Homeशिक्षाप्रद कथाएँजैसी करनी वैसी भरनी

जैसी करनी वैसी भरनी

सेठ धर्मदास धार्मिक प्रवृति का व्यक्ति था| बड़े-बड़े महात्मा और ज्ञानी पुरषों के संपर्क में रहने के कारण एक महात्मा ने सेठ से कहा, ‘सेठजी आप दानी होने के साथ-साथ काफ़ी धनवान भी है| अतः आप एक मंदिर बनवा दे, जिससे आपको पुण्य लाभ मिलेगा|’

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‘महात्मन! आपकी अगर यही इच्छा है तो मैं कल से ही एक भव्य मंदिर का निर्माण शुरू करवा देता हूँ|’ सेठ धर्मदास ने कहा|

और अगले ही दिन सेठ ने मंदिर का निर्माण शुरू करा दिया| काफ़ी राज-मजदूर लगे होने की वजह से शीघ्र ही मंदिर का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो गया था|

मंदिर में लकड़ी का काम चल रहा था| बढ़ई ओर से एक बड़े-से पेड़ को चीर रहे थे| धीरे-धीरे शाम हो गई| बढ़ई ने लकड़ी के दो चीरे हुए भागों के बीच में एक मोती कीलनुमा लकड़ी फँसा दी, ताकि दोनों भाग अलग-अलग बने रहे और आगे की चिराई का काम आसानी से किया जा सके| उन्होंने अपनी आरी निकाली और अपने-अपने घरों की ओर चल दिए|

बढ़ई और दूसरे मजदूरों के चले जाने के बाद संयोगवश इधर-उधर घूमता बंदरों का झुंड वहाँ आ पहुँचा| सारे बंदर उस आधे-अधूरे बने मंदिर की छत, फर्श और दीवारों पर उछल-कूद करने लगे| उन बंदरों में से एक नटखट बंदर उस अधचिरे पेड़ पर आकर बैठ गया और अपनी सहज चंचलतावश दो पाटों के बीच में फँसी कीलनुमा लकड़ी को खींचकर बाहर निकालने का प्रयास करने लगा| झुंड के मुखिया वृद्ध बंदर ने उसे समझाया कि वह उस लकड़ी को न निकाले| परंतु मुखिया की बात उस चंचल बंदर पर कोई प्रभाव नही पड़ा और वह पहले से भी ज्यादा ज़ोर लगाकर लकड़ी को खींचकर बाहर निकालने का प्रयास करने लगा| बंदर की पूँछ दोनों पाटों के बीच लटक रही थी|

जैसे ही दोनों पाटों के बीच में से कीलनुमा लकड़ी का टुकड़ा बाहर निकला, दोनों पाट आपस में सट गए और उनके बीच में उस बंदर की पूँछ कुछ इस प्रकार दब गई कि उसे निकालना असंभव हो गया| काफ़ी देर छटपटाने के बाद उस बंदर ने प्राण त्याग दिए|


कथा-सार

बिना सोचे-समझे कभी कोई काम नही करना चाहिए और व्यर्थ के कामों में तो टांग बिल्कुल नही अड़ानी चाहिए| बड़े-बुजुर्ग जिस काम को करने के लिए मना करे, उसे नही करना चाहिए| शायद इसी में भलाई हो| बंदर ने वृद्ध मुखिया का कहना नही माना और जान से हाथ धो बैठा|