कबूतर
संध्या का समय हो चला था| महल के दीपक में रखे हुए टिमटिमा रहे थे| आती-जाती हवा में उनकी लौ लहरा रही थी|
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सुय्या एक खुरदरा, ऊनी कंबल अपने इर्द-गिर्द लपेटे, महल के अन्तःपुर में बैठा हुआ जागते रहने की भरपूर कोशिश कर रहा था| उसी सुबह वहां बर्फ गिरी थी और कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी| आसमान पर अब भी बादल छाए हुए थे| तभी उसे अपने कानों में कुछ मंद-सा स्वर सुनाई पड़ा और वह झट से उठ बैठा| शायद उसकी प्यारी रानी वाकपुस्ता आ गई थी| रानी अपनी सेविका के साथ अन्दर आई| नन्हां सुय्या लपकर रानी के पास पहुंचा और मैले से कपड़े में लिपटा हुआ एक फल भेंट किया|
“यह क्या, मेरे बच्चे?” रानी ने पूछा| “अरे, यह तो मेरा पसंदीदा फल है| तुम जरुर मुझे बहुत प्यार करते हो, जो मेरी सेवा इस प्रकार करते हो|” वह जानती थी कि वह बालक रोज पहरेदारों को चकमा देकर उसे नन्हें-नन्हें तोहफे देने चला आता है|
रानी की स्नेहभरी वाणी सुनकर, सुय्या गद्गद हो गया और उसके लम्बे बालों और चमकीले जेवरों से सज्जित सुख को देखकर बोला, “सब कहते है कि आप देवी हैं|”
रानी खिलखिलाकर हँस पड़ी| “अच्छा, अच्छा, अब तुम्हें अपने घर जाना चाहिए,” वह बोली| “अंधेरा हो रहा है और रात के खाने के लिए तुम्हें जल्दी घर पहुंचना चाहिए|”
सुय्या के कदमों में तेजी थी, हवा के बर्फीले थपेड़ो या जमीन पर पड़ी बर्फ में धंसते हुए अपने नन्हे पैरों का उसे भान भी नहीं था| उसे वे दिन याद आ रहे थे, जब रानी वाकपुस्ता और महाराज तुनजीना के साथ कश्मीर के बाहरी इलाकों में वह घुमने आया था| सुय्या के पिता राजा के सेवक थे और इसीलिए सुय्या बेरोकटोक महल में घूमता रहता था और कभी-कभी उसे खास मौके पर राजा के साथ यात्रा करने का अवसर भी मिलता था| उस बार जब सभी यात्री भूखे-प्यासे थे तो शाही दंपति ने मुस्कराते हुए कुछ ही देर पहले लगाए वृक्षों की ओर संकेत किया था| जिन क्षण भर पहले तक कुछ नहीं था, उन्ही पर तरह-तरह के रसीले फल लटक रहे थे| सुय्या अकेला ही था जिसकी भूख ऐसा चमत्कार देखकर हवा हो गई थी| इतने बड़े और लाल-लाल सेब उसने पहले कभी नहीं देखे थे| उनका रस, जो उसकी ठोड़ी को गिला करता नीचे टपक रहा था, वह तो बस अमृत ही था|
सुय्या की माँ दरवाजे पर खड़ी बेचैनी से उसका इंतजार कर रही थी| “महल में इतनी देर कैसे हो गई, बेटा?” उसे देखते ही माँ बोली|
“रानी को भेंट जो देनी थी,” सुय्या शान से बोला तो माँ बस मुस्करा भर दी|
सुय्या के बाल मन में रानी के लिए इतनी श्रद्धा देखकर माँ चिंतित हो जाति हो जाति थी| उसके पति, पदम ने राजदंपति के बारे में बहुत-सी बातें सुनाई थीं| प्रजा मानना था की दो दिव्य प्राणियों ने अवतार लिया है| लोग तो यह भी कहते थे कि और तो और, मौसम भी उनके आदेश का पालन करता है| कुछ दिनों बाद कश्मीर में अकाल पड़ा| पतझड़ के मौसम में सूखे पत्तों की तरह आसमान से झड़ती हुई बर्फ सारी फसल पर चादर की तरह फैल गई| अन्न का एक दाना भी नहीं रहा| राज्य के गोदाम खाली हो गये और लोग भूखों मरने लगे|
