जयध्वज की विष्णु भक्ति
माहिष्मती के राजा कार्तवीर्य के सौ पुत्र थे| उनमें शूर, शूरसेन, कृष्ण, धृष्ण और जयध्वज नाम के पाँच पुत्र महारथी और मनस्वी थे| इनमें प्रथम चार रूद्र के भक्त एवं पाँचवाँ जयध्वज नारायण का भक्त था|
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इसके अन्य भाइयों ने अपनी कुल-परम्परा के अनुसार शंकर की ही आराधना के लिये इनसे अनुरोध किया| जयध्वज ने कहा-‘नहीं, विष्णु की ही उपासना मेरा परमधर्म है|
पृथ्वी के राजा विष्णु के अंश से उत्पन्न होते है तथा विष्णु ही जगत्पालक हैं और स्वयं उन्हीं की शक्तियाँ ब्रह्मदि-भेद से सृष्टि, स्थिति और संहार करनी वाली हैं|’ अतः राजाओं को विष्णु की ही आराधना करनी चाहिये|’ इस पर अन्य भाइयों ने कहा-‘मोक्षार्थी को रूद्र की उपासना करनी चाहिये|’ तब जयध्वज ने कहा कि प्राणी सत्त्वगुणद्वारा ही मुक्त होता है और श्रीहरि ही सत्त्वस्वरूप हैं| इस प्रकार विवाद का अन्त न होने पर वे निर्णय कराने के लिये सप्तर्षियों के पास पहुँचे| वसिष्ठादि मुनियों ने कहा-‘जिसे जो देवता अभिमत होता है, वही उसका इष्टदेव है| प्रयोजनविशेष के लिये पूजित होने पर विभिन्न देवता मनुष्यों को अभीष्ट प्रदान करते हैं| राजाओं के देवता विष्णु, शिव तथा इन्द्र हैं| ब्राह्मणों के अग्नि, सूर्य, ब्रम्हा और शंकर हैं| देवताओं के देवता विष्णु तथा दानवों के शंकर, गन्धर्वों और यक्षों के सोम, विद्याधरों की सरस्वती, साध्यों के सूर्य, किन्नरों की पार्वती, ऋषियों के ब्रम्हा और शंकर, मनुष्यों के विष्णु, सूर्य और उमा, ब्रह्मचारियों के ब्रह्म, वानप्रस्थियों के सूर्य, यतियों के महेश्वर, भूतों के रूद्र तथा कुष्माण्डों के देवता विनायक हैं और गृहस्थों के लिये सभी देवता उपास्य हैं| यह ब्राजील ने स्वयं कहा है| अतः जयध्वज की विष्णु-आराधना वैध है|’ तत्पश्चात् सभी राजकुमार ऋषियों को प्रणाम कर अपनी पुरी में चले गये|
एक बार विदेह नामक एक भयंकर दानव माहिष्मती पुरी में आया और शूल लेकर गर्जना करने लगा| जिसके श्रवणमात्र से कुछ ने तो प्राण त्याग दिये, कुछ भयभीत होकर भागने लगे| यह देख शूरसेनादि सभी भाई उस पर रौद्रास्त्र, वरुणास्त्र, प्राजापत्यास्त्र, वायाव्यास्त्र एवं अन्यान्य अस्त्रों से प्रहार करने लगे, पर वह विचलित न हुआ| अन्त में बुद्धिमान् जयध्वज ने सभी को त्रस्त देख भगवान् विष्णु का स्मरण कर वासुदेवप्रेषित हजारों सूर्य के सामान प्रकाशमान सुदर्शनचक्र के द्वारा दानव का सिर काट डाला| उस देवशत्रु के मारे जाने पर सभी ने जयध्वज की पूजा की तथा उसका पराक्रम सुनकर महामुनि विश्वामित्र उसे देखने के लिये आये| महर्षि को आते देख जयध्वज ने उन्हें सुन्दर आसन पर बिठाया उनकी पजा की और कहा कि आपके अनुग्रह से ही मैंने इस दानव को मारा है| इसके लिये मैं भगवान् विष्णु की शरण में गया और उनकी कृपा से इस दानव-वध की सफलता मिली| अब मैं भगवान् विष्णु का पूजन करना चाहता हूँ, अतः प्रार्थना है कि इस कार्य में आप मेरे उपदेष्टा बनें और मेरा यज्ञकार्य सम्पन्न करायें| विश्वामित्र जी ने जयध्वज से विष्णु की महिमा की महत्ता बताकर यज्ञ सम्पन्न करवाया| उसके यज्ञ में साक्षात् भगवान् हरि ने प्रकट होकर सबको कृतार्थ किया|