जादुई ढोल
पश्चिम भारत के एक छोटे-से राज्य में, धर्मराज नामक एक बुद्धिमान और न्यायप्रिय राजा रहता था| उसकी प्रजा के मन में उसके लिए बहुत श्रद्धा और अदार था|
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राजा धर्मराज बहुत लंबा, ऊंचा और रूपवान था| उसके सिर के बाल काले और घने थे जिन्हें उसका खास नाई भोलू ही कटता था| भोलू यह काम कई वर्षों से कर रहा था और अपने शाही हज्जाम होने का बहुत गर्व था| पर भोलू को एक बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता था| जब भी वह राजा के बाल काटने जाता, उसे याद रखना पड़ता कि वह राजा के साथ बिल्कुल अकेला हो| उस समय किसी का भी शाही कमरे में आना जाना सख्त मना था| बात दरअसल यह थी कि भोलू राजा के बारे में एक राज जानता था| राजा के सिर के दोनों तरफ सींग उग रहे थे!
यह बात सिर्फ राजा और उसका नाई जानते थे| जब भोलू ने पहली बार यह नजारा देखा तो वह भौचक्का रह गया| लेकिन उसने राजा से वादा किया कि इस बात का जिक्र वह किसी से नहीं करेगा|
“महाराज, आप निश्चिंत रहें,” भोलू राजा से बोला| “आपका यह राज मेरे पास सुरक्षित है| किसी और को इस बात की कानोंकान भी खबर नहीं होने पाएगी|”
ऐसा सुनकर राजा धर्मराज ने राहत महसूस की| उसे डर था कि अगर लोगों को इस बात की जानकारी हो गई तो राज्य भर में उसकी खिल्ली उड़ेगी| हो सकता है, लोग उसका आदर न करना बंद कर दें या फिर नए राजा की मांग ही मांग करने लगें|
इसलिए भोलू के वादे के बावजूद, राजा ने उसे सख्त हिदायत देते हुए कहा, “भोलू, अगर तुमने अपना मुंह खोला तो जान लो, सजा तो मिलेगी ही, देश निकला भी मिलेगा|”
भोलू हज्जाम की डर के मारे घिग्घी बंध गई| उसने कानों को हाथ लगाया और अपना मुंह बंद रखने की कसम खाई|
कई वर्ष बीत गये| भोलू को अपना वादा याद रहा| उसकी स्वामिभक्ति से प्रसन्न, राजा यदा-कदा उसे अच्छे-अच्छे उपहार भी देता रहता|
पर समय बीतने के साथ-साथ, भोलू के सब्र का बांध भी टूटने लगा| उसके पेट में वह राज अब पचता नहीं था कि कोई तो ऐसा हो जिसे वह राजा के सींगों वाली बात बता सके| लेकिन राजा की चेतावनी उसे चुप रहने पर मजबूर करती थी|
एक दिन भोलू राजा के बाल काटकर महल से लौट रहा था| और रास्ते भर उसके सींगों के बारे में सोचता रहा|
भोलू का घर एक छोटे से जंगल के उस पार था| ऊंचे-ऊंचे पेड़ो और लटकती बेलों में से धीरे-धीरे चलता हुआ भोलू जब थक गया, तो सुस्ताने के लिए एक घने पेड़ के नीचे बैठ गया|
भोलू को रह-रहकर सींग याद आ रहे थे| फिर यकायक वह उठकर खड़ा हो गया|
“वाह, जवाब नहीं मेरे दिमाग का! भोलू बोला और उस पेड़ को देखने लगा जिसके तले वह बैठा था|
“भई, इस पेड़ को तो बता सकता हूं न, राजा के उन अजीब सींगों के बारे में| अब यह रहस्य मेरे पेट में नहीं पचता| पेड़ तो बोल सकता नहीं, और इस तरह किसी और को यह बात पता चलने का डर भी नहीं है| पेड़ के पास यह भेद, हमेशा भेद रहेगा और मै भी इस बोझ से मुक्त हो जाऊंगा|”
भोलू ने ऐसा निश्चय किया और जोर से बोला, “हे पेड़, आज मै तुम्हें एक भेद बताने वाला हूं| हमारे राजा धर्मराज के सिर पर दो सींग हैं| हां, हां, उसके दो सींग हां!”
