा था, तभी उसका एक हमशक्ल उस नगर के राजा के पास पहुँच गया|

‘कैसे आना हुआ मोतीराम जी?’ राजा ने पूछा|

‘महाराज, मैं कुछ धन दान स्वरुप देना चाहता हूँ|’ उस व्यक्ति ने विनम्र स्वर में कहा|

‘क्या?’ राजा हैरत में डूब गया, ‘तुम धन का दान करोगे?’

‘जी महाराज, क्योंकि जमाखोरों का धन किसी काम तो आता नही|’ मोतीराम के हमशक्ल ने कहा|

‘जरुर करो दान|’ राजा ने कहा|

‘नगर का महाकंजूस धन का दान करेगा| वाह! कैसा चमत्कार है|’ मंत्री ने मुस्कुराते हुए कहा|

फिर वह आदमी मोतीराम के घर गया| वहाँ उसे उसका नौकर मिला| उसने उससे कहा, ‘एक बहुरुपिया मेरा रुप धारण करके घूम रहा है| अगर यहाँ आए तो मार-पीटकर भगा देना|’

‘जी मालिक|’ नौकर ने सिर झुकाते हुए कहा|

फिर वह आदमी भीतर कमरे में पहुँचा|

‘मोतीराम महाजन की पत्नी होकर तुम इस फटीचर स्थिति में हो? जाओ, अभी बाज़ार जाओ और जो मन करे, खरीद लाओ और बच्चों के लिए भी कुछ लेती आना|’ उस आदमी ने कहा|

‘य…ये तुम क्या कर रहे हो!’ मोतीराम महाजन की पत्नी अविश्वसनीय स्वर में बोली|

‘आज मैं बहुत खुश हूँ| रास्ते में जो भी मिले, कह देना कि मैं अपना आधा धन गरीबों और जरुरतमंदो को दे देना चाहता हूँ|’ मोतीराम का हमशक्ल मुस्कुराते हुए बोला|

‘लगता है आज इनका दिमाग़ फिर गया है| इससे पहले कि इनकी सोच बदले, मुझे बाज़ार चले जाना चाहिए|’ इतना सोचकर मोतीराम की पत्नी बाज़ार चली गई|

थोड़ी ही देर में मोतीराम के घर में लोग आने शुरु हो गए|

‘जिसके जो जी में आए, उठारकर ले जाए|’ हमशक्ल बोला|

‘जो हम चाहें…|’ एक वृद्ध ने आश्चर्य से पूछा|

‘हाँ| यहाँ जितना भी माल है वह सब तुम्हारा ही है|’

यह किसी भी क्षण अपना इरादा बदल सकता है| इसलिए जितना जल्दी हो सके माल लेकर यहाँ से चंपत हो जाते है- सभी का ऐसा ही विचार था|

एक आदमी ने घर में घुसने के बजाय बैलगाड़ी खोल दी और गोदाम में से कीमती चीजें लादकर नौ दौ ग्यारह हो गया|

वह मोतीराम का गुणगान करता हुआ अपने घर की ओर चल दिया, ‘भगवान करे मोतीराम को हमारी भी उम्र लग जाए| उससे बढ़कर दुनिया में दूसरा कोई भला आदमी नही है|’

उधर मोतीराम झाड़ियों में छिपा हुआ गर्म-गर्म जलेबियों के चटखारे ले रहा था| तभी उसके कानों में आवाज़ पड़ी, ‘मोतीराम हज़ार बरस जिए|’ कोई मेरे गुण गा रहा है| कौन हो सकता है यह? तभी उसके कानों में फिर आवाज़ पड़ी, ‘मोतीराम महान है|’

मोतीराम गाड़ीवाले के सामने पहुँचकर बोला, ‘तुम्हें सच्चे आदमी की पहचान है|’ जब उसकी निगाह अपनी गाड़ी और बैलों पर पड़ी तो उसका भेजा फिर गया- ये माल तो मेरा है| वह चिल्लाया, ‘ठहर जा, चोर कहीं का| मेरा माल चोरी करके कहाँ ले जा रहा है|’

गाड़ीवाले ने एक चाबुक मोतीराम को दे मारा| वह उलटकर पीछे जा गिरा|

‘मुझे यह सब सामान दयालु मोतीराम ने खुद दिया है|’ गाड़ीवान ने कहा|

‘यह झूठ है| मोतीराम तो मैं हूँ|’

‘त…तुम कोई बहरुपिए लगते हो|’ इतना कहकर गाड़ीवान ने गाड़ी बढ़ा दी|

मोतीराम काफ़ी दूर तक उसके पीछे भागा| लेकिन वह गाड़ी को नही पकड़ सका|

फिर वह तुरंत घर की ओर दौड़ा| घर पहुँचते ही उसकी निगाह वहाँ से सामान ले जाते लोगों पर पड़ी| उसने अपने नौकरों को बुलाया तथा जोर से चिल्लाया, ‘उन्हें रोको| वे मेरा सारा माल लूटकर ले जा रहे हैं|’