“हमारे दयालु राजा चिंतित है,” पदम् अपनी पत्नी से बोला| “वे दिन भर घूम-घूमकर बीमारों की सेवा करते हैं और राज्य में मृत्यु के इस हमले को पलटने की कोशिश करते रहते हैं|”
परंतु अकाल तो थमने का नाम नहीं ले रहा था|
सुय्या सूखकर कांटा हो चूका था| कमजोरी की हालत में ही वह फिर महल गया| थकान की वजह से सुच्चा कई दिन से वहां नहीं जा पाया था| पानी वाला दलिया खा-खाकर अब उसका पेट नहीं भरता था| लेकिन नन्हीं सुय्या जब अपने माता-पिता की आँखों में डर और निराशा देखता, तो न रोता, न ही जिद करता| राजसभा के पास से गुजरते हुए उसने राजा को कहते सुना, “मेरे हीरे जवाहरात, सब ले जाओ| इन सबको बेचकर मेरी प्रजा को विनाश से बचा लो| जब मरे लोगों के प्राण ही जा रहें है तो यह शानशौकत मेरे किस काम की?”
सुय्या ने घर कुछ थोड़ा-बहुत खाया| बाहर सड़को पर लोग भूख से तड़प रहे थे| हर घर में कोहराम मचा था| जो बच्चे दिन भर सड़को पर उधम मचाते थे, वही अपनी भूखी, बेजान आँखे लिए, बर्फीली हवाओं स्व बेखबर अपने घरों के दरवाजों पर चित्त पड़े थे| लोग अपने सिरों पर अपना बचा-खुचा सामान उठाए,बर्फ की मार सहते हुए शक्तिहीन पैरों से सीमा की ओर रेंग रहे थे|
अगले दिन पदम् सुय्या को उठाकर महल ले गया|
“ले ही जाओ इसे, इसी बहाने इसका ध्यान भूख से तो हटेगा,” सुय्या की माँ अश्रुपूर्ण आँखों से बोली| “जाने ईश्वर हमें किस बात की सजा दे रहा है?”
दिन भर सुय्या महल के प्रांगण में बैठा रहा| उसके आसपास लोग आ-जा रहे थे पर उसे कीसी भी बात का होश नहीं था| शाम हुई और महल में फिर रौशनी की गई| सुय्या को एक जानी-पहचानी आवाज सुनाई दी और वह धीरे-धीरे अंतःपुर की ओर चल पड़ा| वहां उस बच्चे को रोकने वाला कोई न था| पहरेदार खुद बेजान, बीमार से पड़े थे|
जब सुय्या को राजा का उदास स्वर सुनाई दिया तो उसका दिल तेजी से धड़कने लगा| “मै हार गया! मै अपनी प्रजा के किसी काम कम न आ सका| जरुर मुझसे कोई पाप हुआ है, जिसकी सजा देवता दे रहे हैं| मुझ जैसे राजा को मर जाना ही अच्छा है| मैंने फैसला कर लिया है, मै इस निरर्थक शरीर को अग्नि में भस्म कर दूंगा|”
फिर रानी बोली| उसके स्वर इतने मीठे और दृढ़ थे की सुय्या की आंख भर आई| “उठिए, महाराज| ऐसे शोक से क्या लाभ?” सुय्या सुन रहा था| “राजा अपनी प्रजा के प्रति अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो सकता| उसी तरह का भी अपने पति के प्रति कर्तव्य है| आपके और प्रजा के दुखों का निवारण करूंगी| आप धीरज रखें| क्या मेरा कहा कभी भी व्यर्थ हुआ है?” रानी ने इतना कहा था कि सुय्या को कुछ गिरने की आवाज आई| वह प्रांगण की ओर भागा| वहां बहुत से दरबारी जमा थे और हैरान हो रहे थे|वह जैसे ही उनकी ओर बढ़ा, वैसे ही वे लोग रुके और भगावन को धन्यवाद देते हुए, उन गिरी हुई वस्तुओं को तत्परता से बांटने लगे|
“यह क्या है?” सुय्या ने पुछा| “आसमान से क्या गिरा है?
