जीवन का कम्बल
प्राचीन समय की बात है| दो साधु थे| किसी भक्त ने दोनों को बहुमूल्य कम्बल तोहफे में दिए| पूरे-दिन यात्रा करने के बाद दोनों साधु रात्रि के विश्राम के लिए एक धर्मशाला में रुके|
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सर्दी की रात थी| जब सोने का समय हुआ तब एक साधु ने सोचा कि कम्बल मूल्यवान है, कहीं ऐसा न हो कि रात के समय इसे कोई चुरा ले जाए| उसने उसे अच्छी तरह लपेटकर तह करके सिरहाने में लगाया और सो गया| दूसरा साधु जब सोने लगा तब उसने देखा कि ठंड से कई बच्चे कांप रहे थे और उनके दाँत किटकिटा रहे थे| साधु को उन पर दया आ गई, उसने अपना कम्बल उन ठिठुरते हुए अनाथ बच्चों को उड़ा दिया|
वह धर्मशाला थी| सुबह जब दोनों साधु उठे, तब दोनों में से किसी के पास कम्बल नहीं था| एक ने स्वेच्छा से ठिठुरते बच्चों को अपना कम्बल उड़ा दिया था और दूसरे के सिर के नीचे से खिसका लिया गया था| अपनी इच्छा से अपना कम्बल देने वाला व्यक्ति खुश था, लेकिन चोरी किए गए कम्बल का मालिक बहुत साधु बहुत दुःखी था| यह जीवन का कम्बल-चदरिया-एक न एक दिन सबसे छिन जाती है; जो अपने आप से इसे छोड़ देते हैं उसे इसका कोई दुःख नहीं होता, लेकिन जो उससे चिपटा रहता है, वह सदा दुःखी रहता है| प्रत्येक मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि देने वाले का महत्व अधिक होता है|