‘ज़रुर यह वही ठग है, जिसके बारे में मालिक ने हमें सचेत रहने को कहा था, यह सोचकर नौकरों ने मोतीराम की जमकर ठुकाई कर दी|

‘देख लूँगा सबको| मैं अभी राजा के पास जाता हूँ|’ किसी तरह जान बचाकर मोतीराम राजा के महल में पहुँचा और बोला, ‘महाराज मैं लुट रहा हूँ, लोग मेरा माल लूट रहे हैं|’

‘लेकिन मोतीराम तुम खुद ही तो मेरी अनुमति लेने आए थे कि मैं अपना धन दान करना चाहता हूँ|’ राजा ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा|

‘महाराज, क्या आपने मुझे कभी दान करते हुए देखा है? जरुर कोई ठग मेरा रुप धारण करके यहाँ आया होगा|’ मोतीराम ने रोते हुए कहा|

राजा ने तुरंत हुक्म दिया कि मोतीराम के हमशक्ल को पकड़कर तुरंत यहाँ पेश किया जाए|

थोड़ी देर बाद राजदरबार में मोतीराम के हमशक्ल को पकड़कर लाया गया| सभी दरबारी आश्चर्य में डूब गए| क्योंकि दोनों की शक्ल और कद-काठी एक जैसी थी|

‘तुममें से असली कौन है?’ राजा ने पूछा|

‘मेरी पत्नी मुझे पहचान लेगी महाराज|’ मोतीराम ने कहा|

किंतु जब मोतीराम की पत्नी से पहचान करवाई गई तो वह भी धोखा खा गई| उसने हमशकल को ही अपना पति बताया|

‘दुष्ट! तेरे लिए मैंने इतना किया, फिर भी..|’ अब क्या करुँ? कौन है जो मेरी शिनाख्त करेगा? फिर अचानक उसे कल्लू नाई का ध्यान आया|

‘महाराज कल्लू नाई मुझे ज़रुर पहचान लेगा|’

राजा के आदेश पर नाई को दरबार में लाया गया|

‘मुझे इनके सिर टटोलने पड़ेंगे महाराज|’ झुकते हुए नाई ने राजा से कहा|

राजा ने आज्ञा दे दी|

फिर नाई ने दोनों के सिर टटोले| वह भी असमंजस में पड़ गया| फिर उसने कहा, ‘मैं मोतीराम को नही पहचान सकता, महाराज|’

‘क्या मतलब?’ मोतीराम बौखला गया, ‘मेरे सर पर एक मस्सा है| क्या तुम भूल गए?’

‘तुम्हारे सिर पर तो मस्सा है ही लेकिन इसके सिर पर भी वैसा ही मस्सा है|’ कल्लू नाई ने कहा|

मोतीराम पगला-सा गया| वह सोचने लगा, ‘मेरी पत्नी ने भी इस बहरुपिए को ही अपना पति समझा| अब तो मैं बिल्कुल ही बर्बाद हो गया| मुझे मेरे ही घर से निकाल दिया जाएगा| मेरी पाई-पाई छिन जाएगी|’ सोचते-सोचते वह बेहोश हो गया|

पानी डालकर मोतीराम को होश में लाया गया| वह होश में तो आ गया, किंतु उसका दिमाग खराब हो गया|

‘बस, अब मैं तुम्हें और नही सताऊँगा मेरे लाल| मैं तेरा पिता हूँ, स्वर्ग से सीधा यहाँ आया हूँ|’ आखिरकार उसके हमशक्ल ने कहा|

‘पि….पिताजी!’ मोतीराम के मुहँ से अस्फुट-सा स्वर निकला|

‘तुम्हारे पास जो धन है वह तो सब मेरा है| मैंने हमेशा गरीबों और जरुरतमंदों की मदद की थी| लेकिन तूने मेरा सारा धन तिजोरी के हवाले किया हुआ है| इस बार तो तुझे माफ़ कर रहा हूँ, अगर तूने फिर ऐसी कंजूसी की तो मैं अपना सारा धन ले लूँगा|’

‘अब आगे से ऐसा कभी नही करूँगा| मुझे सिर्फ़ एक मौका और दीजिए पिताजी|’ मोतीराम ने अपने पिता के चरण छूते हुए कहा|

फिर मोतीराम का पिता उसे आशीर्वाद देकर वापस स्वर्ग के लिए कूच कर गया|

उधर मोतीराम भी अपने घर लौट आया| अब वह बहुत बदल चुका था| वह एक दयालु और उदार व्यक्ति बन चुका था|

शिक्षा: कहावत है- ‘सूम का धन शैतान खाएँ|’ धनी होना कोई गलत नही, लेकिन कंजूस होना बिल्कुल भी ठीक नही| धन का सदुपयोग इसी में है कि जरुरतमंदों की सहायता की जा सके| वह धन किस काम का जो किसी के काम न आ सके|