जनता जनार्दन की सेवा
बार की घटना है| भारत में अंग्रेजी राज्य के यशस्वी लेखक एवं राष्ट्रीय नेता श्री सुंदरलाल जी एक बार पूना गए| यह श्रीमद्भगवद्गीता की कर्मयोग की व्याख्या करने वाले भारतीय चिंतक एवं राष्ट्र नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के व्यक्तिगत जीवन की एक झलक लेना चाहते थे|
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लोकमान्य ने श्री सुंदरलाल जी को अपने घर पर ठहरा दिया| प्रातः 4 बजे के लगभग तिलक जी उठे| प्रातः कालीन नित्य-क्रियाओं से निपटकर वह ‘केसरी’ और ‘मराठा’ के लिए अग्रलेख लिखने लगे| ग्रंथ-लेखन, स्वाध्याय आदि कार्यालय करते दिन निकल आया| मिलने वाले सज्जन आने लगे| कुछ देर में लोकमान्य केसरी कार्यालय भी गए| वहाँ भी उन्होंने अनेक काम निपटाए| आवश्यक निर्देश दिए, फिर शहर से बुलाने वाले व्यक्तियों के साथ नगर गए| शहर के दो स्कूलों, नगर-आयोजनों में भाग लेकर जब लोकमान्य घर लौटे, तब दोपहर का सूरज चढ़ गया था| तिलक जी ने फिर से स्नान किया| आवश्यक नियम-विधि पूर्ण कर वह पाठशाला गए| साथ में सुंदरलाल जी भी थे| दोनों अपने-अपने स्थान पर बैठ गए| सामने पटरी पर भोजन की थालियाँ आ गई| तिलक जी ने परम्परा के अनुसार आचमन कर जल-सिंचन किया और सुंदरलाल जी ने पूछा- “आप भोजन करें| रुक क्यों गए?”
“मैं सोच रहा था थोड़ी भगवान् की पूजा-आराधना, स्त्रोत एवं संध्या वंदन के मंत्र तो हुए ही नहीं| भोजन से पहले भगवान् की पूजा ही हो जाती|”
एक पल के लिए रुककर लोकमान्य तिलक बोले- “ब्रह्मामूर्त से शुरु कर अभी तक मैं क्या कर रहा था? श्री कृष्ण जी के रास्ते का अनुसरण का निरंतर जनता-जनार्दन की सेवा ही तो सच्ची पूजा और आराधना है| भोर से उठकर यही तो मैं कर रहा था| घर-घर के छोटे-बड़ों के भोजन की व्यवस्था के रुप में यह भोजन भी उनके ही भजनों का एक भाग है|” हर व्यक्ति में जनसेवा की भावना होनी चाहिए|