“मृत कबूतर,” एक राज्यधिकारी, जो उसके पिता का मित्र था, बोला| “यह रखो और घर जाकर अपनी माँ को देना| इन्हें खाकर हम कम से कम जीवित तो रहेंगे| इसे खाना वर्जित तो है पर क्या करें? स्वयं देवताओं ने यह खाना हमारे लिए भेजा है|
सुय्या कबूतरों को लेकर घर भागा| जब रास्ते भर उसने लोगों के हुजूम देखे तो वह जान गया कि मृत कबूतर पूरे राज्य में गिरे हैं| उसके अपने घर में बीस-एक कबूतर गिर पड़े थे| ठंडे, निर्जीव, लेकिन औरों को जीवन की आशा देते हुए|
सुय्या की माँ ने दौड़कर उसे गले से लगा लिया| “मेरे बच्चो! हमें जीवन मिल गया| हमें पेट भरने के लिए कुछ तो नसीब हुआ|”
अगली सुबह राजा ने राज्य भर में घोषणा करवा दी कि यह चमत्कारी रानी वाकपुस्ता की कृपा से हुआ है| प्रजा ने सुना तो बहुत प्रसन्न हुई और सबके ह्रदय अपनी रानी के प्रति श्रद्धा और आदर से भर गए|
लेकिन सुय्या, कुछ चुपचाप-सा सोच में डूब गया| उसका पेट तो अब भर गया था लेकिन उसका मन भारी हो गया था| शाम होते ही वह महल की तरफ चल पड़ा| एक बार फिर से सारे राज्य में रौनक लौट आई थी| सब रास्तों पर दीपमालाएं थी, लोग फिर सड़को पर निकल आए थे, और उधर महल में पहरेदार भी खुश थे| उन्होंने सुय्या को देखा तो स्नेह से उसका सिर थपथपाने लगे|
सुय्या, बिना रुके, अंतःपुर की ओर चल पड़ा और दरवाजे पर जाकर ठहर गया| उसे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा| उसे एक जानी-पहचानी पदचाप सुनाई पड़ी और कुछ ही देर में रानी उसके सामने थी| वह एक पल रुकी और फिर सुय्या का हाथ थामकर उसे अन्दर ले गई|
“क्या? इस बार मेरे लिए कोई भेंट नहीं?” रानी उसका हाथ थामे हुए ही स्नेह से मुस्कराई| “तुम्हारे चहरे का रंग लौट आया है पर आंखे उदास हैं| ऐसा क्यों?”
सुय्या ने सुन्दर आँखों में देखा और उसकी भावनाएं शब्द बनकर फूट पड़ी| “वे कबूतर,” सुय्या का स्वर उदास था, “वे सब मृत हैं| आप तो देवी हैं, प्राणों की रक्षा करती हैं| आपने उनके प्राण कैसे ले लिए?”
रानी सुय्या का हाथ छोड़ते हुए मुस्कराई और बाहर फैली बर्फ की सफेद चादर को देखने लगी, जो अंधेरे में भी चमक रही थी|
“वे सचमुच के कबूतर नहीं थे,” रानी कोमलता से बोली| “कबूतरों के रूप में वह सिर्फ भोजन था, जिसे देवताओं ने सबके लिए भेजा था और अपने आने वाले कई दिनों तक भेजते रहेंगे| तुम यह बात किसी से नहीं कहना|”
नन्हे सुय्या के मन को शान्ति मिल गई और रानी के लिए उसका स्नेह दुगना हो गया| अब उसके पांव अपने घर की ओर तेजी से बढ़ रहे थे|