इतना कहकर हज्जाम बेतहाशा हँसने लगा और हँसता ही गया, “हा, हा ,हा! हो, हो, हो!”
वह भयंकर भेद आखिर खुल ही गया! भोलू खुश था-उसका भार जो हल्का हो गया था| उसके बाद वह आराम से घर पहुंचा गया|
अगले दिन एक लकड़हारा उसी जंगल में गया उसी पेड़ के पास जाकर रुक गया| “इस पेड़ की लकड़ी तो बहुत शानदार है| इसका ढोल बड़ा अच्छा बनेगा,” वह सोचने लगा|
फिर क्या था! कुल्हाड़ी के कुछ प्रहारों से ही पेड़ नीचे आ गिरा| लकड़हारे ने वह लकड़ी एक ढोल बनाने वाले के हाथों बेच दी और उसने एक बहुत सुंदर ढोल तैयार कर दिया|
“यह मेरे जीवन का सबसे अच्छा ढोल है,” ढोल वाला खुश होकर बोला| “कल बाजार जाकर इसे अच्छे दाम पर बेच दूंगा|”
अगले दिन ढोल वाला बाजार गया और एक कोने में खड़ा होकर ढोल बजाने लगा| ढोल से बड़ा सुरीला स्वर हुआ|
ढोल वाला उसकी आवाज सुनकर झूम उठा| वह चिल्लाकर बोला, “बाबू, यह ढोल खरीदो! कोई हसी जो इस शानदार, जानदार ढोल को खरीदे?”
धीरे-धीरे उसके इर्द-गिर्द भीड़ जमा हो गई| लोग खामोश होकर ढोल की मजेदार आवाज सुनने लगे|
“भई वाह! क्या कहने हैं इस ढोल के! एक बूढ़े आदमी ने तारीफ की| तारीफ सुनकर ढोल वाला और भी जोर से ढोल पीटने लगा|
तभी उस ढोल में से अजीब आवाज आई| लोगो के कान खड़े हो गए| उनका दिल धक से रह गया|
“ढम, ढम, ढम!” ढोल बजा| “आज मैं तुम्हें एक भेद बताने वाला हूं| हमारे राजा धर्मराज के सिर पर दो सींग हैं| हां, हां, उसके दो सींग हैं| हा, हा, हा! हो, हो, हो!”
लोग वहां जड़वत खड़े थे| उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था| ढोल वाला फिर ढोल पीटने लगा और फिर वही आवाज निकली| वह बहुत हैरान और शर्मिंदा हुआ| आखिर एक ढोल यह सब कैसे बोलने लगा?
देखते ही देखते, लोगों का तांता लग गया| और फिर कितना मजाक और कितने ताने, उफ्फ! “हमारे राजा के दो सींग! हमारे राजा के दो सींग!” लोग तो जैसे गाना गाने लगे|
जब राजा धर्मराज ने सुना तो दुखी भी हुआ और नाराज भी| गुस्से से उसका चेहरा तमतमा उठा और वह गरजते हुए बोला, “उस ढोल वाले को पकड़कर यहां ले आओ!”
राजा के सैनिकों ने शीघ्र उसे पकड़ा और राजा के समक्ष प्रस्तुत किया| ढोल वाला डर के मारे कांप रहा था|
“बदमाश! तेरी इतनी हिम्मत कि तू मेरी खिल्ली उड़ाये,” राजा फुंफकार| भयभीत ढोल वाले ने राजा के पैर पकड़ लिए| “महाराज,” वह गिड़गिड़ाया, “मैंने तो एक लकड़हारे से कुछ लकड़ी खरीदी थी और उसी से यह ढोल बनाया है| मै बिल्कुल नहीं जानता कि यह ढोल ऐसी बेहूदा बात कैसे बोल रहा है| मुझे क्षमा कर दीजिये, महाराज|”
राजा नदे लकड़हारे को बुलाया| “जो लकड़ी तुमने ढोल वाले को बेची, वह तुम्हें कहां से मिली?”
