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इंसानियत की याद

इंसानियत की याद

अपने समय के कुख्यात डाकू सुल्ताना को बड़ी मुश्किल से मुखबिरों के द्वारा पकड़ा गया| जंजीरों में बाँधकर उसे जेल में ले जाया गया| उस पर मुकदमा चला|

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सेशन अदालत ने उसे फाँसी की सजा दी| उस पर अनेक हत्याओं, दर्जनों डकैतियों तथा लूटमार का अभियोग था| उसकी फाँसी निरस्त करने की अपील का मामला आखिरी सुनावाई के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में पहुँचा| उसके भयंकर कारनामों को सुनकर जज ने उसकी फाँसी की सजा कायम रखी|

अंग्रेज जज ने सुल्ताना डाकू की फाँसी कि सजा कायम रखते हुए कहा- “तुमने दर्जनों हत्याएँ की, सैकड़ों जगह डकैतियाँ डाली, कई गाँव लूटे, पर अंतिम समय यह बताओ कि जिंदगी में तुम्हें कभी खुदा और इंसानियत की भी याद आई? कभी तुम्हारे मन में दूसरों पर रहम-दया की भावना भी आई?”

सुल्ताना डाकू सवाल सुनाकर शांत हो गया| उसने आँखें बंद की, जैसे अपनी बीती जिंदगी की याद कर रहा हो| तीन-चार मिनट आँखें बंद रखने के बाद वह बोल उठा- “हजुर याद आया| हिमालय की तलहटी में गंगा के किनारे बच्चों की संस्था में एक बार डाका डालने गया था| मुझे मालूम हुआ था, उन बच्चों को खिलाने-पिलाने के लिए वहाँ दफ्तर में कुछ जमा-पूंजी रहती है| रात को बच्चों की संस्था में गया तो देखा कि एक छह फुटा साधु बच्चों के साथ खुदा की इबादत करता हुआ जंगल में जा रहा है| मैं उस साधु को देखता रहा, वह खुदा को दुआ करता हुआ जंगल में चला गया| मैंने उस मिट्टी को उठाया और मस्तक से लगाया| उस खुदा के बंदे की दुआ मेरे दिल को छू गई| मैं खाली हाथ गंगा के किनारे से लौट आया|

मज़बूरी