जैसे को तैसा
प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री एवं न्यायशास्त्री सर डॉ० आशुतोष मुखर्जी की 125वी जयंती जुलाई, 1989 में सारे देश में मनाई गई थी| डॉ० आशुतोष कितने अधिक साहसी, दृढ़ निश्चयी और राष्ट्रवादी भावना के प्रतीक थे, यह तथ्य इस घटना से प्रमाणित होता है- एक बार अदालत में देर हो जाने पर सांझ के समय डॉ० आशुतोष रेल द्वारा यात्रा कर रहे थे| वह बहुत अधिक थके हुए थे|
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वह प्रथम श्रेणी के अपने छोटे डिब्बे याँ कूपे में अपने लिए सुरक्षित शायिका (बर्थ) पर लेटे और जल्दी ही खर्राटे लेने लगे| यधपि उन दिनों ब्रिटिश सरकार सिद्धांत रंगभेद के विरुद्ध हो गई थी, तथापि उसके अधिकांश गोरे अफ़सर उस पर अमल करने से कतराते थे| उसी नस्ल का एक गोरा अफ़सर उस कूपे में घुसा और आकर घुसते ही उसने अपने इस सहयात्री के प्रति अपनी नाराजगी प्रकट की| उसने उनका सामान एक और खिसका दिया और उसने अपने बैरे को उनके गंदे सैंडल खिड़की से बाहर फेंकने का हुकुम दिया और आख़िर में जब गाड़ी चली तब वह ऊपर बर्थ पर चढ़ा और सो गया|
इस सारे तमाशे के शुरु में ही उस वकील की नींद खुल गई, पर वह लेटे रहे| फिर गाड़ी चलने पर वह उठे| उन्होंने चारों ओर देखा और एक खूंटी पर एक कोट देखा| उन्होंने उसे खिड़की से बाहर उड़ा दिया और स्वयं भी सो गए|
अगले दिन की सुबह मनोरंजक नहीं थी| सम्भावतः वह गोरा अफ़सर अपना सामान टटोलने लगा| आख़िर में उसने पूछने की हिम्मत की, “क्या तुमने मेरा कोट देखा है?” डॉ० आशुतोष ने जवाब दिया- “हाँ|” किसी भी झिझक के बिना वह बंगाली भद्रजन बोले|
“वह कहाँ है?”
“मेरे जूते लेने गया है|”
अभियोग स्पष्ट था| गोरे अफ़सर का तमतमाकर लाल हो गया| उसने अगले स्टेशन पर रेलगाड़ी के गार्ड और स्टेशन मास्टर तथा उस हर किसी से, जो भी सुनने के लिए तैयार था, अपनी शिकायत की| हर एक ने उन्हें संयम बरतने की सलाह दी| डॉ० आशुतोष की ख्याति सर्वत्र थी| उस गोरे अफ़सर को अपमान का यह घूँट सहन करना पड़ा और शेष बाकी सफर को डरे और सहमे हुए उसी डिब्बे में पूरा करने के लिए मजबूर होना पड़ा| इस प्रकार जैसे को तैसा ही जवाब दिया जाना चाहिए|