लकड़हारे को काटो तो खून नहीं| डरते हुए बोला, “जंगल में एक पेड़ से मिली, महाराज|”
“तुम्हारी लकड़ी से बना ढोल बोलता कैसे है?” राजा धर्मराज ने पूछा|
“मै तो खुद हैरान हूं, महाराज,” दुबिधा में फंसा लकड़हारा बोला| “मैं कई वर्षों से लकड़ी कटता और बेचता आया हूं, पर ऐसा अचंभा पहले न कभी देखा, न सुना|”
अब राजा परेशान! लकड़ी कैसे बोलने लगी? राजा और उसके दरबारी निरुत्तर थे|
पर राजा धर्मराज ने भी ठान लिया कि इस घर के भेदी का पता लगाकर ही छोड़ेगा| वह सोचने लगा| उसके आलावा सिर्फ एक ही व्यक्ति यह भेद जानता था और वह था भोलू नाई| पर भोलू तो इतना निष्ठावान है कि इतने सालों बाद भी उसने अपने मुंह का ताला लगाए रखा है| नहीं, नहीं, भोलू ऐसा नहीं कर सकता| फिर भी उसने एक बार भोलू को बुला भेजा|
“भोलू को जल्दी से हमारे सामने पेश करो! वह अपने सैनिकों से बोला| भोलू नाई आया, ऊपर से नीचे तक थरथराया हुआ| भोलू, एक तुम ही हो जिसे मेरा भेद पता तह| तुमने और किसे बताया? सच उगल वरना सजा पाओगे!”
“म…म…महाराज,” डर से भोलू हकलाने लगा, “आप तो जानते ही हैं, मैंने कितने वर्षों से अपना मुंह बंद रखा, पर मेरे लिए यह बात छुपानी मुश्किल हो रही थी| मै चाहता था कि कोई तो हो, जसे मै यह राज बता सकूं|” बोलते-बोलते भोलू रुक गया और सिर झुकाकर खड़ा रहा|
“बोलते रहो| फिर क्या हुआ?” राजा धर्मराज रुखाई से बोला|
भोलू धीरे-धीरे बोलने लगा| “एक दिन जब मैं जंगल के रास्ते से घर लौट रहा था, मै आराम करने एक पेड़ के नीचे बैठ गया| बस, आपके बाल तब काटकर ही आ रहा था और उन सींगो के बारे में भी सोच रहा था| काश! मैं उनके बारे में बता किसी से बात कर पाता| आखिर मै भी इन्सान हूं| तभी मेरे दिमाग में एक बात आई और मै पेड़ को यह राज बताकर हलका हो गाय| सोचा कि पेड़ को बताने से क्या नुकसान! क्या मालूम था का इसकी लकड़ी ही बोल पड़ेगी|”
“अब समझा,” बुद्धिमान राजा ने पहेली बूझ ली| “वह पेड़ जादुई था-सुन बोल सकता था| इसीलिए उसकी लकड़ी से बने ढोल को जैसे ही पिटा गया, वह बोलने लगा| और जो कुछ तुमने मेरे सींगो के बारे में कहा, वही शब्द यह दोहराने लगा|”
जादुई ढोल की उलझन सुलझाने के बाद राजा ने भोलू नाई की तरफ देखा| भोलू शर्म से सिर झुकाए खड़ा था| लकड़हारा और ढोल वाला भी अपने हाथ बांधे सजा का आदेश सुनने के लिए खड़े थे|
राजा धर्मराज बुद्धिमान ही नहीं, न्यायप्रिय भी था| उसने तीनों को क्षमा कर दिया क्योंकि वह जानता था कि ढोल के जादुई होने में उनका कोई दोष नहीं था|
वह मुड़ा और उनसे बोला, “मै तुम सब को माफ करता हूं| तुम तीनों लोग जा सकते हो|”
तीनों को अपने को क्षमादान मिलने पर विश्वास ही नहीं हुआ| राजा को नमन करते हुए, वे बोले, “राजन! आप महान हैं| आपकी इस कृपा के लिए शत-शत धन्यवाद|”